1991 का चुनाव, पहला ऐसा चुनाव था, जहाँ नेहरू-गाँधी परिवार की सत्ता पर दावेदारी नहीं थी। राजीव गाँधी कॉन्ग्रेस को लीड कर रहे थे, स्वाभाविक तौर पर पीएम पद के दावेदार थे परन्तु बीच चुनाव में उनकी हत्या हो जाने से उपजी सहानुभूति लहर से सत्ता तो कॉन्ग्रेस के पास आ गई, लेकिन गाँधी परिवार सत्ता से बाहर हो गया। बाद में चाहे जो भी हश्र हुआ हो लेकिन नरसिंह राव ने पाँच साल का कार्यकाल गाँधी परिवार और उनके पिट्ठुओं को छकाते हुए पूरा किया और निश्चित रूप से छाप छोड़ी।
उसके बाद जितने भी चुनाव हुए, उन सबकी एक खासियत यह रही कि भाजपा की तरफ से जहाँ अटल बिहारी वाजपेयी पीएम पद के दावेदार होते थे, वहीं विपक्ष की ओर से यह सपना देखने का हक़ सबको मिल गया था। और ऐसा करना कतई अस्वाभाविक और बेतुका नहीं था। क्योंकि यह वही दौर था, जब तीसरे मोर्चे की राजनीति अपने पूरे शबाब पर थी।
लालू, मुलायम, हरकिशन सिंह सुरजीत, अमर सिंह, ज्योति बसु, चंद्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे नेता नेताओं को ताश के पत्तों की तरह फेंटकर उसमें से पीएम निकाल लेते थे। एच डी देवेगोड़ा, इंद्र कुमार गुजराल जैसे भूले-भटके पीएम, इसी ताश पद्धति से पीएम बन गए थे। बताते हैं कि जब तीसरे मोर्चे के नेताओं ने इंद्र कुमार गुजराल को पीएम बनाने का निर्णय लिया तब वे दिल्ली के आंध्र प्रदेश भवन के एक कमरे में सो रहे थे। उन्हें नींद से जगाया गया और कहा कि आप देश के अगले प्रधानमंत्री हैं। खुशी में उछलते हुए जब यही बात उन्होंने अपने घर पर बताई तो उनकी पत्नी ने कहा कि यह क्या बकवास है, तब उन्होंने डपटते हुए कहा कि तुम भारत के होने वाले पीएम से इस प्रकार बात नहीं कर सकतीं।
इसके अलावा जो बन नहीं सके, वह इन बन चुके प्रधानमंत्रियों से भी बड़े, इस पद के लिए दावेदार थे। जिनमें ज्योति बसु, शामिल हैं, जो पीएम बनने के लिए तैयार थे, लेकिन उनकी पार्टी ने फच्चर लगा दिया, जिसके बारे में उन्होंने बाद में अफ़सोस प्रकट किया कि यह उनकी ऐतिहासिक भूल थी। इसके अलावा मुलायम सिंह यादव, जिनकी दावेदारी पर दूसरे यादव नेता लालू प्रसाद ने वीटो लगा दिया, विश्वनाथ प्रताप सिंह को भी उस कालखंड में फिर से एक बार पीएम बनाने की तैयारी कर ली गई थी, लेकिन वे अपने पहले कार्यकाल में हुए अनुभवों से इतने खौफज़दा थे, कि जब तीसरे मोर्चे के नेता उनके घर पर यह प्रस्ताव लेकर गए तो वे पीछे के दरवाजे से निकल चुके थे और कहीं पहुँचने की बजाय, घंटों अपनी गाड़ी में दिल्ली की सड़कों पर खाली घूमते रहे।
यही हाल उस दौर में भी था, जब अटल जी 13 महीने और फिर 5 साल के लिए पीएम बने… भाजपा की ओर से इस पद के लिए कोई कन्फ्यूजन नहीं रहता था, लेकिन विपक्षी दलों में दस सासंदों वाली पार्टी का मुखिया भी इस पद को अपने सपने में देखने के लिए अधिकृत था।
2004 में जब डॉ मनमोहन सिंह को सोनिया गाँधी ने पीएम बनाया तब उसकी तह में भी वही तीसरे मोर्चे की राजनीति थी, कि नेताओं को ताश की तरह फेंट दो, और जो नेता काबू में आ जाए उसे पीएम बना दो, बेशक वह जोकर ही क्यों न हो।
2009 में हालाँकि सोनिया गाँधी ने यह गलती कर दी कि या तो उन्हें अपनी ही पार्टी के किसी फुल टाइम राजनीतिज्ञ को पीएम बनाना था, या फिर मनमोहन सिंह को बनाया भी था, तो दो साल बाद उन्हें घर बिठाकर राहुल गाँधी को पीएम बना देतीं। तब उनकी पार्टी की वह दुर्गति न होती जो आज हुई है, और न ही राहुल गाँधी को आज इस पद के लिए संघर्ष करना पड़ता।
बाहरहाल, पीएम पद के अरमान सजाने वाले नेताओं की बात करें तो 2014 में भी फेहरिस्त खूब लम्बी थी। लालू, मुलायम, शरद पवार, मायावती, जय ललिता, चन्द्र बाबू नायडू सरीखे नेता इस पद के लिए स्वयंभू दावेदार थे, दावेदार तो राहुल गाँधी भी थे लेकिन नरेन्द्र मोदी ने अपनी छप्पर फाड़ जीत से इन सभी के अरमानों पर पानी फेर दिया।
