किसान बिल के खिलाफ जो प्रदर्शन है, वह सिर्फ बड़े किसानों का प्रदर्शन है। उनका प्रदर्शन जायज भी है। नाजायज है, लोगों का एक्सट्रीम हो जाना और समर्थन व विरोध को एक सिरे से खारिज करना। किसानों का समर्थन और विरोध व्यक्तिगत इच्छा है। किसान अन्नदाता हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि मैं उस अन्नदाता कि उस बात पर ताली मारूँ जो ये कहता है कि इंदिरा ठोक दी, मोदी क्या चीज है। ख़ैर, छोड़िए!
सरकार जो कुल मिलाकर 80-85 फीसद धान-गेहूँ पंजाब हरियाणा से खरीदती है, MSP की दर से वो सरकार को भारी कर्ज की तरफ धकेल चुकी है। सरकार की ओर से FCI किसानों से MSP पर खरीदता है और फिर देश के अन्य राज्यों को MSP से नीचे के दामों पर बेचता है। बीच का गैप सरकार फूड सब्सिडी के रूप में FCI को देती है।
पिछले 6 साल में इस सरकार ने फूड सब्सिडी को दोगुना किया है। 2018-19 में करीबन ₹1.7 लाख करोड़ (GDP का 0.9%) का बिल सिर्फ फूड सब्सिडी के नाम पर फटा है। FCI का कर्ज मार्च 2019 में ₹2.65 लाख करोड़ तक पहुँच गया था। 5 साल पहले कर्ज बस ₹91,409 करोड़ था।
दरअसल, ये किसान विरोधी सरकार हर साल MSP बढ़ाती रही और FCI भी इन बड़े किसानों से धान-गेहूँ खरीदती रही और कम दाम पर राज्यों को सप्लाई करती रही। FCI के पास अभी भी अनाज का जो स्टॉक है वो तय सीमा से ज्यादा है, जबकि इन 7 महीनो में इस फासीवादी सरकार ने मुफ़्त का अनाज बहुत बाँटा है।
सितंबर 2020 तक FCI के पास 700.27 लाख टन चावल और गेहूँ था। खाद्यान्न के लिए स्टॉकिंग मानदंडों के अनुसार, FCI को जुलाई तक 411.2 लाख टन और अक्टूबर के अनुसार 307.70 लाख टन का भंडार होना चाहिए था।
चूँकि बड़े किसानों को MSP के कारण धान और गेंहू का अच्छा पैसा मिलता है और उनकी लागत भी कम आती है तो बहुत से किसान सिर्फ गेहूँ और धान उपजाने लगे। इससे दाल और अन्य अनाजों की खेती पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। प्रतिव्यक्ति दाल का उत्पादन 25 किलो से 13.6 किलो हो चुका है, करीबन आधा।
अब आप सोच रहे होंगे कि जब इतना धान-गेहूँ उपजाया जा रहा है तो सरकार इसको एक्सपोर्ट क्यों नही कर रही है? करती, लेकिन MSP के कारण अनाजों का दाम इतना बढ़ जाता है कि इंटरनेशनल मार्केट के प्रतिस्पर्धात्मक (competitive) प्राइज से बहुत ज़्यादा दिखने लगता है और यहाँ पर अफ़्रीकन देश सस्ते अनाज एक्सपोर्ट करके लहरिया लूट लेते हैं।
MSP के हट जाने से एक तो अनाजों की क़ीमत नीचे भी आएगी और इसको एक्सपोर्ट करने में ज़्यादा आसानी होगी (ये मेरा व्यक्तिगत आँकलन है), बड़े किसानों को इसका भी डर है कि अनाज के दाम गिरे तो उनकी आय भी कम होगी।
इस देश में जितना अनाज चाहिए उससे ज़्यादा उपजाया जाता है और FCI को ना चाहते हुए भी उन अनाजों को ख़रीदना पड़ता है। जिस मंडी से सरकार खरीदती है, राज्य सरकार को उस मंडी से अच्छी-खासी टैक्स की कमाई भी होती है। अकेले पंजाब सरकार को ₹9000 करोड़ की कमाई होती है इन मंडियो के कारण।
नए किसान बिल में सरकार ने ये प्रस्ताव दिया है कि किसान अब मंडी में ना जाकर डायरेक्ट किसी को भी बेच सकते हैं ताकि उनको एक्स्ट्रा टैक्स ना देना पड़े और बिचौलियों की कमीशनबाज़ी ख़त्म की जा सके। पंजाब सरकार को इससे 9000 करोड़ रुपए का सीधा नुक़सान हो रहा है इसलिए वो ब्रेक डांस कर रही है।
