वामपंथी प्रोपेगैंडा पोर्टल The Wire ने आजकल नई ‘ब्रांच’ खोली है- झोलाछाप अर्थशास्त्र पढ़ाने की। और अपने पहले चैप्टर में लेकर आए हैं झोलाछाप नुस्खा, कि आखिर क्यों शर्तिया तौर पर वाहियात और आर्थिक रूप से बोझिल विचार होने के बावजूद महिलाओं को मेट्रो में मुफ़्त यात्रा करने देना चाहिए। इसमें अमेरिका में की गई एक रिसर्च को भारत में लागू कर देने से लेकर अर्थशास्त्रीय परिभाषाओं को शीर्षासन करा देने और टैक्स पर प्रवचन वगैरह काफी कुछ है। अगर किसी चीज़ की कमी है, तो केवल एक अदद तर्कसंगत वाक्य की, जिसे पढ़कर ऐसा लग सके कि हाँ भाई, मेट्रो महिलाओं के लिए मुफ्त कर दी जानी चाहिए।
सड़क के साथ तुलना कृत्रिम समानता (false equivalence), और स्पष्ट झूठ
लेखिका सानिका गोडसे यह तर्क करतीं हैं कि जिन लोगों को अपना टैक्स का पैसा महिलाओं की मुफ्त की मेट्रो यात्रा में ‘बर्बाद’ होता दिख रहा है, उन्हें आखिर इस पर क्यों शिकायत नहीं होती कि सड़क टैक्स के पैसे से बनती है, और उस पर बड़ी गाड़ियाँ लगभग मुफ्त में जगह घेर-घेर कर चलतीं हैं।
मुझे समझ नहीं आ रहा कि ऐसा तर्क देना वाला खुद अर्थशास्त्र में काला अक्षर भैंस बराबर है, या धूर्त वायर वाले अपने पाठकों को मूर्ख समझते हैं कि ज़रा सा विक्टिम-कार्ड खेल कर, महिला-सेंटीमेंट की अपील कर कुछ भी पढ़ा दो, पब्लिक इमोशनल मूर्ख है, पचा लेगी। गोडसे जी, पहली बात तो सड़कों पर यह गाड़ियाँ ‘लगभग मुफ़्त’ में नहीं चलतीं। वह रोड टैक्स देतीं हैं, टोल टैक्स देतीं हैं, उनके ईंधन पर टैक्स लगता है, और अगर ‘लग्ज़री’ गाड़ियाँ हैं तो ऊँची दर का जीएसटी और सरचार्ज भी लगता है।
इसके अलावा जिन टैक्स भरने वालों को अपने टैक्स के अनुपात में आउटरेज न करने और अपने टैक्स के बराबर ‘हिस्सेदारी’ न माँगने के लिए लताड़ रहीं हैं, अगर आपके इसी लॉजिक को वह हर जगह इस्तेमाल करने लगें तो आपकी रेवड़ी-नॉमिक्स धरी-की-धरी रह जाएगी। इस देश में आयकर देने वालों का अनुपात जनसंख्या के मुकाबले बहुत कम है- शायद 5% या 10%। आप जिस लॉजिक को ‘हर जगह लगाने’ की चुनौती दे रहीं हैं, अगर वह सच में ‘हर जगह’ लगने लगे, तो इस देश का गरीब कहाँ जाएगा? और तब आप ही यह प्रवचन भी लेकर आ जाएँगी कि टैक्स भरने वालों की ‘सामाजिक जिम्मेदारी’ है…
आपने कौन सा सर्वे किया जिससे आपको पता चला कि अधिकांश हिस्सा सड़कों पर निजी, महँगी गाड़ियाँ ही छेंक कर चलतीं हैं? या अपनी मर्जी से, शैम्पेन की चुस्की लेते हुए अपनी खिड़की के बाहर देखा और राष्ट्रीय सर्वेक्षण हो गया? शैम्पेन लिबरल्स का एसी में बैठकर गरीबनवाज़ बनना ही वामपंथ को लील रहा है। सुधर जाइए!
जवान, स्वस्थ पुरुषों ने आपका क्या बिगाड़ा है?
अगला आउटरेज गोडसे जी का यह है कि प्रधानमंत्री को हाल ही में पत्र लिखने वाले डीएमआरसी के पूर्व अध्यक्ष श्रीधरन इस पर चिंता क्यों जता रहे हैं कि आज महिलाओं को मुफ्त यात्रा करने की सुविधा दे दी गई तो कल बूढ़े, बीमार, विकलांग, छात्र आदि लगभग हर समूह पाने लिए मुफ्त यात्रा माँगने चला आएगा। इस पर वह यह आउटरेज करतीं हैं कि इसमें बुराई ही क्या है; सार्वजनिक स्थलों पर जवान, स्वस्थ पुरुषों की ‘ऐसी भीड़ जमा है’, सामाजिक न्याय के तहत सभी समूहों को बराबरी से सार्वजनिक स्थलों के इस्तेमाल का हक़ मिलने का स्वागत किया जाना चाहिए।
यह तर्क भी कोरी लफ़्फ़ाज़ी और अमेरिका से उठाए वामपंथी समाजशास्त्र को (जिसे वहाँ भी गालियाँ पड़ रहीं हैं, और दुत्कारा जा रहा है) धूर्तता से यहाँ लागू करने का प्रयास है। इसके लिए श्रीधरन के कथन को भी तोड़ने-मरोड़ने से गोडसे नहीं चूकतीं। न ही श्रीधरन ने जवान, स्वस्थ पुरुषों के अलावा बाकी सामाजिक समूहों के सार्वजनिक स्थलों के इस्तेमाल पर आपत्ति की थी, और न ही ऐसा है भी असल में कि जवान, स्वस्थ पुरुष सारी सार्वजनिक बेंचें, मेट्रो की सीटें, सड़क आदि घेर कर खड़े और बैठे हुए हैं, और औरों को आने नहीं दे रहे।
श्रीधरन ने यह चिंता जताई थी कि ऐसे हर समूह से माँग उठने लगेगी मुफ्त यात्रा की, और अगर सरकार उनकी माँगें मना करेगी तो किस न्यायसंगत आधार पर, और अगर मना नहीं करती तो आखिर मेट्रो चलाने का पैसा आएगा कहाँ से? क्या जवाब है गोडसे के पास? क्या यह कि सारा पैसा जवान, स्वस्थ पुरुषों की जेब से निकाला जाना चाहिए? क्यों? जवान, स्वस्थ पुरुषों ने ठेका ले रखा है बाकियों का?
