प्रशांत किशोर जैसे राजनैतिक ‘जानकार’ के द्वारा मुस्लिमों के तुष्टिकरण की बात को स्वीकारने के बाद भी ‘द वायर’ की पत्रकार आरफा खानम शेरवानी ने पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को नकारते हुए उसे मात्र एक ‘मिथक’ ही माना है। उन्होंने अपने दावे की प्रमाणिकता के लिए दशकों से मुस्लिमों के सामाजिक विकास के सूचकांकों में निचले स्तर पर बने रहने का उदाहरण पेश किया। मुस्लिम दूसरे समुदायों से समृद्ध नहीं हैं, इसलिए शेरवानी ने भारतीय राजनीति में उनके तुष्टिकरण के अटल सत्य को नकार दिया।
शेरवानी ने तर्क दिया कि श्रम बल सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार बंगाल में मात्र 13% मुस्लिमों के पास एक वेतन युक्त नौकरी है, जबकि उसमें से भी 34.3% कैजुअल श्रमिकों के रूप में कार्य करते हैं। शेरवानी ने कहा कि दोनों ही राष्ट्रीय औसत से काफी कम है।
The myth of Muslim appeasement in Bengal.
— Arfa Khanum Sherwani (@khanumarfa) April 10, 2021
बंगाल में मुस्लिम तुष्टिकरण का सफ़ेद झूठ।
1.) The Periodic Labour Force Survey 2018-2019 shows that only 13% of Muslims in WB have regular salaried jobs (while the corresponding number for India is 22.1%)
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शेरवानी ने भले ही इन मुट्ठीभर तर्कों के कारण मुस्लिम तुष्टिकरण को नकारने का प्रयास किया हो किन्तु सत्य यही है कि इस तुष्टिकरण ने बंगाल के अंदर भाजपा को जो अवसर दिया है, उसी कारण सा ही अब शेरवानी तुष्टिकरण की राजनीति को मिथक बताने लगी हैं।
आरफा खानम शेरवानी के तर्कों को सत्य माना जा सकता था लेकिन केवल तभी जब मुस्लिम समुदाय के नेतृत्वकर्ता और राजनैतिक जनप्रतिनिधि मजहबी प्राथमिकताओं के स्थान पर आर्थिक समृद्धि, साक्षरता और रोजगार के उचित अवसरों के लिए चिंतित होते। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। मुस्लिम समाज में असदुद्दीन ओवैसी, अकबरुद्दीन ओवैसी और बंगाल की राजनीति में अबास सिद्दीकी के बढ़ते मजहबी जनाधार के आधार पर यही कहा जा सकता है कि मुस्लिम मतदाता अभी भी मजहबी मसलों को प्राथमिकता मे रखते हैं।
मुस्लिम समुदाय के मजहबी मसले आर्थिक और सामाजिक चिंताओं पर भारी पड़ते हैं। मुस्लिम समुदाय एक चक्र में उलझा हुआ है, उसके प्रतिनिधि भी मजहब को ही प्राथमिकता दे रहे हैं और प्राथमिकताओं का यही क्रम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में मुस्लिमों के तुष्टिकरण का सबसे बड़ा कारण है। भारत के धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों ने इसी कारण से मुस्लिमों के मजहबी मसलों को विकास और समृद्धि के उपायों से ऊपर रखा।
15 मिनट के लिए पुलिस हटा देने की माँग करने वालों और 50 करोड़ भारतीयों को वायरस से मारने की दुआ माँगने वालों से आर्थिक उन्नति से संबंधित योजनाओं की उम्मीद रखना पूर्णतः बेमानी है। जब नेता चुना ही जा रहा है मजहबी मसलों को निपटाने के लिए तो फिर उससे विकास और आर्थिक उन्नति की कौन सी उम्मीद की जाए!
शेरवानी ने जो भी कहा, उसे डॉ. भीमराव अंबेडकर के शब्दों से तौलते हैं। अंबेडकर ने अपनी किताब ‘Pakistan or the Partition of India’ में साफ तौर पर कहा है कि मुस्लिम समुदाय का सामाजिक ही नहीं अपितु राजनैतिक अस्तित्व भी ठहराव पर आधारित है। मुस्लिम इलाकों में चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी सामाजिक मुद्दों के स्थान पर मजहबी अवधारणाओं और हिन्दू-मुस्लिम पहचान पर ही चुनाव लड़ता है। उनके लिए राजनीति का भी कोई महत्व नहीं है।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि सामाजिक विकास के मुद्दे मुस्लिम प्रत्याशियों के वादों से गायब रहते हैं। मुस्लिम प्रत्याशियों और उनके मतदाताओं के विषय में कहते हुए अंबेडकर कहते हैं कि मुस्लिमों का अपना एक राजनैतिक संसार है, जहाँ सिर्फ एक ही चीज सबसे महत्वपूर्ण है और वह है उनका ‘मजहब’।
वर्तमान राजनीति में भी यही सही है। यदि आरफा खानम शेरवानी अपने तर्कों पर यकीन करती हैं तो उन्हें अकबरुद्दीन ओवैसी, अमानतुल्ला खान और अब्बास सिद्दीकी जैसे नेताओं की बढ़ती मजहबी लोकप्रियता और उसके परिप्रेक्ष्य में उनके बयानों पर ध्यान देना चाहिए। ममता बनर्जी ने भी पश्चिम बंगाल के अंदर इसी तुष्टिकरण का प्रयास किया, जिसकी कीमत हिन्दू हितों को दरकिनार करके चुकाई गई। संभव है कि बंगाल में दशकों से हुआ यह तुष्टिकरण ममता की कुर्सी और उनके राजनैतिक अस्तित्व दोनों को ही कुछ समय के लिए वनवास में धकेल दे।
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