एक रोज़ मेरे चाचा ने माँ को फोन किया, उनकी बातें सुनकर मैं समझ गया कि कश्मीर में हालात कुछ ठीक नहीं हैं। पता चला कि चाचा के बेटे और मेरे भाई को एक धमकी भरा पत्र मिला है। एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद एक लम्बे संघर्ष से जूझते हुए मेरे भाई को केंद्र सरकार के अंतर्गत कश्मीर में एक नौकरी मिली। यह नौकरी भी उसे सरकार की उस नीति के चलते मिल पाई जिसे कश्मीर से विस्थापित हिन्दुओं के लिए बनाया गया था, यह वही नीति है जो लोगों के बीच ‘पीएम की सौगात’ के नाम से लोकप्रिय है। घर वालों की इच्छा न होने के बाद भी मेरे भाई ने कश्मीर जाने का फैसला किया क्योंकि नौकरी के लिए उसके पास ज्यादा ज्यादा विकल्प नहीं थे।
धमकी मिलने की बात सुनकर घर के लोग जैसे सहम गए, घबरा गए थे। पिछले दो दशक में पहली बार यह एक ऐसा मौका था जब घर के बड़े-बुज़ुर्ग इस विषय पर खुलकर चर्चा कर रहे थे कि किन परिस्थितियों में हमें कश्मीर को छोड़ना पड़ा था, क्योंकि घर में इस विषय को लेकर इससे पहले कभी किसी को हमने इतना खुलकर बात करते नहीं सुना था यकीन मानो जैसे यह चर्चा बच्चों के लिए हो ही नहीं। हालाँकि जान की धमकी मिलने के बावजूद मेरे भाई के लिए बाक़ी दिनों की तरह वह दिन भी किसी आम दिन जैसा ही था।
किसी भी इन्सान के लिए जान सबसे कीमती चीज़ होती है, कहते हैं जान है तो जहान है लेकिन इस सब के बावजूद में जान से मारने की धमकी मिलने के बावजूद नौकरी पर अड़े रहने की मेरे भाई की जिद मेरी समझ से बाहर थी। एक दिन फेसबुक पर ‘कश्मीर में रहने वाले हिन्दुओं’ की चर्चा में लोगों की चिट्ठियाँ देखीं, कुछ पोस्ट्स देखे कि फिर एक ऐसी पोस्ट ने मेरा ध्यान अपनी और खींच लिया जो शायद मेरे भाई की ही तरह कश्मीर में केंद्र सरकार की नौकरी करने वाले एक शख्स ने लिखी थी। केंद्र सरकार की उस नीति के तहत कैसे विस्थापित हिन्दुओं को एक जाल में फँसा दिया जाता है और मजबूरी में उन्हें कैसे हालातों का सामना करना पड़ता है- उस इन्सान ने इस बारे में वहाँ मिलने वाली सरकारी नौकरी की असलियत लिखकर अपनी विवशता ज़ाहिर कर दी।
दरसल उस पोस्ट में एक गुमनाम शख्स ने लिखा था, “कश्मीर में हिन्दुओं के नौकरी करने के लिए हालात इतने खराब हैं कि उन्हें घाटी में वापस आकर नौकरी करने तक पर धमकाया जाता है, वहाँ काम करने को लेकर परिस्थितयाँ इतनी खराब हैं कि उनकी जान पर बन आती है। कश्मीर से विस्थापित हिन्दुओं को केंद्र सरकार जिस नीति के तहत नौकरी के लिए कश्मीर भेजती है, वह दरअसल एक ऐसा कॉन्ट्रैक्ट है जिसमें हमको फँसाया गया है, लेकिन विपरीत परिस्थितियों के चलते नौकरी छोड़ने के बाद उसका ‘विस्पथित हिन्दू’ होने दर्जा भी छिन जाता है।”
मैं समझ गया कि क्यों मेरे भाई ने जान से मारने की धमकी मिलने के बावजूद कश्मीर में ही रहकर नौकरी करने का फैसला किया। इसके बाद मैंने कश्मीर जाने का फैसला किया, सबसे ज़रूरी था कि घर वालों को मनाया जाए, किसी तरह से मैंने उनको विश्वास में लिया और बताया कि मै कश्मीर होते हुए लद्दाख की ओर जाऊँगा और वापस लौट आऊँगा। मैंने उन्हें कहा कि वहाँ जाते वक़्त मै कश्मीर से होकर जाऊँगा तो अपने भाई को कश्मीर से वापस आने के लिए ज़रूर मानाने की कोशिश करूँगा।
अगले दिन जब मैं कश्मीर पहुँचा तो पता चला कि मेरा भाई घर पर नहीं था, वह एक प्रतिनिधिमंडल के साथ पास में रहने वाले एक स्थानीय हुर्रियत नेता से मिलने गया है। उसके आते ही सबसे पहला सवाल मैंने यही पूछा- “तुम लोगों को एक अलगाववादी नेता से मिलने की क्या ज़रूरत पड़ी?”
वह धीरे से मुस्कुराकर बोला, “यह तुम्हारे फेसबुक वाले डिस्कशन की जगह नहीं है, न ही ये अमेरिका है, यहाँ हालत बहुत अलग हैं, अगर यहाँ कोई सनी देओल बनने की कोशिश करे तो अगले दिन उसकी लाश नदी में तैरती हुई पाई जाती है। हम अब यहाँ कोई सैलानी नहीं हैं, यहीं कमाते हैं, यहीं खाते हैं इसलिए यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि हर कोई हमारे साथ हो, अलगाववादी भी !”
