Saturday, November 16, 2024
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इस्लामी हो या खालिस्तानी… निशाना हिन्दू ही है: एक ही ट्रेंड को बार-बार देख कर भी केंद्र और SC शांत क्यों?

लोग सवाल उठा रहे हैं कि खुलेआम धमकी भरी बातें करने वाले कैसे छुट्टा साँड बने हुए हैं? लोग जानना चाहते हैं कि आतंकवाद पर सख्त सरकार इन पिद्दियों से क्यों नहीं सख्ती से निपटती?

दिल्ली दंगों के दौरान महिला पत्रकारों के साथ बदसलूकी हुई थी। ‘किसान आंदोलन’ के दौरान हुई ट्रैक्टर रैली में महिला पुलिसकर्मियों के साथ दुर्व्यवहार हुआ। ‘दिल्ली दंगों’ में कई पुलिसकर्मी घायल हुए थे। अब भी ये आँकड़ा 153 का है। तब भीड़ मुस्लिम बहुल इलाकों से निकली थी। अभी पंजाब से आकर बैठी हुई है। तब भी कॉन्ग्रेस उनके साथ थी, अब भी इनके साथ है। तब भी निशाना एक कानून था, अबकी निशाना 3 कानून हैं।

दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगे और खालिस्तानी आंदोलन: समानताएँ

तब भी कपिल मिश्रा को बलि का बकरा बनाने की कोशिश हुई थी। अब अपने में से ही एक का ‘त्याग’ कर के उसे भाजपा का आदमी बताया जा रहा है। तब हिन्दुओं के घर और दुकान जले थे। अब लाल किले पर खालिस्तानी झंडे फहराए गए। तब मीडिया ताहिर हुसैन के डॉक्टर्ड वीडियो के जरिए उसे निर्दोष साबित कर रहा था, आज मीडिया ये बताने में लगा है कि वो फलाँ झंडा था, उसका चिलाँ महत्व है।

तब इस्लामी चरमपंथी थे, अब खालिस्तानी चरमपंथी हैं। तब कोई शाहरुख़ खान पुलिस के सामने बंदूक लेकर खड़ा था, अब ‘किसान’ प्रदर्शनकारियों ने पुलिसकर्मियों को तलवारों के दम पर खदेड़ा। तब भी फेक न्यूज़ फैला कर पुलिस को बदनाम किया गया। अब भी राजदीप सरदेसाई जैसों ने स्टंट करते हुए मरे किसान को पुलिस की गोली का शिकार बता दिया। तब भी योगेंद्र यादव थे, अब भी योगेंद्र यादव हैं।

चाहे वो भीमा-कोरेगाँव हिंसा हो, दिल्ली दंगे हो या फिर ‘किसानों’ द्वारा की गई हिंसा हो – वामपंथी, इस्लामी चरमपंथी और खालिस्तानी कट्टरवादी गैंग एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं, जो योगेंद्र यादव जैसे कई डोरों से बँधे हुए हैं। JNU में विकलांगों को आगे किया जाता है, जामिया में छात्रों को, भीमा-कोरेगाँव में दलितों को, दिल्ली दंगों में महिलाओं को और ‘किसान आंदोलन’ में बुजुर्ग सिखों को। पूरे आंदोलन को सही साबित करने के लिए ये इनका अनिवार्य पैटर्न है।

दिल्ली दंगों में दिखाया गया कि कैसे मुस्लिमों ने हिन्दुओं को बचाया। बेंगलुरु में मुस्लिम भीड़ उग्र हो जाती है तो उसे ह्यूमन चेन बनाते हुए दिखाया जाता है। इसी तरह अब खालिस्तानी आंदोलन में प्रदर्शनकारियों को एक एम्बुलेंस को रास्ते देते हुए दिखाया जा रहा है। तब हिन्दू विरोधी नारेबाजी और पोस्टरों का इस्तेमाल हुआ था, अब देश के राष्ट्रीय ध्वज का अपमान हुआ है। तब पूरे देश में कई शाहीन बाग़ बना दिए गए थे, अब पूरे देश में आंदोलन की तैयारी है।

सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों को रोका, किसान संगठनों ने शुरू कर दिया नंगा नाच

तीनों कृषि कानूनों को चुनौती देते हुए कई याचिकाएँ दायर की गई थीं। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विरोध प्रदर्शन करने से किसी को रोका नहीं जा सकता। किसान नेताओं के वकीलों ने CJI के सामने ही झूठे वादे किए। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इन कानूनों पर रोक लगा दी, कमिटी गठित कर दी – लेकिन किसान नेताओं ने न्यायपालिका का सम्मान नहीं किया। कमिटी के एक सदस्य को इस्तीफा देना पड़ा।

