वैसे तो पूरी मानवजाति ही व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर स्वयं के परिपेक्ष्य में विरोधाभासी है, पर इसमें भी भारतीय सबसे आगे हैं।
कुछ दिन पहले भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। हमने देखा कि उन्हें एक उच्चकोटि के देशभक्त राजनेता की तरह प्रस्तुत किया गया और उन्हें इस सम्मान के लिए उचित व्यक्ति सिद्ध करने में हम जैसे राष्ट्रवादियों ने ही सबसे अधिक तर्क दिए, बावजूद इसके कि वे राष्ट्रपति कार्यकाल के अतिरिक्त जीवनपर्यंत एक कॉन्ग्रेसी रहे।
हम नेताजी सुभाषचंद्र बोस को एक मिथकीय चरित्र के रूप में देखते हैं। वे थे भी। उनकी मृत्यु आज तक एक रहस्य ही है। सुभाष बाबू की कथित अस्थियाँ जापान में हैं। जब प्रणव मुखर्जी विदेश मंत्री थे, तब वे उनकी अस्थियाँ लेने जापान गए और वहाँ के विदेश मंत्री से मिलने के बाद जर्मनी गए। अस्थियों को लाने का मतलब यही होता कि सरकार यह मानकर चल रही थी कि उनकी मृत्यु विमान दुर्घटना में हो चुकी थी।
जर्मनी में सुभाष बाबू का भुला चुका परिवार रहता है। यह भी बड़े ताज्जुब की बात है कि इस देश की जनता स्वतंत्रता-पश्चात के एक शहीद प्रधानमंत्री की विदेशी मूल की पत्नी को सिर आँखों पर बिठाता है, उन्हें राष्ट्रीय पार्टी का अध्यक्ष बनाता है और वे भारतीय राजनीति में बहुत गहरा दखल रखती हैं। पर नेताजी जैसे कद के राष्ट्रनायक की विदेशी मूल की पत्नी श्रीमती एमिली शेंकल (मृत्यु 1996) का नाम तक नहीं जानता।
प्रणव मुखर्जी 1995 में सुभाष की बेटी श्रीमती अनीता फाफ और उनके पति श्री मार्टिन फाफ से मिले। अनीता ने अस्थियों की सुपुर्दगी पर मौखिक सहमति दी थी पर वे अपनी माँ के जीवित रहते कुछ नहीं कर सकती थी। प्रणव श्रीमती एमिली से मिले। उनका जवाब बस इतना था कि ‘किसकी अस्थियाँ? जापान में रखी अस्थियाँ नेताजी की नहीं है। उसे कहीं भी रखा जाए, उन्हें उससे कोई मतलब नहीं।’ अफ़वाह तो यह भी थी कि प्रणव ने उन्हें ब्लैंक चेक भी दिया था जिसके उन्होंने टुकड़े कर दिए थे।
आखिर प्रणव मुखर्जी यह साबित क्यों करना चाहते थे कि नेताजी विमान दुर्घटना में ही मरे?
नेताजी की बात चली तो भगतसिंह को भी याद कर लेते हैं। भगतसिंह ने युवाओं के नाम एक चिट्ठी लिखी थी जिसका मतलब यह था कि देशवासियों को सुभाष के बजाय नेहरू का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि सुभाष के पास देश को आगे ले जाने का कोई विजन नहीं है, और नेहरू एक विचारवान व्यक्ति हैं जो जानते हैं कि देश को किस दिशा में चलाना चाहिए।
भगत सिंह नेहरू में एक भविष्यदृष्टा देखते थे, सुभाष में नहीं। उधर सुभाष ने गाँधी और नेहरू के विरोधी होने के बावजूद भी अपनी सशस्त्र सेना के दो अंगों का नाम नेहरू और गाँधी के नाम पर रखा था।
सावरकर से बड़ा गाँधी का विरोधी कौन था? पर इन्हीं सावरकर ने इंग्लैंड के इंडिया हाउस में गाँधी की प्रशंसा में पत्र पढ़ा था।
हम आज भी, तमाम दस्तावेजों के प्रत्यक्ष सुबूतों के बाद भी एक बेतुका इल्जाम लगाते हैं कि गाँधी को देश का बँटवारा नहीं करना चाहिए था। क्या इसमें कोई सच्चाई है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अतिरिक्त यदि कोई इस बँटवारे का प्रखर विरोधी था तो वो गाँधी थे। मुस्लिम लीग की ज़िद के आगे कॉन्ग्रेस ने घुटने टेक दिए थे, न कि गाँधी ने। उनका तो यह तक कहना था कि इतना खून बह गया है, और खून बह जाने दो पर राष्ट्र के टुकड़े मत करो।
