देश में नई सरकार के लिए आम चुनाव हो रहे हैं। 4 जून को परिणाम आ जाएँगे। वहीं, चुनाव आयोग एवं तमाम स्वयंसेवी संगठन मतदान के प्रतिशत को बढ़ाने के लिए लोगों में जागरूकता बढ़ा रहे हैं। उनके काफी प्रयासों के बावजूद चार चरणों का मतदान होने के बाद मतदान का प्रतिशत काफी कम है। लोग इसे राजनीतिक दलों के नफा और नुकसान के रूप में देख रहे हैं, परंतु इससे सबसे अधिक नुकसान आम जनता का है ऐसा कहा जा सकता है, क्योंकि आम जनता के लिए ही वह प्रतिनिधि चुना जाता है जिसके चुनाव में वह शामिल नहीं होती है। चाहे नोटा दबाकर, चाहे मतदान का बहिष्कार कर।
आगे की बात करने से पहले महाभारत की एक घटना का उल्लेख करना अति आवश्यक है, ताकि तथ्यों को आसानी से समझा जा सके। युद्ध के ठीक पहले युदवंशी क्षत्रियों की एक सभा हुई। उसमें यह तय किया जाना था कि कौरवों या पांडवों में से किसका साथ दिया जाए। लोग अपने-अपने हिसाब से तर्क दे रहे थे। कोई कौरवों को बुरा बता रहा था तो कोई यह कह रहा था कि पांडवों की तरफ से भी तमाम गलत कार्य किए गए हैं। पांडवों ने अपनी पत्नी को दांव पर लगाया जो पूरी तरह से अधर्म था।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा कि निश्चित रूप से गलतियाँ दोनों तरफ से हुई हैं, लेकिन हमें उसका चुनाव करना है जो कम गलत है। निश्चित रूप से पांडव कम गलत थे और श्रीकृष्ण ने उनका चुनाव किया। इसे ही अंग्रेजी में ‘अवेलेबल बेस्ट’ कहा जाता है। बस इसी सिद्धांत का पालन लोकतंत्र में मतदाताओं को प्रत्याशियों के चयन में भी करना चाहिए, जैसा भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत के ठीक पहले किया था।
यहाँ इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करना आवश्यक है कि मतदान में भाग ना लेना या भाग लेने के बावजूद नोटा का बटन दबाना, दोनों स्पष्ट रूप से एक ही चीज हैं। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि दोनों ही प्रक्रिया में मतदाता उम्मीदवार होने के बावजूद उसकी चयन प्रक्रिया में शामिल नहीं होता है, जो कि एक स्वस्थ लोकतांत्रिक देश के लिए पूरी तरह से अनुचित कहा जा सकता है।
इसके पीछे कभी-कभी तर्क दिया जाता है कि समस्त उम्मीदवारों में से कोई भी उचित प्रतीत नहीं होता है। इसलिए मतदान में शामिल ना होना या नोटा का बटन दबाना ही उचित है, परंतु हमें यह भी विचार करना होगा कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो पूरी तरह से उचित प्रतीत हो। निश्चित रूप से हर व्यक्ति में कुछ ना कुछ कमियाँ होती हैं। हर राजनीतिक दल में कुछ ना कुछ कमियाँ होती हैं या फिर बुराइयाँ होती हैं।
इस वाक्य को दृष्टिगत रखते हुए मतदान केंद्र पर जाकर उस व्यक्ति का चुनाव करना चाहिए, जो व्यक्ति समस्त उम्मीदवारों में से कम बुरा हो। दूसरे रूप में यह भी कहा जा सकता है कि उपलब्ध उम्मीदवारों में से जो सबसे अच्छा हो उसका चुनाव किया जाए। हालाँकि, जब हम मतदान में भाग नहीं लेते हैं या नोटा का प्रयोग करते हैं तो कभी-कभी ऐसे व्यक्ति का चुनाव करने से हम वंचित रह जाते हैं, जो इनमें सबसे अच्छा था और जो वास्तव में बुरा होता है वह चुनाव जीत जाता है और हमें उसे 5 वर्षों तक झेलना पड़ता है।