और फिर वहाँ पर यह सनकी रुक जाएँगे इसकी क्या गारंटी है? कल को हो सकता है जवान, स्वस्थ हिन्दू-सवर्ण पुरुषों पर उतर आएं, परसों जवान, स्वस्थ हिन्दू-सवर्ण हिंदी-भाषी पुरुषों तक जाने लगें, परसों न जाने क्या ले आएं। विक्टिम-कार्ड और पहचान की राजनीति (idenity politics) का पागलपन एक बार शुरू ही जाए तो रुकता नहीं है…
क्रय-क्षमता (purchasing power) क्या पुरुषों में नहीं होती?
अगला वाहियात तर्क दिया जाता है कि महिलाएँ मुफ़्त यात्रा होने पर अधिक यात्रा करेंगी, उनके लिए अधिक आर्थिक मौके उत्पन्न होंगे, और उनके ज्यादा पैसा कमाने से उनकी क्रय-क्षमता बढ़ेगी (जिसे वह मानकर चलतीं हैं कि केजरीवाल सरकार किसी-न-किसी तरह चूस कर अपना घाटा पूरा कर लेगी)। लेकिन एक बार फिर से अपने ऐसा मान कर चलने के पीछे वह किसी अध्ययन, किसी डाटा, किसी ठोस आधार का हवाला नहीं दे पातीं।
ऐसा उन्हें किस पैगंबर ने (क्योंकि अगर मैं ‘किस देवता या देवी ने’ पूछूँगा तो मान लिया जाएगा कि मैं अपना धर्म थोप रहा हूँ) सपने में आकर ऐसा बताया कि महिलाएँ वह अतिरिक्त पैसा बचाकर म्यूचुअल फंड में नहीं डाल देंगी, लखनऊ (या दिल्ली और केजरीवाल के टैक्स-दायरे के बाहर के किसी भी अन्य क्षेत्र) में रह रहे अपने रिश्तेदारों को नहीं भेज देंगी या उसे महज़ नकद में नहीं रखे रहेंगी? ऐसी हवाई उम्मीदों के आधार पर ₹1500 करोड़ से अधिक का सालाना आर्थिक बोझ झेलने से ज्यादा वाहियात अर्थशास्त्रीय तर्क की सानी मिलना मुश्किल है।
इसके अलावा अगर उनके उपरोक्त तर्क को मान भी लिया जाए तो क्या पुरुषों को मुफ्त यात्रा देने से भी यही सब नहीं सम्भव हो जाएगा? क्यों न सभी के लिए मेट्रो यात्रा मुफ्त कर दी जाए, ताकि जो ‘फ़ायदे’ होने का दावा सानिका गोडसे कर रहीं हैं, वह दुगने हों?
अमेरिका की स्टडी यहाँ की नीतियों के आधार में लगाने का क्या तुक है?
अमेरिका में किए गए एक अध्ययन के आधार पर सानिका गोडसे यह तय कर देतीं हैं कि चूँकि अमेरिका में औरतें पुरुषों से अधिक यात्रा करतीं हैं, तो भारत में भी सभी महिलाएँ ऐसा करतीं ही होंगी, और अतः महिलाओं को मुफ्त मेट्रो दे देनी चाहिए। तो गोडसे जी, भारत अमेरिका नहीं है। अमेरिका में हो जाने भर से कोई चीज़ भारत का भी सत्य नहीं बन जाती। आपमें हिम्मत है तो ऐसा ही अध्ययन भारत में कर के आइए, तब आगे बात की जाएगी।
कुल मिलाकर यह लेख वायर ही नहीं, सभी वामपंथी-चरमपंथियों में बढ़ती हुई खीझ की नुमाईश भर है। मोदी के लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बन जाने से, इनका प्रोपेगैंडा धराशायी हो जाने से इनके दिमागों के फ्यूज़ बुरी तरह जल गए हैं। इसीलिए कभी जनेऊ के खिलाफ अनर्गल प्रलाप आता है, कभी राम नवमी को निशाना बनाया जा रहा है, और अब जेंडर-जस्टिस के नाम पर पुरुष-विरोधी नीतियों के ज़रिए पुरुष-घृणा (misandry) भड़काने का प्रयास हो रहा है। कॉमरेड लोग अब बस हिंसा पर नहीं उतर आए हैं, गनीमत यही है…