मैं आज ही डॉ. अंबेदकर पर वैज्ञानिक-लेखक आनंद रंगनाथन का लगभग एक वर्ष पुराना वक्तव्य सुन रहा था, जिसमें एक विषय अंबेदकर द्वारा हिंदुत्व/हिन्दू-धर्म की आलोचना का भी था। और एक घंटे से भी कम समय बाद मैं यह खबर पढ़ रहा हूँ कि मुरादाबाद के समुदाय विशेष के लोग नाईयों की दुकानों का बहिष्कार कर रहे हैं, जो दलितों, खासकर वाल्मीकि समाज के लोगों के बाल काटते हैं।
इसके बारे में समझ नहीं आ रहा लिखना कहाँ से शुरू किया जाए? हिन्दुओं को यह याद दिला कर कि इस्लामी आक्रांताओं की तलवार के बाद दूसरा सबसे बड़ा कारण हिन्दुओं के कम होने का यही छुआछूत की परम्परा रही, जिसकी पीठ पर मिशनरी चढ़ कर आए और दलितों-आदिवासियों को एक झटके में हिन्दू-धर्म का दुश्मन बना दिया। या समुदाय विशेष को आड़े हाथों लेकर यह पूछते हुए कि उनके यहाँ तो ‘अल्लाह ने सारे इंसानों को एक जैसा बनाया है’ का चूरन बेचा जाता है, तो फिर उन्हें वाल्मीकियों के सर को छुए कंघी-उस्तरे से परहेज़ क्यों हो रहा है?
अंबेदकर को गलत साबित तो करें हिन्दू…
मैं अंबेदकर की इस राय से कतई सहमत नहीं हूँ कि यह अमानवीय छुआछूत हिंदुत्व/हिन्दू-धर्म का अभिन्न अंग है, और इससे निजात हिंदुत्व को नकार कर ही मिल सकती है। अपनी इस असहमति के पक्ष में में दस नहीं सौ उद्धरण प्रस्तुत कर सकता हूँ। लेकिन उन सौ उद्धरणों को सूचीबद्ध करने के बाद जब मैं मुरादाबाद के इस पीपलसाना गाँव की ओर नज़र डालता हूँ तो यह कवायद अपनी ही मायूसी से बचने का एक खोखला प्रयास लगती है। अंबेदकर को मैं जब चुनौती देने की कोशिश करता हूँ तो मुझे पीपलसाना के हिन्दू गलत साबित कर देते हैं।
जो लोग यह तर्क देना चाहते हैं कि समाज या व्यक्ति की गलती और उनके अन्याय को उनकी आस्था, उनके मज़हब से नहीं जोड़ा जा सकता, वे या तो अनभिज्ञ हैं या झूठे। किसी भी आस्था या पंत का अपने-आप में मूल्याँकन अपूर्ण होता है, जब तक उसमें यह न जोड़ा जाए कि व्यवहारिकता में, मानव समाज में, दैनिक जीवन में- बाल काटने में- उस मत के मतावलम्बी अपनी आस्था के चलते कैसा व्यवहार करते हैं। यहाँ छुआछूत की व्यवस्था हिन्दू समाज को उसी पायदान पर खड़ा कर देती है जिस पर मजहब विशेष वाले पर्दा, हलाला, बुरका और तीन तलाक के चलते खड़े होते हैं- इंसान से उसकी इंसानियत का, इंसान होने और इंसानों की गरिमा दिए जाने का हक छीनने वाला चाहे तीन तलाक हो, हलाला हो, या छुआछूत, वह बराबर निंद्य है, बराबर दोषी है।
कहॉं गए मौलवियों के दावे
स्वराज्य की रिपोर्ट यह भी बताती है कि बड़ी संख्या में ऐसा करने वाले समुदाय विशेष वाले भी हैं। एक अल्पसंख्यक तो ‘अछूत’ वाल्मीकियों के लिए यह भी कहता है कि अगर ‘गलती से’, ‘अनजाने में’ किसी वाल्मीकि के साथ बाल बनवा लें तो अलग बात है, लेकिन “जब चाय में मक्खी दिख जाती है, तो लोग निकाल के ही पीएंगे।” समुदाय विशेष के बारे में इतना ही कह सकता हूँ, हालाँकि इस्लाम का कोई पीएचडी नहीं हूँ, लेकिन हर मुल्ला-मौलवी को यह दावा करते ज़रूर सुना है कि उनके यहाँ अस्पृश्यता जैसा ‘हिन्दू रोग’ नहीं है। उन्हें गला फाड़ कर मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से यह दावा करते हुए भी सुना है कि करोड़ों ‘काफिर’ ‘इस्लाम की तलवार’ की नोंक से नहीं, बल्कि उसमें जाति-प्रथा न होने के चलते इस्लाम अपनाया। तो ये अल्लाह की एक नज़र और जाति-प्रथा का अभाव केवल उम्मत के लिए बचा कर रखा गया है, या फिर काफ़िरों को भी इस जाति-विहीन दारुल-इस्लाम का ‘ट्रेलर’ दिखाया जा सकता है?
छूआछूत कैंसर, मिटाना ही होगा
आप ‘वैज्ञानिकता’, ‘हाइजीन’ से लेकर ‘यही हथियार मिशनरी इस्तेमाल करते हैं’ और ‘ये हमारी परम्परा है’ आदि इस अमानवीय प्रथा को बचाए रखने के लिए जो भी तर्क इस्तेमाल करने की कोशिश कर लें, इसका बचाव नहीं किया जा सकता है। छुआछूत हिंदुत्व में निस्संदेह कैंसर है, जिसका जड़ से इलाज करना ज़रूरी है। और यह इलाज महज़ राजनीतिक नहीं हो सकता- पूरा इलाज नैतिक, आत्मा के स्तर पर होगा। केवल छुआछूत के पीड़ितों को आरक्षण दे देने या यूपीएससी में बैठने वालों को 5-10 साल आयु सीमा में छूट दे देने से पीपरसाना के उस महेश को सम्मानजनक रूप से बाल कटाने का वह हक नहीं मिलेगा जिसका उसे इंसान होने के नाते अधिकार है।
अपनी आत्मा के अंदर झाँक कर हममें से हर एक को यह अपने आप से पूछना होगा कि अगर हम उस जगह पर होते तो हमें कैसा लगता, और हम अपने लिए कैसा व्यवहार चाहते। इसका ईमानदारी से जवाब देना होगा, और फिर उस जवाब को अमलीजामा पहनाना होगा। यह हर एक इंसान को करना होगा, हर एक हिन्दू को करना होगा। अंबेदकर जैसे विचारक का हिंदुत्व/हिन्दू-धर्म से, हिन्दू समाज से विश्वास टूटना हिन्दुओं की क्षति थी। लेकिन इससे हमने नहीं सीखा। हर एक हिन्दू को, एक और अंबेदकर को हिन्दू समाज को नकारने से रोकने के लिए, छुआछूत को नकारना ही होगा।