अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, फ्रांस, और जर्मनी की पूरी जनसंख्या को मिला दिया जाए तो वह तकरीबन 68 करोड़ के आसपास बैठती है। 100 करोड़ यानी इन पाँच उन्नत देशों की समूची आबादी के डेढ़ गुने के बराबर!
ये पाँचों देश स्वास्थ्य सेवाओं एवं उसके ढाँचे, टेक्नोलॉजी, वैज्ञानिक शोध तथा शिक्षा के स्तर में भी भारत से कहीं आगे माने जाते हैं। कोरोना का टीकाकरण इन देशों में भारत से कहीं पहले शुरू हो गया था। हमारे देश में दो तीन महीने तो इसी झंझट ही में निकल गए थे कि राज्य सरकारें टीकाकरण चलाएँगी या केंद्र सरकार। जून के महीने में प्रधानमंत्री मोदी ने सभी वयस्क नागरिकों के लिए मुफ्त टीकाकरण की घोषणा की थी। इसके बावजूद इन पाँच कथित उन्नत देशों में कुल मिलाकर कोरोना टीके की 81 करोड़ खुराकें दी गईं हैं। यानी हमारा देश अभी तक इनसे सवा गुणा टीकाकरण कर चुका है।
आज भी अपने देश में टीकाकरण की तेज़ रफ़्तार जारी है। जबकि इन देशों में अब टीका लगवाने लोग ही नहीं आ रहे। टीका संकोच या वैक्सीन हैजिटेन्सी इन देशों में इतनी ज्यादा है कि लोगों को टीका लगवाने के लिए लालच देने पड़ रहे हैं। अमेरिका की बाइबल स्टेट बेल्ट में टीकों के खिलाफ बाकायदा दकियानूसी ईसाई एक अभियान चला रहे हैं। इन बाइबल राज्यों में टीकाकरण बहुत धीमा है। इससे अमेरिका की सरकार परेशान है। उधर रूस के कई हिस्सों में सरकार के प्रति इतना अविश्वास है कि लोग उसका बनाया टीका लगवाना ही नहीं चाहते।
याद कीजिए कि कोरोना शुरू होते ही पश्चिमी देशों की मीडिया में लगातार ऐसे लेख आए थे जिनमें कहा गया था कि भारत जैसे अनपढ़, अनुशासनहीन, अराजक, स्वास्थ्य सुविधाहीन और गंदगी से भरे देश में ये महामारी आएगी तो संभल नहीं पाएगी। कुछ अखबारों और कथित बुद्धिजीवियों, जिनमें कई अपने देश के भी हैं, ने भविष्यवाणी की थी कि हिन्दुस्तान में इस बीमारी से करोड़ों लोग मारे जाएँगे। वे ये तुलना करते नहीं थकते थे कि 1918 में जब स्पेनिश फ्लू आया था तो देश में करोड़ों लोग मारे गए थे। वे भूल गए थे कि ये इक्कीसवीं सदी का भारत है, यदि प्रधानमंत्री मोदी को उद्धृत किया जाए तो, जो बड़े लक्ष्य बनाना और उनको हासिल करना जानता है। उस लक्ष्य सिद्धि के लिए वह वांछित रणनीति बनाता है और उसके लिए अटूट मेहनत भी करता है।
ये हमारे समाज की अन्तर्निहित ताकत का ही परिणाम है कि टीका संकोच जैसी कोई बात लोगों में फैलने नहीं दी। किसी धार्मिक और सामाजिक नेता ने टीकों का विरोध नहीं किया। देश के नेतृत्व ने सोच समझकर एक रास्ता बनाया। केंद्र और राज्यों ने मिलकर काम किया। कभी दिए जलाकर, कभी थाली तो कभी ताली बजाकर लोगों में कोरोना के संकट के प्रति जाग्रति पैदा की। और आम भारतीय ने संदेह, आशंका और भ्रान्ति फ़ैलाने की तमाम कोशिशों के बावजूद सरकार पर अटूट भरोसा जमाए रखा।
