हाल ही में डासना के शिव-शक्ति मंदिर में आसिफ नाम के 15 साल के लड़के की पिटाई के बाद लिबरल गिरोह ने नैरेटिव बनाया था कि वो पानी पीने गया था, लेकिन उसे पीट दिया गया। हालाँकि, उसे पीटने के आरोपित श्रृंगी यादव ने बताया कि वो और उसका साथी महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार और शिवलिंग पर पेशाब कर रहा था। इस प्रकरण में वहाँ के महंत यति नरसिंहानंद सरस्वती (कभी उनका नाम दीपक त्यागी था) खासे चर्चा में रहे।
उन्होंने वामपंथी ब्रिगेड की जिस तरह से धज्जियाँ उड़ाई, उससे लोग खूब प्रभावित हुए। खासकर ‘The Quint’ के पत्रकारों के हर सवाल पर तगड़ा जवाब देकर उनके नैरेटिव को उन्होंने ध्वस्त किया। वो वीडियो इंटरनेट पर वायरल हुआ और एक सेंसेशन बन गया। लेकिन, क्या आपको पता है कि मॉस्को से इंजीनियरिंग और लंदन में नौकरी करने वाला एक व्यक्ति हिन्दू महंत कैसे बन गया? आइए, आपको बताते हैं यति नरसिंहानंद की कहानी।
इंजीनियर दीपक त्यागी कैसे बन गए डासना के महंत
पिछले साल महंत यति नरसिंहानंद सरस्वस्ती ने खुद ही एक लेख के माध्यम से अपने जीवन के कई अध्यायों के बारे में खुलासा किया था। ये लेख ‘समाचार 24×7’ में प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने एक मासूम के साथ हुई ‘लव जिहाद’ की घटना का ब्यौरा दिया है, जिसके कारण उनका जीवन बदल गया। इस लेख में उन्होंने एक लड़की की ‘दर्दनाक और सच्ची कहानी’ के बारे में बताया है। ये घटना 1997 की है, जब वो ‘दीपक त्यागी’ हुआ करते थे।
इस लेख में उन्होंने जानकारी दी है कि वो उस वक़्त मॉस्को से ‘इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल इंजीनियरिंग’ से Mtech की शिक्षा पूरी कर वापस देश लौटे थे। वे कुछ बड़ा करना चाहते थे और इसके लिए उन्हें लगा कि राजनीति में जाना चाहिए। उनका जन्म एक उच्च-मध्यम वर्गीय किसान परिवार में हुआ था और उनके दादाजी स्वतंत्रता से पहले बुलंदशहर जिले के कॉन्ग्रेस के पदाधिकारी थे। महंत यति को इस पर गर्व है कि वे उन बहुत कम लोगों में से थे, जिन्होंने आजादी के बाद स्वतंत्रता सेनानी के रूप में पेंशन नहीं ली।
वहीं उनके पिता केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों की यूनियन के एक राष्ट्रीय स्तर के नेता थे। महंत यति का कहना है कि उनका जन्म एक त्यागी परिवार में हुआ तो उन्हें बाहुबल की राजनीति पसंद थी और कुछ जानने वालो ने उन्हें समाजवादी पार्टी की यूथ ब्रिगेड का जिलाध्यक्ष भी बनवा दिया था। उन्होंने बताया कि जैसा की राजनीति में सभी करते हैं, उन्होंने भी अपने बिरादरी के लोगों का एक गुट बनाया और कुछ त्यागी सम्मेलन आयोजित किए।
महंत यति नरसिंहानंद सरस्वती बताते हैं कि तब बहुत से त्यागी उनके साथ हो गए और उन्हें एक युवा नेता के तौर पर पहचाना जाने लगा। चूँकि उनके दादा जी कॉन्ग्रेसी, पिता यूनियन लीडर और खुद समाजवादी पार्टी के नेता थे, उनका मानना है कि तब उनका हिंदुत्व के किसी भी विचार से कुछ भी लेना-देना नहीं था और विदेश में पढाई-नौकरी के कारण धार्मिक बातों को केवल अंधविश्वास और ढोंग समझते थे।
वे लिखते हैं कि मेरठ में रहने और विदेश में पढ़ने और अपनी सामाजिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि के कारण उनके बहुत सारे मुस्लिम दोस्त हुआ करते थे। एक दिन अचानक वे भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक पूर्व सांसद बैकुंठ लाल शर्मा ‘प्रेम’ से मिले, जिन्होंने तभी संसद की सदस्यता से इस्तीफा देकर हिंदुत्व जागरण का काम शुरू किया था। उन्होंने दीपक त्यागी को मुस्लिमों के अत्याचार की ऐसी-ऐसी कहानियाँ बताई कि उनके ही शब्दों में कहें तो उनका दिमाग घूम गया, लेकिन विश्वास नहीं हुआ।
फिर उन्होंने उस घटना का जिक्र करते हुए बताया है कि उनका कार्यालय गाज़ियाबाद के शम्भू दयाल डिग्री कॉलेज के सामने था। उसी कॉलेज में पढ़ने वाली त्यागी परिवार की ही एक लड़की उनके पास आई और उसने कहा कि उसे उनसे कुछ काम है। जब महंत यति ने उससे काम पूछा तो उसने अकेले में बताने की बात कही। तब उन्होंने अपने साथ बैठे लोगों को बाहर जाने को कहा। जब सब चले गए तो अचानक वह लड़की रोने लगी और लगभग आधा घण्टा रोती ही रही।
