मद्रास हाई कोर्ट ने तमिलनाडु सार्वजनिक परिसर (अनधिकृत कब्जेदारों की बेदखली) संशोधन अधिनियम 33, 2010 को वक्फ अधिनियम 1995 के तहत अमान्य करार दे दिया है, क्योंकि यह संविधान के दायरे से बाहर है। इस संशोधन के जरिए तमिलनाडु वक्फ बोर्ड के सीईओ को एस्टेट अधिकारी के रूप में कार्य करने का अधिकार प्रदान किया था।
एस्टेट अधिकारी के रूप में वक्त बोर्ड के सीईओ उन वक्फ संपत्तियों पर अतिक्रमण करने वालों को बेदखल करने का आदेश दे सकता है, जिन्हें तमिलनाडु सार्वजनिक परिसर (अनधिकृत कब्जादारों की बेदखली) अधिनियम 1976 के दायरे में लाया गया था।
मुख्य न्यायाधीश एसवी गंगापुरवाला और न्यायमूर्ति डी भरत चक्रवर्ती की खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि वक्फ संपत्तियों पर अतिक्रमण करने वालों को केंद्रीय कानून में साल 2013 में किए गए संशोधन के बाद स्थापित वक्फ न्यायाधिकरणों के माध्यम से ही बेदखल किया जा सकता है। यानी कोई व्यक्ति यदि वक्फ सम्पत्ति पर अवैध कब्जा करता है तो उसे मात्र वक्फ ट्रिब्यूनल ही हटा सकता है ना कि इस नए संशोधन द्वारा नियुक्त अधिकारी। इसके खिलाफ कई रिट याचिका दाखिल की गई थीं।
इन याचिकाओं में कहा गया था कि राज्य का 2010 का संशोधन वक्फ अधिनियम 1995 के प्रतिकूल था। कुछ अपीलें भी जुड़ी हुई थीं, जो जुलाई 2023 में पारित एकल न्यायाधीश पीठ के आदेश को रद्द करने के लिए दायर की गई थीं। इस मामले में सभी याचिकाकर्ता और अपीलकर्ता या तो किरायेदार थे जिनका पट्टा समाप्त हो गया था या उन्हें वक्फ से संबंधित संपत्तियों/परिसरों के संबंध में अतिक्रमणकारी माना गया था।
याचिकाकर्ताओं और अपीलकर्ताओं की ओर से तर्क दिया गया है कि संसद ने वक्फ संशोधन अधिनियम 2013 के माध्यम से वक्फ संपत्तियों के अनधिकृत कब्जे और उनकी बेदखली से निपटने के लिए वक्फ अधिनियम 1995 में संशोधन किया था। इसमें ऐसे अतिक्रमणों या अनधिकृत कब्जे से निपटने के लिए स्पष्ट रूप से धारा 54 बनाई गई थी।
संशोधित कानून की धारा 85 में सिविल कोर्ट, राजस्व अदालत और किसी भी अन्य प्राधिकारी के वक्फ के मामले में सुनवाई करने के क्षेत्र पर रोक लगा दी गई है। इसमें तमिलनाडु अधिनियम के तहत एस्टेट अधिकारी का अधिकार भी शामिल होगा। यह भी तर्क दिया गया कि केंद्रीय अधिनियम का उद्देश्य वक्फ संपत्तियों से अनधिकृत कब्जेदारों को बेदखल करने के लिए एक व्यापक और देश भर में समान तंत्र तैयार करना है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि इसको देखते हुए तमिलनाडु अधिनियम 2010 स्वयं शून्य हो जाता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि केंद्रीय अधिनियम के साथ टकराव वाले राज्य के किसी भी राज्य कानून को खत्म कर दिया जाएगा। इस मामले में भारत सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर-जनरल पेश हुए और अपना तर्क रखा। कोर्ट ने भी कहा कि इस मामले में राज्य के क़ानून को राष्ट्रपति की स्वीकृति की आवश्यकता थी। ऐसे में कोर्ट ने अतिक्रमण सम्बन्धी ट्रिब्यूनल के अधिकार को ही मानते हुए इस कानून संशोधन को अमान्य करार दे दिया।