उत्तर प्रदेश का एक शहर है, देवबंद। जनसंख्या के लिहाज से देवबंद वैसे तो काफी छोटे शहरों में गिना जाता है लेकिन यह चर्चा में हमेशा रहता है, दारुल उलूम के लिए। मदरसा दारुल उलूम की स्थापना 30 मई 1866 को हुई थी। वैसे तो इस इस्लामिक संस्था की स्थापना का उद्देश्य मुस्लिमों (विशेषकर सुन्नी मुस्लिम) में सुधार करना था लेकिन इसकी विचारधारा अंततः कुरान और शरीयत के कड़ाई से पालन किए जाने पर आधारित हो गई। दारुल उलूम के अनुयायी इसे शुद्ध इस्लामी विचारधारा मानते हैं। दारुल उलूम देवबन्द की स्थापना हाजी आबिद हुसैन व मौलाना क़ासिम नानौतवी द्वारा की गई थी।
दारुल उलूम देवबंद से ही देवबंदी विचारधारा पूरी दुनिया भर में प्रचारित हुई। इसका उद्देश्य इस्लाम को उसके शुद्ध रूप में प्रसारित करना है। हालाँकि दारुल उलूम की देवबंदी विचारधारा को लेकर कई बार सवाल भी उठाए गए। द टाइम्स की 2007 की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि ब्रिटेन में लगभग आधी मस्जिदें देवबंद विचारधारा के कब्जे में आ चुकी हैं।
रिपोर्ट में देवबंद के मजहबी नेता रियाद-उल-हक के बारे में बताया गया था कि हक हिंदुओं, यहूदियों और ईसाइयों के खिलाफ सशस्त्र जिहाद का समर्थक रहा है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि ब्रिटेन की लगभग 600 मस्जिदें उस देवबंदी विचारधारा के नियंत्रण में आ चुकी हैं, जिसके शीर्ष नेता ने अल्लाह के नाम पर रक्तपात करने का आह्वान किया था।
दारुल उलूम देवबंद का सुधारवाद का दावा और उसके कुछ विरोधाभास
वैसे तो दारुल उलूम देवबंद मुस्लिमों के सुधार की बात करता है लेकिन जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के जीवन के सबसे बड़े श्राप ट्रिपल तलाक को खत्म करने का निर्णय लिया तो सबसे पहले दारुल उलूम ने ही इसका विरोध किया था और मोदी सरकार के इस निर्णय को मुस्लिमों के मजहबी मामलों में सरकार का हस्तक्षेप बताया था। दारुल उलूम ने कहा था कि सरकार का यह निर्णय न केवल मुस्लिम पुरुषों को निशाना बनाने के लिए लिया गया है बल्कि इसके द्वारा मुस्लिम महिलाओं के हित भी प्रभावित होंगे।
दारुल उलूम देवबंद एक ऐसे शिक्षण संस्थान के रूप में अपने आपको पेश करता है, जो उदारवादी विचारों का समर्थक है और मुस्लिमों को आधुनिक विश्व की व्यवस्थाओं के साथ तालमेल करके चलने के लिए प्रेरित करता है लेकिन इसी दारुल उलूम देवबंद ने अपने ही एक शीर्ष पदाधिकारी को सिर्फ इसलिए पद से हटा दिया था क्योंकि उसने पीएम मोदी की तारीफ की थी।
दारुल उलूम देवबंद के वाइस चांसलर रहे मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को संस्था की सर्वोच्च समिति मजलिसे-शूरा ने पद से हटा दिया था। यह निर्णय इसलिए लिया गया था क्योंकि वस्तानवी ने मुस्लिमों से कहा था की उन्हें 2002 के गुजरात दंगों को भूल जाना चाहिए और यह याद रखना चाहिए कि गुजरात में मुस्लिमों के साथ कोई भेदभाव नहीं हो रहा है। वस्तानवी के इस बयान के बाद देवबंद के छात्र और इस्लामिक शिक्षाविद उत्तेजित हो गए थे और वस्तानवी की बर्खास्तगी की माँग करने लगे थे।