महंत यति नरसिंहानंद सरस्वती ने इस घटना का विवरण देते हुए आगे बताया है कि उन्होंने उसे पानी पिलाने की कोशिश की तो उसने पानी भी नहीं पिया और उठ कर वहाँ से चली गई। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। उनका कहना है कि उन्होंने इस तरह किसी अनजान महिला को रोते हुए नहीं देखा था। वो लिखते हैं कि उस ‘बच्ची’ का चेहरा बहुत मासूम सा था और उन्हें वो बहुत अपनी सी लगी। उन्हें ऐसा लगा की उनका और उसका कुछ रिश्ता है। उन्होंने आगे बताया:
“कुछ दिन बाद मैं उसे लगभग भूल गया कि अचानक वो फिर आई और उसने मुझसे कहा कि वो मुझसे बात करना चाहती है। मैंने फिर अपने साथियों को बाहर भेजा और उसको बात बताने को कहा। उसने बात बताने की कोशिश की परन्तु वो फिर रोने लगी और उसका रोना इतना दारुण था कि मुझ जैसे जल्लाद की भी आँखे भर आईं। मैंने उसके लिए पानी व चाय मँगवाई। धीरे-धीरे वो सामान्य हुई और उसने मुझे बताया कि एक साल पहले उसकी दोस्ती उसके क्लास की एक मुस्लिम लड़की से हो गई थी, जिसने उसकी दोस्ती एक मुस्लिम लड़के से करा दी।”
“उन दोनों ने मिल कर उसके कुछ फोटो ले लिए थे और पूरे कॉलेज के जितने भी मुस्लिम लड़के थे, उन सबके साथ उसको सम्बन्ध बनाने पड़े। अब हालत ये हो गई थी कि वो लोग उसका प्रयोग कॉलेज के प्रोफेसर्स को, अधिकारियो को, नेताओं को और शहर के गुंडों को खुश करने के लिए करते थे और इस तरह की वो अकेली लड़की नही थी, बल्कि उसके जैसी पचासों लड़कियाँ उन लोगों के चंगुल में फँसी हुई थी। इसमें सबसे खास बात ये थी जो उसने मुझसे बताई की सारे मुस्लिम लड़के-लड़कियाँ एकदम मिले हुए थे और बहुत से हिन्दू लड़के भी अपने अपने लालच में उनके साथ थे और सबका शिकार हिन्दू लड़कियाँ ही थी।”
डासना के महंत यति नरसिंहानंद सरस्वती ने उस लेख में बताया है कि उनके दिमाग में ये घूम रहा था कि वो लड़की उन्हें ये सब क्यों बता रही है और उन्होंने ये सवाल पूछा भी। उस लड़की ने उनसे कहा कि वो सारे मुस्लिम हमेशा उनके साथ दिखाई पड़ते हैं। लड़की ने कहा कि एक तरफ तो वो त्यागियों के उत्थान की बात करते हैं और दूसरी तरफ ऐसे लोगों के साथ रहते हैं जो इस तरह से बहन-बेटियों को बर्बाद कर रहे हैं।
बकौल महंत यति नरसिंहानंद सरस्वती, जब उस लड़की ने कहा कि उसकी बर्बादी के जिम्मेदार उनके जैसे लोग हैं, तब उन्हें ये बात बहुत बुरी लगी। मुस्लिमों के साथ घूमने के कारण उस लड़की ने यहाँ तक अंदाज़ा लगा लिया कि उन्हें भी कुछ न कुछ मिलता है, तभी वो चुप हैं। उसी लड़की से उन्होंने जिहाद शब्द पहली बार सुना और उन्होंने उस लड़की के साथ हुई दरिंदगी का पता लगाया, इस्लामी साहित्य पढ़े और पूर्व सांसद प्रेम की बातों को याद किया। तब दीपक त्यागी यति नरसिंहानंद सरस्वती बनने लगे।
उन्होंने आशंका जताई कि उस लड़की ने आत्महत्या कर ली और वो उसे बचा नहीं सके। वो लिखते हैं, “आज मैं देखता हूँ कि ऐसी घटनाएँ तो हमारे देश में रोज होती है और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। यहाँ तक की जिनकी बेटियों और बहनों के साथ ऐसा होता है उन्हें भी कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन, मुझे फर्क पड़ा और मैं जानता हूँ कि मैंने जो कुछ किया वो बहुत अच्छा किया। मुझे किसी बात का कोई अफ़सोस नहीं है। मैं जो भी कर सकता था, मैंने किया और जो भी कर सकता हूँ, तब तक करूँगा जब तक ज़िंदा हूँ।”
बता दें कि डासना व आसपास के इलाकों में यादवों और गुर्जरों के बीच खासा संघर्ष हुआ करता था। उस तनाव के कारण जब स्थिति नियंत्रण से बाहर होती जा रही थी, तब महंत सरस्वती ने आगे आकर शांति स्थापित करने के लिए पहल किया। उन्होंने दोनों समुदायों को समझाया था कि वे एक ही माँ के दो हाथ हैं, इसीलिए लड़ना बंद करें। उन्होंने दोनों समुदायों के लोगों को बताया कि कैसे हिन्दुओं की आपसी लड़ाई का फायदा हिंदुत्व-विरोधी ताक़तों को मिलता रहा है।