जब हम नोटा का प्रयोग करते हैं तो सर्वोत्तम की चाहत में उत्तम को भी किनारे कर देते हैं और उसका फायदा कई बार उस उम्मीदवार को मिल जाता है जो सबसे अधिक बुरा है, जबकि हमारे पास जो सर्वोत्तम उपलब्ध हो हमें उसको चुनना चाहिए था। निश्चित रूप से यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि किसी भी प्रजातांत्रिक देश में 100 फ़ीसदी ईमानदार और सत्यनिष्ठा से युक्त प्रत्याशी मिलेंगे, यह बहुत मुश्किल है। हालाँकि, नोटा का प्रयोग करने से किसी ऐसे उम्मीदवार की हार हो सकती है, जो उनमें सबसे बेहतर हो।
इस प्रकार से नोटा को दिए गए वोट अगर उस हारे हुए उम्मीदवार को चले जाते तो वह उम्मीदवार जीत सकता था। अगर सिर्फ नोटा को चले गए मतों की वजह से किसी बुरे उम्मीदवार की जीत हो जाती है तो फिर नोटा के दबाने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। इसी को दूसरे रूप में यदि कहा जाए तो नोटा का चुनाव सबसे खराब प्रत्याशी को चुनने के बराबर है। यह लोकतांत्रिक देश में मतदान के दौरान एक मतदाता के द्वारा उठाया गया आत्मघाती कदम कहा जा सकता है।
इस कारण से जहाँ तक मेरा मानना है, मतदान में भाग लेना चाहिए और नोटा का प्रयोग ना करके उस प्रत्याशी को मतदान अवश्य करना चाहिए जो समस्त प्रत्याशियों में से सबसे अच्छा हो। नोटा का प्रयोग करने या मतदान न करने वाले मतदाताओं को इस बात का भान अवश्य होना चाहिए कि उनके इस क्रियाकलाप का मतदान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला नहीं है, क्योंकि मतदान का कम से कम प्रतिशत होने के बावजूद भी प्रत्याशी का चयन किया जाएगा और विजयी प्रत्याशी सांसद या विधायक बनकर सदन की शोभा बढ़ाएगा।
इसलिए बेहतर यही है कि प्रत्याशी के चयन में अपनी भागीदारी को बढ़ाया जाए, जिसके लिए लगातार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, स्वयंसेवी संस्थाएँ और चुनाव आयोग काम कर रहे हैं। यह किसी भी राजनीतिक दल के लिए नुकसान या फायदे का विषय नहीं है। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख करना अति आवश्यक है कि भारत के लोकतंत्र में सर्वप्रथम नोटा का प्रयोग सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद साल 2013 के विधानसभा चुनाव में किया गया था।
शीर्ष अदालत के अनुसार, अगर कोई मतदाता किसी भी उम्मीदवार को अपना मत देना नहीं चाहता है तो वह गुप्त रूप से नोटा का बटन दबा सकता है। इस आदेश के बाद चुनाव आयोग ने मतदाताओं को नोटा का विकल्प दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ही अगस्त 2018 में अपने दिए गए फैसले में राज्यसभा चुनाव में नोटा का प्रयोग करने की अनुमति देने से मना कर दिया। ऐसे में यह सवाल उठना भी लाजमी है कि अगर एक चुनाव में नोटा प्रासंगिक है तो दूसरे चुनाव में नोटा अप्रासंगिक कैसे हो सकता है।
यहाँ पर यह भी प्रश्न उठता है कि क्या राज्यसभा के चुनाव में सभी उम्मीदवार बेहतर होते हैं। अगर नोटा सही विकल्प ही है तो फिर इसे प्रत्येक चुनाव में क्यों नहीं इस्तेमाल किया जा सकता या फिर यह मान लिया जाए कि राज्यसभा चुनाव में समस्त उम्मीदवारों में से कोई बुरा हो ही नहीं सकता। यह एक चर्चा का विषय है। हालाँकि, यह तथ्य निर्विवाद है कि मतदाताओं को उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया में पूरी ईमानदारी से शामिल होना चाहिए।