कई बार यह प्रश्न उठा कि क्या दारुल उलूम देवबंद मात्र एक शिक्षण संस्थान है? क्योंकि देवबंदी स्कॉलर समी-उल-हक को ‘फादर ऑफ तालिबान’ कहा जाता है। और यही समी-उल-हक, दारुल उलूम हक्कानिया के दूसरे चांसलर थे।
दारुल उलूम हक्कानिया की स्थापना भी देवबंदी विचारधारा के आधार पर हुई थी। समी-उल-हक के दादा ने दारुल उलूम हक्कानिया की स्थापना की थी। हालाँकि समी-उल-हक के पिता मौलाना अब्दुल हक की शुरुआती तालीम दारुल उलूम हक्कानिया में ही हुई लेकिन अब्दुल हक ने भारत में दारुल उलूम देवबंद में ही अधिकतर इस्लाम की तालीम ली।
दारुल उलूम देवबंद के अजीबो-गरीब फतवे
इस्लामिक शिक्षा के अलावा दारुल उलूम अपने फतवों के लिए भी जाना जाता है। अक्सर ही दारुल उलूम के उलेमा फतवा देते हुए सुने जाते हैं। फरवरी 2018 में दारुल उलूम ने जीवन बीमा पॉलिसी खरीदना और अपनी संपत्तियों का बीमा करवाना इस्लाम के विरूद्ध माना था और फतवा दिया था कि ऐसी पॉलिसी खरीदना गैर-इस्लामिक है। दारुल उलूम देवबंद के उलेमाओं ने कहा था कि मनुष्य का जीवन और मृत्यु ‘अल्लाह’ के हाथ में है और इनके बारे में कोई भी बीमा कंपनी गारंटी नहीं ले सकती है।
दारुल उलूम देवबंद के वाइस चांसलर मुफ्ती अब्दुल कासिम नोमानी ने फतवा जारी करते हुए कहा था कि ‘फोटोग्राफी गैर-कानूनी और पाप’ है। नोमानी ने कहा था कि फोटोग्राफी गैर-इस्लामिक है और मुस्लिमों को अपनी फोटो नहीं खिंचवानी (जब तक कि किसी आईडी कार्ड के लिए इसकी आवश्यकता न हो) चाहिए। दारुल उलूम के इस फतवे के बाद जब यह मुद्दा उठाया गया कि सऊदी अरब में तो मक्का में भी फोटोग्राफी की अनुमति दी गई है तो नोमानी ने कहा था, “उन्हें यह करने दीजिए। हम इसकी इजाजत नहीं देते हैं। जरूरी नहीं कि जो भी वो (सऊदी अरब) करें, सब सही ही है।“
2010 में भी दारुल उलूम देवबंद अपने फतवों के बाद विवादों में आया था, जब तीन मौलवियों की बेंच ने महिलाओं के सरकारी या निजी क्षेत्रों में काम करने को ‘हराम’ कहा था। फतवा में कहा गया था कि इस्लामिक शरिया कानून के मुताबिक महिलाओं का सरकारी या निजी क्षेत्र में पुरुषों के साथ काम करना गैर-इस्लामिक और गैर-कानूनी है। फतवा में यह भी कहा गया था कि शरिया के अनुसार एक नौकरी वाली महिला को स्वीकार करना भी एक परिवार के लिए गैर-इस्लामिक है।
हालाँकि दारुल उलूम देवबंद की इस्लामिक शिक्षा मुख्य रूप से भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में ही केंद्रित है लेकिन यह ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका के कई हिस्सों में भी लोकप्रिय हो रहा है। यदि दारुल उलूम यह कहता है कि उसका उद्देश्य इस्लाम में सुधार लाना है और मुस्लिमों को बेहतर जीवन शैली की ओर प्रेरित करना है तो समय-समय पर उसके द्वारा दिए गए फतवे दारुल उलूम देवबंद के इस दावे पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं।