केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के कारगिल में इस्लामी मौलवियों व कट्टरपंथियों द्वारा बौद्धों का प्राचीन मंदिर गोंपा बनाए जाने से रोकने का मामला अब तूल पकड़ चुका है। क्षेत्र में अल्पसंख्यक बौद्धों ने इन मौलवियों के विरुद्ध आवाज उठाई है और आज भी इस संबंध में बौद्धों द्वारा रैली की गई है। वह क्षेत्र में अपने मठ के शिलान्यास के लिए लगातार माँग कर रहे हैं।
कारगिल में बौद्ध मंदिर आंदोलन…
— Madhurendra kumar मधुरेन्द्र कुमार (@Madhurendra13) June 13, 2022
बौद्ध अल्पसंख्यकों के प्राचीन गोंपा पुनर्निर्माण का बहुसंख्यक मुस्लिमो के विरोध से मामला तूल पकड़ा.
बौद्ध समुदाय का मार्च और आंदोलन जारी। pic.twitter.com/x1e1BPC18d
मालूम हो कि कारगिल में इस तरह दो गुटों में बँटवारा प्रत्यक्ष रूप से पहली दफा सामने आया। 31 मई को बौद्ध गुरु चोस्कयोंग पाल्गा रिनपोछे के नेतृत्व में 1 हजार से ज्यादा उनके अनुयायियों ने पदयात्रा शुरू की थी जिसे 14 जून तक कारगिल पहुँचना था। लेकिन इसी बीच मुस्लिमों ने इस पर आपत्ति जता दी। अब बौद्ध अपने अधिकार की माँग कर रहे हैं। उनके मार्च की कई वीडियो सोशल मीडिया के जरिए सामने आई हैं।
इस वीडियो को देख नेशनल सिक्योरिटी अफेयर एनालिस्ट दिव्य कुमार सोती ने सवाल उठया है। उन्होंने पूछा, “बौद्ध धर्म के नाम पर हिंदुओं को गाली देकर जीवन चलाने वाले भंते करूणाकर, वामन मेश्राम और भीम आर्मी कहाँ हैं? असली आतंकियों का सामना करने से डर लगता है क्या?”
बौद्ध धर्म के नाम पर हिंदुओं को गाली देकर जीवन चलाने वाले भंते करूणाकर, वामन मेश्राम और भीम आर्मी कहां हैं? असली आतंकियों का सामना करने से डर लगता है क्या? https://t.co/iTtO8xAVmx
— Divya Kumar Soti (@DivyaSoti) June 14, 2022
लद्दाख में बौद्ध आंदोलन
बता दें कि शिया मुस्लिम बहुल कारगिल क्षेत्र में गोंपा को बनाना बौद्ध समुदाय की एक पुरानी माँग रही है। बौधगुरु चोस्कयोंग पालगा रिनपोछे ने अपने अनुयायियों के साथ कारगिल में इस विवादास्पद स्थल पर प्राचीन मठ की नींव रखने के उद्देश्य से यात्रा शुरू की थी, मगर कट्टरपंथियों से यह देखा नहीं गया। उन्होंने 2 कनाल भूमि पर मठ के शिनान्यास का विरोध 1969 में निकाले गए एक सरकारी आदेश पर किया। कथिततौर पर उस आदेश में लिखा था कि भूमि को कमर्शियल और रेंजीडेंशियल लिहाज से इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन मंदिर बनाने के लिए भूमि का प्रयोग नहीं होगा। हालाँकि, हम यदि 1969 से पहले की बात करें तो कुछ रिपोर्ट्स कहती हैं कि 15 मार्च 1961 को जम्मू कश्मीर के जनरल डिपार्टमेंटट ने लद्दाख बौद्ध एसोसिएशन को बौद्ध मंदिर और सराय बनाने के लिए जमीन दी थी जिसमें उन्हें धार्मिक निर्माण करने की अनुमति थी।
कहा जाता है कि ये जगह दोनों समुदायों के लिए जरूरी है। ऐसे में विवाद सुलझाने के लिए पिछले साल इसे लेकर एक गठबंध बना था। लेकिन, उसके बाद कारगिल डेमोक्रेटिक गठबंधन ने डिप्टी कमिश्नर को पत्र लिख दिया और कहा कि बौद्धों का ये मार्च राजनीति से प्रेरित है। पत्र में ये भी कहा गया कि ये लद्दाख की सौहार्दता को नुकसान पहुँचा सकता है।
पत्र में बताया गया कि केडीए ने लद्दाख बौद्ध एसोसिएसन के साथ बैठक की थी। दोनों पार्टियों ने मुद्दे को सुलझाने पर सहमति जताई थी। ऐसे में किसी तीसरे शख्स को ये इजाजत नहीं होनी चाहिए कि वो क्षेत्र की शांति को हानि पहुँचाए। वहीं लद्दाख बौद्ध एसोसिएशन के प्रमुख करमा शारदुल ने इस मुद्दे पर कहा कि वो इलाके में कोई तनाव नहीं पैदा करने चाहते, लेकिन ये बौद्धों का अधिकार है कि वह भी वहाँ पर पूजा करें।
स्थानीयों की बात करें तो कारगिल के मुस्लिमों का कहना कि आसपास के 20 किलोमीटर में कोई बौद्ध नहीं रहता और जो एक बिल्डिंग है उसे बौद्ध गेस्ट हाउस कहा जाता है। ऐसे में उसे वही रहने दिया जाना चाहिए। वहीं बौद्धों ने शिकायत की है कि क्षेत्र की स्थानीय जनता उन्हें बिल्डिंग में निर्माण का कार्य नहीं करने दे रही ।