बड़े किसानों को ये डर है कि आने वाले समय में सरकार रिफॉर्म के नाम पर MSP भी ख़त्म कर देगी और फिर खाद और बिजली की सब्सिडी पर भी बात आ सकती है। बड़े किसानों की आय पर टैक्स लगाने की बात तो चल रही है, इसलिए संशोधन के बजाय बड़े किसान इस बिल को रद्द करने पर अड़े हुए हैं।
दूसरा, कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग में जो बातें लिखी हुई है वो भी एक तरह से कॉर्पोरेट को ध्यान में रख कर बनाई गई है। इसके अंतर्गत अगर किसान की फसल की गुणवत्ता में कमी होगी तो कंपनियाँ पेमेंट देने से मना कर सकती है।
बिल में ये साफ़ लिखा हुआ है कि प्राइवेट कंपनी कभी भी किसान के ज़मीन पर मालिकाना हक़ नही माँग सकती है, लेकिन उसमें भी एक ट्विस्ट है। ट्विस्ट ये है कि अगर किसान के ऊपर कम्पनी का कुछ बकाया है तो वो बकाया वसूली करने के लिए लैंड रेवेन्यू एक्ट का रुख़ कर सकती है।
जो लोग ये कह रहे हैं कि इस बिल से किसान हेलिकॉप्टर पर चढ़ने लगेंगे, वो ग़लत कह रहे हैं। बिल में ख़ामियाँ है लेकिन मैं ये भी नहीं मानता कि ये बिल किसान विरोधी है। रिफॉर्म के लिए ऐसे बिल लाने होंगे, सरकार कब तक इन सब चीज़ों में उलझी रहेगी?
इस सरकार के पास बहुमत है, इसलिए उसके लिए रिफार्म तुलनात्मक रूप से आसान है। आने वाले समय में बैंकिंग का पूर्ण निजीकरण और PSU में डिसइन्वेस्टमेंट सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। बिना निजीकरण के सरकार विकसित देश का सपना पूरा नहीं कर सकती। लोग विरोध करेंगे ही, बदलाव का वो बेसिक रीएक्शन है। जब कंप्यूटर आया तो ऐसा ही हुआ था। जब कंप्यूटर जाएगा तब भी ऐसा ही होगा। अब वर्चुअल दखलअंदाजी की बात चल रही है। मॉनिटर अप्रासंगिक होने वाला है, लेफ़्ट की विचारधारा की तरह।
आख़िर में इस क़ानून की सबसे ख़राब बात ये है कि अगर कोई लिटिगेशन होता है तो किसानों के पास ज़्यादा कुछ करने को नहीं है। इसका कारण है- कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020 (The Farmers’ Produce Trade and Commerce Act, 2020) का सेक्शन 13, जो सबको इम्यूनिटी देता दिखाई दे रहा है और कहता है कि धारा 13 के अनुसार एसडीएम के यहाँ मुकदमा करना होगा। एसडीएम के आदेश की अपील जिला अधिकारी के यहाँ होगी और जीतने पर ही किसान को भुगतान करने का आदेश दिया जाएगा।
“No suit, prosecution or other legal proceedings shall lie against the Central Government or the State Government, or any officer of the Central Government or the State Government or any other person in respect of anything which is in good faith done or intended to be done under this Act or of any rules or orders made thereunder.”
इसी ऐक्ट का सेक्शन 15 कहता है कि किसी भी तरह का विवाद होने पर किसान को अदालत जाने की अनुमति नहीं होगी।
“No civil court shall have jurisdiction to entertain any suit or proceedings in respect of any matter, the cognizance of which can be taken and disposed of by any authority empowered by or under this Act or the rules made thereunder.”
ये बहुत अजीब है। इस आंदोलन को लेकर तथ्यों पर बहस होनी चाहिए। एक्सट्रीम ओपिनियन से बच के रहा जाए तो बेहतर है।