सुप्रीम कोर्ट ने तीनों कानूनों के लागू होने पर रोक लगा दी। फिर भी किसान कहते रहे कि उन्हें इन सब पर यकीन नहीं। असल में इनके दो धड़े होते हैं, जिसका खुलासा CAA विरोधी आंदोलन के समय ही हो गया था। एक धड़ा सड़क पर जम कर अराजकता फैलाता है और एक बड़े अधिवक्ताओं का समूह सुप्रीम कोर्ट में उनके बचाव के लिए खड़ा रहता है। सुप्रीम कोर्ट में वो जो कहते हैं, सड़क पर उसका उलटा करते हैं।

याद कीजिए दिसंबर 2020 के मध्य में जब दिल्ली में जामिया वाले दंगे कर रहे थे। जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों ने दंगे कर के पुलिस को बदनाम किया। मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो CJI बोबडे ने क्या कहा था? उन्होंने कहा था कि पहले दंगे बंद करो, पत्थरबाजी बंद करो, तब सुनवाई होगी। उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि जब तक हिंसा और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाना बंद नहीं करेंगे, वो मामले को नहीं सुनेंगे।

उनका कहना था कि वो छात्र हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि वो कानून को अपने हाथ में ले लेंगे। अंतर क्या है? तब वो ‘छात्र’ थे, अब ‘किसान’ हैं। बार-बार सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका को अँधेरे में रख कर इस तरह की करतूतें की जाती हैं। दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगों में कपिल मिश्रा और अनुराग ठाकुर जैसे जनप्रतिनिधियों को ही कोर्ट में घसीट लिया गया था। आखिर क्या कारण है कि बार-बार यही ट्रेंड अपनाया जाता है और विधायिका व न्यायपालिका को पता नहीं चलता?

जब सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों को रोक दिया तो उसे किसानों को भी गणतंत्र दिवस के दिन ट्रैक्टर रैली न निकालने को कहना चाहिए था, ऐसा सोशल मीडिया पर भी लोगों का मानना था। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए दिल्ली पुलिस को निर्णय लेने को कहा और पूछा कि क्या केंद्र सरकार को हम याद दिलाएँगे कि उनके पास शक्तियाँ हैं? शक्ति तो कानून बनाने की भी थी, लेकिन क्या हुआ? रोक लगी उस पर।

उपद्रवियों से खुद को अलग कर लेना, या भाजपा को जिम्मेदार ठहरा देना

JNU में जब वामपंथी छात्रों ने हॉस्टलों में घुस-घुस कर ABVP के छात्रों की पिटाई की थी, तब मीडिया में उन्हें ‘भाजपाई’ साबित करने के लिए एक अलग सी ही होड़ मच गई थी। मीडिया चैनलों ने नकाबपोशों से लेकर ऑडियो रिकॉर्डिंग्स तक निकाल कर दावा किया कि ये तो ABVP के ही छात्र थे, जो मास्क पहन कर लेफ्ट के छात्रों को पीट रहे थे। जबकि वास्तविकता साफ़ दिख रही थी कि अस्पतालों में भर्ती अधिकतर पीड़ित ABVP के हैं।

अब राकेश टिकैत कह रहे हैं कि दीप सिद्धू, जिसने लाल किला पर सिख झंडा फहराया और जिसके पीछे-पीछे सैकड़ों प्रदर्शनकारी उपद्रव करते हुए घूम रहे थे – वो भाजपा का आदमी है। इसके लिए तस्वीर शेयर की जा रही है कि वो भाजपा के फलाँ नेता के साथ दिखा था। तस्वीरें तो मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की भी ढेर सारी हैं साथ में। तो क्या ये दोनों किसी मेले में भटके हुए दो भाई हो गए?

