शास्त्रीय संगीत के वाद्ययंत्र सितार का जिक्र जैसे ही होगा, वैसे ही पण्डित रविशंकर की याद आ जाती है। उनके खुद के सितार बजाने की कला सम्मानित है, लेकिन उनकी कला उन तक ही सीमित भी नहीं है। वो अपनी कला अपनी अगली पीढ़ी तक पहुँचाने में भी कामयाब रहे हैं। उनकी बेटियाँ, अनुष्का शंकर हों या नोरा जोन्स, दोनों ही संगीत के क्षेत्र में जानी-मानी हस्तियाँ हैं। ऐसा आम तौर पर लेखन में होता नहीं देखा गया।
संगीत, नृत्य आदि विधाओं में जहाँ माता-पिता अपने पुत्रों या पुत्रियों को अपने ही जैसा सिखा कर तैयार कर पाते हैं, वैसा किसी एक भी लेखक ने किया हो याद नहीं आता। हाँ, पत्रकारिता की नौकरी में जरूर लोग अपने बच्चों को एक नौकरी दिलवा देते हैं, मगर उसे लेखन की क्षमता तो नहीं कह सकते। ज्यादा से ज्यादा वो नौकरी ही रहेगी।
खैर, वापस संगीत और पण्डित रविशंकर पर चलें तो उन्होंने संगीत की शिक्षा उस्ताद अल्लाउदीन खां से ली थी। बाद में उस्ताद अल्लाउदीन खां की ही बेटी अन्नपूर्णा से उन्होंने शादी भी की थी। वो जब 1938 से 1944 के बीच संगीत सीखा करते थे, तो आज जैसा दौर नहीं था। छात्र-छात्राओं की पिटाई पर शिक्षक को जेल में डालने का कानून नहीं था। पण्डित रविशंकर के उस्ताद अल्लाउदीन खां इस मामले में कुछ ज्यादा सख्त भी थे।
सुर, लय, ताल कुछ भी जरा सा छूटे तो वो पण्डित रविशंकर को बाहर पेड़ में बांधकर डंडों से पिटाई करते! एक दिन इन सबसे दुखी पण्डित रविशंकर उस्ताद के पास से भाग निकले! थोड़ी देर बाद उस्ताद के बेटे ने उन्हें रेलवे स्टेशन पर ढूँढ निकाला।
वो आए और पण्डित रविशंकर के पास बैठे। उन्होंने पूछा, क्या हुआ, क्यों भाग आये हो? पण्डित रविशंकर ने बताया कि ये सख्ती कुछ ज्यादा है, मुझसे अब झेली नहीं जाती। उस्ताद के बेटे ने कहा तुम किस्मत वाले हो जो तुम्हें पिताजी इतने ध्यान से सिखाते हैं, मुझे वो कभी ऐसे नहीं सिखाते!
इस तरह से सिखाए जाने का नतीजा क्या हुआ इस बारे में कुछ भी कहने की कोई ख़ास जरूरत नहीं होती। जिसे इतने ध्यान से सिखाया जा रहा हो, उसे पद्म भूषण मिले या तीन बार ग्रैमी, आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हमें ये कहानी इसलिए याद आती है क्योंकि हम बिहार में रहते हैं जहाँ की आबादी 13 करोड़ के लगभग है। हमें कश्मीर दिखता है जहाँ की आबादी यहाँ का मुश्किल से दसवाँ हिस्सा होगी। मुझे ये दिखता है कि वहाँ कितना ध्यान दिया जा रहा है और यहाँ कितन कम ध्यान दिया जाता है।
मुझे वहाँ की बाढ़ में बचाव कार्य दिखता है और राहत-बचाव के बाद चलते पत्थर दिखते हैं। मुझे बिहार की बाढ़ दिखती है जहाँ डूबने पर खबर इतनी बड़ी भी नहीं होती कि एक दिन नेशनल मीडिया पर चलाया जा सके। जंगल में सबसे सीधे पेड़ सबसे पहले काटे जाते हैं, ऐसा कहावतें कहती हैं और शैतान-शरारती बच्चों पर ज्यादा ध्यान और बेचारे भले सीधे आदमी को लात खाते देखने का दस साल का अनुभव तो जरूर है।
बाकी मुझे भी लगता है बिहारियों को हंगामा करने वाला होना चाहिए था। तोड़-फोड़ करते, असम से मुंबई तक दिगबोई का तेल नहीं पहुँचने देते, मुंबई-दिल्ली जाने वाली ट्रेन रोकते, हंगामा – या बिलकुल ही कहर बरपाया होता तो शायद हमपर भी ध्यान दिया जाता। हमारा अफ़सोस भी उस्ताद अल्लाउदीन खान के बेटे वाला ही है।
हम पर किसी का ध्यान ही नहीं रहता!