हम लौह पुरुष सरदार पटेल के आभारी हैं कि उन्होंने इस देश के सैकड़ों टुकड़ों को एक करने में अथक परिश्रम किया। पर हम विभाजन के दोषियों को याद करते समय यह याद नहीं रखते कि कॉन्ग्रेस के प्रथम पंक्ति के कद्दावर नेताओं में पटेल पहले थे जिन्होंने मुस्लिम लीग की ज़िद के आगे घुटने टेक दिए थे। गाँधी और गाँधी-भक्त पटेल में बस इतना ही अंतर है कि प्रयोगात्मक सोच रखने वाले पटेल ने पाकिस्तान के बाद बचे भारत को संगठित करने का संकल्प लिया और भावुक गाँधी यह सोचते रहे कि यह बँटवारा कुछ समय का है, ‘पाकिस्तान’ भारत का अभिन्न हिस्सा है जो वक़्ती तौर पर अलग हो गया है। और यह सोच केवल गाँधी की नहीं थी, बहुतेरे लोग ऐसा सोचते थे कि पाकिस्तान जल्द ही वापस भारत से जुड़ जाएगा, हालाँकि, उनकी सोच इस विचार पर आधारित थी कि दरिद्र पाकिस्तान अपनी बदहाली पर आठ आँसू रोता हुआ ख़ुद ही वापस आने की गुज़ारिश करेगा।
संयुक्त भारत की भावुक सोच केवल गाँधी की ही नहीं थी, गाँधी को गोली मारने वाले नाथूराम भी यही चाहते थे। उनकी अस्थियाँ आज भी संयुक्त भारत की नदियों में प्रवाहित किए जाने की प्रतीक्षा कर रही हैं।
गाँधी में तमाम ऐसी बातें थी जिन्हें पसन्द नहीं किया जा सकता। ख़ुद मैंने उन पर विस्तार से लिखा है। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उनमें तमाम ऐसी बातें भी थी जिन्होंने इस देश को, देशवासियों को एक दिशा दी। यह स्वीकार करने में कदाचित हमें परेशानी हो पर यह इतिहास-सिद्ध है कि हम बहुत ही लापरवाह (या कायर) नागरिक हैं। अभी का ही उदाहरण देखें, कि लापरवाही के अतिरिक्त क्या वजह है कि राममंदिर का मुद्दा आजादी के इतने वर्षों बाद भी एक मुद्दा बना हुआ है?
उस दौर में जब गुलामी हमारी नसों में बहती थी, रक्त में घुली-मिली हुई थी, कुछ वीरों के अतिरिक्त किसी को कोई छटपटाहट नहीं महसूस होती थी। वीर तब भी थे, बहुतेरे नेता थे पर वे नागरिकों को अपने साथ, आज़ादी के उद्देश्य के साथ बाँधे रखने में सर्वथा असफल थे। गाँधी से पहले कॉन्ग्रेस बस अभिजात्य वकीलों का गुट भर था जो साल में एक बार मीटिंग करता और पारित प्रस्तावों को ब्रिटिश सरकार के पास सविनय प्रेषित कर देता। वे गाँधी थे जिन्होंने ग़रीब जनता तक को आंदोलन में जोड़ा।
कमज़ोर भारतीयों से यह अपेक्षा करना निरी मूर्खता थी कि वे सभी रक्तरंजित क्रांति करते। एक नेता उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम उपयोग करता है। गाँधी के सामने संसाधन थे वे नागरिक जो घर से निकलने में डरते थे, गोरी चमड़ी के सामने जिनकी रूह काँपती थी। भगत, सुभाष जैसे नेता और उनका अनुसरण करने वाली जनता का प्रतिशत इस मुल्क की विशाल जनसंख्या के सामने नगण्य था, नगण्य है। गाँधी ने उस कमज़ोर जनता को अपनी शक्ति बनाया और उसका प्रभावी उपयोग किया।
बात विरोधाभास से चली थी। देखिए कि हम आज के एक संगठन को बहुत प्यार देते हैं, एक नेता में अपना भविष्य देखते हैं। और यही संगठन, यही नेता जिस महात्मा के आगे बारम्बार सिर नवाता है उसे गाली देते हैं! व्यक्ति का मूल्यांकन उसके समस्त कार्यों से होना चाहिए, न कि उसकी एक कमज़ोरी से जो कि आपमें, हम में या किसी भी व्यक्ति में हो सकती है।