उसके यह कहने के बाद भी हमारे बीच चर्चा चलती रही।
दरअसल पड़ोस के इलाके में बने एक अपार्टमेंट के कुछ लड़के पास की एक शराब की दुकान से बियर खरीदकर ले गए थे। कुछ ही दिन बाद उस इलाके को गाली-गलौच वाली अभद्र भाषा में एक पत्र मिला जिसमें एक चेतावनी के साथ लिखा था कि ‘गैर-इस्लामिक’ कामों में पड़ने का अंजाम बहुत बुरा होगा, जो भी ऐसा करेगा उसे भविष्य में इसे भुगतना भी पड़ेगा। पूरे इलाके के लिए यह हैरान करने और उससे भी ज्यादा डरा देने वाली बात थी। यह डर ही असली वजह है कि लोग यहाँ मंदिर में पूजा-पाठ भी इतना धीरे से करते हैं कि जिससे किसी तरह का कोई विवाद पैदा न हो।
अपार्टमेंट वाली टाउनशिप में जब उस चिट्ठी को लेकर आपात मीटिंग में लड़कों ने बताया कि कुछ दिन पहले वे बाज़ार से बियर खरीदने गए थे। यह देखकर सभी सहम गए क्योंकि कोई उनके टाउनशिप में हो रही गतिविधियों पर नज़र रख रहा था।
हर कोई इतना डर गया था कि उन्होंने सबसे पहले उनके एक प्रतिनिधिमंडल ने एक स्थानीय अलगाववादी नेता से मिलने का फैसला किया। नेता ने सरहद पार तक फैले अपने अपने नेटवर्क में सभी से जानकारी तो एक आतंकवादी संगठन के मुखिया ने लाउडस्पीकर पर यह बताया कि ऐसी कोई भी चिट्ठी नहीं भेजी गई है, उसने कहा कि हो सकता है यह किसी स्थानीय लड़के ने शरारत में लगा दी होगी। प्रतिनिधिमंडल में गए लोग इस बात को कहते हैं कि पूरी मीटिंग का नतीजा यही निकला कि भले कश्मीरी हिन्दू यहाँ काम कर रहे हैं रह रहे हैं, मगर कोई उन पर पूरी नज़र ज़रूर रख रहा है जिससे वे किसी गैर-इस्लामिक हरकत में न पड़ें।
अगले कुछ हफ्ते यही प्रतिनिधिमंडल पुलिस के उच्चाधिकारियों से भी मिलने पहुँचा, उन्होंने कश्मीर और उससे बाहर कई वरिष्ठ राजनेताओं से बातचीत भी की, मगर कोई मदद के लिए आगे नहीं आया। किसी को भी इस बात की परवाह नहीं थी कि उस धमकी भरे पत्र के उन लोगों के लिए क्या मायने हैं जिन्होंने कश्मीर घाटी में हिन्दुओं के नरसंहार के करीब दो दशक के बाद कश्मीर जाने की कोशिश की थी।
हालाँकि कुछ मीडिया वालों ने शुरुआत में इसपर ध्यान दिया, यह घटना औसत से भी निचले दर्जे की जिंदगी जी रहे लोगों के लिए एक निर्णायक मोड़ की तरह हो गईं। अगले कुछ महीनों में मैंने महसूस किया कि कैसे एक क्लास में कम उम्र के लड़के टीचर तक को धमका दिया करते थे। जब भारत-पाकिस्तान का मैच होता था तो लगता जैसे पाकिस्तान जीते तो ही बेहतर है क्योंकि अन्यथा होता तो हालात बहुत खराब हो जाया करते। हमने सीख लिया था कि हमें सेलिब्रेट नहीं करना है। उस बीयर वाली घटना ने जैसे सब कुछ बदल कर रख दिया, उनकी ओर से यह एक चेतवानी है कि हमें उन्ही की शर्तों पर जीना पड़ेगा तभी सब ठीक रहेगा।
तीन हफ्ते से भी ज्यादा समय तक वहाँ रहने के दौरान मैंने सीखा कि फेसबुक और उसकी चर्चाओं में हम कैसे चीज़ों को सही या गलत के तौर पर कैसे देखते हैं। 18 घंटे से भी ज्यादा बिजली कटने, कोई बहरी मदद न मिलने और इकलौते सिक्योरिटी गार्ड के भरोसे पूरी टाउनशिप को आतंकवादी हमले से सुरक्षा जैसी चिंता कितने ही लोगों को असहाय महसूस करा रही थी। राजनेता ऐसे हैं जो किसी की मदद नहीं करते, प्रशासन ऐसा जिसकी प्राथमिकताएँ जनता की सुरक्षा छोड़कर कुछ और ही हैं कि स्थानीय लड़के घर से काम पर जाती लड़कियों से छेड़खानी करते हैं तो भी वह कुछ नहीं करता। कश्मीर में हिन्दुओं की टाउनशिप के लिए अपना अस्तित्व बचाए रखना ही एक बड़ी चुनौती है, किसी नयी उम्मीद की कोई किरण दिखना तो नामुमकिन है।