तस्वीरें तो राकेश टिकैत की राजनाथ सिंह के साथ भी है। लेकिन, इसका मतलब ये थोड़े हुआ कि उनका रिमोट कंट्रोल देश के रक्षा मंत्री के हाथ में है! कुछ किसान नेता उपद्रवियों से पल्ला झाड़ रहे हैं, कुछ पुलिस पर आरोप लगा रहे, कुछ इसे देशव्यापी बनाना चाहते हैं, कुछ मीडिया फुटेज से खुश हैं तो कुछ अराजकता में अपनी राजनीतिक जमीन सींच रहे। हाल ही में गुरनाम चढूनी नामक किसान नेता पर कॉन्ग्रेस से 10 करोड़ रुपए लेने का आरोप लगा। साथी किसान नेताओं ने ही लगाया था।

कपिल मिश्रा और अनुराग ठाकुर को दिल्ली दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराने वाले आज कह रहे हैं कि अरे केंद्र सरकार कानून वापस ले ही लेती तो क्या हो जाता? तब तो राम मंदिर, अनुच्छेद 370, तीन तलाक, CAA और कृषि कानूनों – इन सभी को वापस लेना पड़ेगा क्योंकि इन सबका विरोध करने वाले एक ही समूह के लोग थे। अराजकता का भय दिखा कर विकास नहीं होने दिया जाएगा। प्रधानमंत्री अपने आवास से निकलेंगे तो इसका भी विरोध होगा। तो क्या वो घर में बैठे रहेंगे?

दीप सिद्धू ने किस तरह से बरखा दत्त के शो में खालिस्तानी आतंकी भिंडरवाले का बचाव किया और उसे अपना नायक बताया, ये वीडियो सामने आ चुका है। ये सारे पत्रकार मिल कर चाहे इन हिंसक नेताओं पर कितनी भी सफेदी डालें, उनकी करतूतें दिख ही जा रही हैं। लाल किला में जिस तरह से पुलिसकर्मियों को दीवार फाँद-फाँद कर अपनी जान बचानी पड़ी, ये सबने देखा है। अब डैमेज कंट्रोल, पल्ला झाड़ना और भाजपा पर ब्लेम गेम नहीं चलेगा

कोर वोटरों की भावनाओं का सम्मान करे केंद्र सरकार

जनता ने नरेंद्र मोदी को सिर्फ विकास के लिए नहीं चुना है। परमाणु परीक्षण हो, राजमार्गों का जाल बिछाना हो, कारगिल विजय हो या फिर सर्व शिक्षा अभियान हो – विकास वाजपेयी ने भी खूब किया था। भाजपा को देश की जनता ने, हिंदुओं ने, इसलिए भी लाया है ताकि हमारे इतिहास, हमारी संस्कृति और हमारी सनातन विरासत पुनर्जीवित हो। वामपंथी इतिहासकारों का वर्चस्व ख़त्म हो। फर्जी बुद्धिजीवी तेल लेने जाएँ।

यही जनता जब इस्लामी भीड़ को सड़कों पर सरेआम हिन्दुओं के घरों और दुकानों को जलाते हुए देखती है तो उसका विश्वास हिलता है। यही हिन्दू जब उन्हीं वामपंथी फर्जी बुद्धिजीवियों को नैरेटिव सेट करते हुए देखते हैं तो वो निराश होते हैं। यही मध्यम वर्ग जब किसी खास वर्ग को अराजकता के माध्यम से पूर्ण बहुमत वाली पार्टी को अपने सामने झुकाते हुए देखता है तो उसे अपने वोट की कीमत नगण्य लगती है।

आज लोग पूछ रहे हैं कि जब आम जनता को महीनों पहले से अंदाज़ा था कि ट्रेंड के हिसाब से राजधानी में अराजकता फैलाई जा सकती है, फिर नेताओं और अधिकारियों को इसकी आशंका न रही हो – ऐसा कैसे हो सकता है। आज लोग सवाल उठा रहे हैं कि खुलेआम अराजकतावादी और धमकी भरी बातें करने वाले कैसे खुले साँड़ बने हुए हैं? लोग जानना चाहते हैं कि आतंकवाद पर सख्त सरकार इन पिद्दियों से क्यों नहीं सख्ती से निपटती?

जनता देख रही है कि किसी गरीब ने मास्क नहीं लगाया तो उसे जुर्माना देना पड़ रहा है (जो उसकी जान बचाने के लिए जायज हो सकता है), लेकिन हजारों लोग बिना मास्क के महीनों बैठ जाते हैं और सारे कोरोना दिशा-निर्देशों का पालन नहीं करते, तो उनका कुछ नहीं उखड़ता। जनता देख रही है कि हेलमेट न होने पर हजारों फाइन लगता है लेकिन हजारों ट्रैक्टर विरोध के नाम पर निकलते हैं तो किसके पास कौन सा लाइसेंस है, कोई चेक तक नहीं करता।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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