पश्चिम की शब्दाबली के ‘गरीब, अनपढ़, गँवार और मैले कुचैले भारतीय समाज’ ने अपनी सहज बुद्धि, आध्यात्मिक सोच और अपने कर्म से कथित आधुनिक और संपन्न समाजों को कहीं पीछे छोड़ दिया है। दरअसल हमारा समाज आमतौर पर प्रगतिशील है। भारतीय विरासत उसे तार्किक और वैज्ञानिक तौर से सोचने को प्रोत्साहित करती है। हाँ, एक नैरेटिव है जो पिछले कई सौ सालों से उसे पिछड़ा प्रमाणित करने पर तुला है। 100 करोड़ का ये आँकड़ा भारत और भारतीयों के बारे में सदियों से फैलाए इस झूठ की बखियाँ उधेड़ता दिखाई देता है।
ये टीकाकरण उन निजी और सरकारी स्वास्थ्य कर्मियों, प्रशासनिक अधिकारियों, उस ढीले ढाले तंत्र और राजनीतिक व्यवस्था ने किया है, जिसे हम सुबह शाम पानी पी पीकर कोसते हैं। ये टीकाकरण हमारे उन वैज्ञानिकों और प्राइवेट कंपनियों की बदौलत हो पाया है, जिनके खिलाफ देश में कुछ लोगों ने पूरा एक अभियान चलाया था। सोचिए, यदि कोविशील्ड बनाने वाली सीरम रिसर्च इंस्टिट्यूट और कोवैक्सीन बनाने वाली भारत बायोटेक जैसी निजी कम्पनियाँ देश में नहीं होतीं तो कहाँ से इतने टीके भारत में बनते? हम आज दुनिया के सामने एक एक टीके के लिए मोहताज होते – गिड़गिड़ा रहे होते। उसके बाद भी इसकी कोई गारंटी नहीं थी कई हमें कोई टीके देता।
आज भी देश में निजी कंपनियों के खिलाफ अंटशंट बयानबाजी होती ही रहती है। किसी ने इन टीकों को बीजेपी का टीका बताया था। किसी ने इन्हें अधकचरा और असत्यापित कहा था। कुछ लोग तो विदेशी टीकों की वकालत करते नज़र आते थे। कुछ मुख्यमंत्रियों ने तो खरीद के लिए कंपनियों को चिठियाँ भी लिख दीं थी। किसी ने कहा था कि इस रफ़्तार से तो देश में सबको टीका लगाते लगाते सालों-साल लग जाएँगे। कुछ लोगों ने देश के लिए महत्वपूर्ण वैक्सीन मैत्री कार्यक्रम पर ही निम्न स्तरीय टिप्पणियाँ कीं थीं। इन सब राजनीतिक बयानबाजियों के बीच प्रशंसा का पात्र है वह नेतृत्व और तंत्र जो एकाग्रता, कुशलता और समर्पण के साथ राष्ट्रसेवा के अपने इस काम में जुटा रहा।
कल्पना कीजिए इस अप्रैल के महीने के उस भयानक मंज़र को जब चीन से आई इस बीमारी ने देश में कहर ढाया था। देश का कोई घर-आँगन नहीं बचा था, जिसने उसकी तपिश नहीं झेली थी। टीकाकरण न होने की स्थिति में वो मंजर और अधिक खतरनाक भी हो सकता था और बार-बार दोहराया भी जा सकता था। लेकिन एक बात ध्यान रखने की है कि 100 करोड़ का लक्ष्य एक अर्धविराम ही है। महामारी अभी गई नहीं है। खतरा अभी टला नहीं है। इस आँकड़ें से अगर लोगों में ये धारणा आ गई कि सब कुछ सामान्य हो चला है तो ये एक बड़ी भूल होगी। हमने इस उपलब्धि पर खुद को शाबाशी ज़रूर देनी है लेकिन इस हिदायत के साथ कि अभी सबको टीका लगना बाक़ी है।
अभी भी ध्यान रखना है – सावधानी हटी, तो दुर्घटना घटी।