पर यह सब लिखने और बताने के पीछे मेरा उद्देश्य उन नेताओं का बखान करना नहीं है, जिनके भाग्य से पीएम का पद छिंटक गया या जिनके भाग्य में दरिद्रता लिखी हुई थी, मैं यह सब इस लिए लिखने को विवश हूँ कि बीते लगभग तीस साल में यह पहला ऐसा चुनाव है, जब पीएम के अलावा कोई और पीएम का उम्मीदवार नहीं है।
लालू जी जेल में अपनी राजनीति ही नहीं बल्कि जीवन का भी भयावह समय गुजार रहे हैं। उनके पुत्र तेजस्वी कितनी ही चतुराई दिखा लें, लेकिन वे अपने पिता की राजनीति को आगे नहीं बढ़ा सकते, और उसका दौर भी अब बीत चुका है। मुलायम सिंह यादव तो टीवी पर सीधे प्रसारण में, करोड़ों लोगों के सामने मोदी जी को फिर से पीएम बनने का आशीर्वाद दे चुके हैं, जयललिता और करुणानिधि जैसे क्षत्रप अब इस दुनिया में नहीं हैं, ममता बनर्जी अधिक से अधिक 20 सीटें ला सकेंगी और इतनी सीटों पर उन्हें कौन पीएम बनाएगा और सहयोग कौन देगा? नवीन पटनायक और चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता अपनी पूरी पारी खेल चुके हैं, और यह उनका आख़िरी चुनाव है।
अब अगर इस सीन में सबसे महत्वपूर्ण नेताओं की बात करें तो मायावती का नाम आता है, जिन्हें बीते कई वर्षों से पीएम पद का सशक्त दावेदार बताया जाता है, हमें कहना चाहिए कि वे इस बार फिर सशक्त दावेदार हो सकती थीं बशर्ते वे उत्तर प्रदेश की सभी सीटों पर लड़तीं, या पीएम पद पर कॉन्ग्रेस से समर्थन का आश्वासन लेने के बाद वे, देश भर में कॉन्ग्रेस से साथ गठबंधन करके लड़तीं, लेकिन वे ख़ुद अपने राजनीतिक जीवन के सबसे मुश्किल समय से जूझ रही हैं, जहाँ वे अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में 80 में से मात्र 36 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं, कॉन्ग्रेस से उन्होंने खुली जंग का ऐलान कर दिया है और कॉन्ग्रेस ने भी इस जंग में चार कदम आगे बढ़कर, भविष्य में मायावती की राजनीति के सबसे बड़े संकट बनने वाले भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर के ऊपर अपनी सरपरस्ती का ‘हाथ’ रख दिया है।
वहीं इस पद के लिए 1991 से चूक रहे दिग्गज मराठा नेता, अपने ही राज्य नहीं बल्कि अपने ही परिवार में उलझ गए हैं, जहाँ उन्हें अपनी सीट अपने भतीजे अजीत पवार के बेटे पार्थ के लिए छोड़नी पड़ी है, वरना उनका समय तो बाद में खराब होता लेकिन ‘घड़ी’ पहले ही खंड-खंड हो जाती।
अंत में ‘बबुआ’ जितना जिक्र अखिलेश यादव का भी, जो कितनी भी डींगे हाँक लें, लेकिन उनके साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि जाति की राजनीति करने वाले अपने पिता जी की पार्टी के मुखिया सिर्फ ‘विरासत’ की वजह से हैं। और जाति की राजनीति में यह अयोग्यता ही मानी जाती है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण चौधरी अजीत सिंह है, जिनके पिताजी चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री भी रहे थे, लेकिन आज अजीत सिंह और उनके पुत्र एक-एक… दो-दो सीटों के लिए न केवल अपनी राजनीतिक निष्ठा बल्कि अपने समाज की निष्ठा को भी जहाँ-तहाँ नीलाम करते फिर रहे हैं। इसलिए बबुआ को अभी से ‘पैदल’ चलने का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए क्योंकि चुनाव के बाद हाथी तो उनको उतार कर फेंक ही देगा, साइकिल के पहिए भी पंचर हो जाएँगे।
ऐसे में सिर्फ एक व्यक्ति बचता है जो अभी प्रधानमंत्री है, और आगे भी हर हाल में प्रधानमंत्री बनना चाहता है। जिसके पास न अब सत्ता और षड्यंत्रों के अनुभवों की कमी है, न संसाधनों की, न समर्थकों की, न ऊर्जा की, न मुद्दों की और न ही दिलेरी की। तब इन हालात में कोई मुझे यह बताए कि आखिर क्यों यह व्यक्ति फिर से पीएम नहीं बनेगा और 300 सीटों के साथ नहीं बनेगा ?