थोड़े ही दिन पहले की बात है जब दक्षिणी भारत के एक राज्य में बुर्के के लिए आंदोलन चल रहा था। उस आंदोलन से जो तस्वीर उभर कर आई वो एक लड़की की थी। कई हिन्दुओं ने, विशेषकर स्त्रियों ने उस तस्वीर को देखकर जमकर छाती कूटी थी। उनका कहना था कि एक लड़की के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए। घेरकर एक अकेली लड़की के साथ इतने आवारा लौंडे बदतमीजी कर रहे थे। अब उन सभी का क्या कहना है?
अब तो एक नुपुर शर्मा के खिलाफ देश में कितने मर्द ही गाली-गलौच, बलात्कार, सर काटने की बातें कर रहे हैं। बल्कि सिर्फ देश भर में क्यों, कतर, ईरान और कुवैत जैसे तीन-तीन मुल्क ही उतर आए हैं। अब भी वही कहेंगी आप कि एक अकेली लड़की के साथ गलत हो रहा है? चूँकि इस बार आपकी परिभाषाएँ, आपकी मान्यताएँ, आपके विचार बदल गए हैं, तो सोचिए कि ऐसा क्यों हुआ? इसे आप इतिहास से आसानी से सीख सकते/सकती हैं।
हाल ही में सम्राट पृथ्वीराज चौहान पर फिल्म भी आई है, इसलिए याद करना बिलकुल मुश्किल नहीं। आपके युद्ध के नियम कहते थे कि पराजित शत्रु के साथ दुर्व्यवहार न करें। आपके नियम कहते थे हारे हुए को जाने दो। आपके नियम बताते थे कि भागते की पीठ पर, या निहत्थे पर वार न किया जाए। आपने वो नियम मानकर युद्ध किए, और उनके नियमों में ऐसा कुछ था ही नहीं! उनके नियम कहते हैं कि हारे हुए शत्रु की आँखें निकाल लो।
उनके नियम कहते हैं कि काफिर स्त्रियों को उठाकर संपत्ति की तरह बाँटो और बलात्कार करो। उनके नियम आपके बच्चों को उठाकर ले जाने, उनका खतना करने और गुलाम बना लेने की बात करते हैं। कश्मीर में “रालिव गालिव या चालीव” सुनने के बाद बहरे होने का नाटक तो आप कर रहे थे! आपको युद्ध तो लड़ना था, मगर अपनी शर्तों पर। किसी नैतिकता के ऊँचे मचान पर बैठकर लड़ना चाहते थे। आपका सपना था कि शत्रु खा-पी कर तगड़ा हो जाए, आर्थिक रूप से संपन्न हो जाए, कुछ अस्त्र-शस्त्र जुटा ले तब तो उससे लड़कर खुद को शूरवीर बताएँगे न?
ऐसे कैसे बेचारा कोई जब रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य की कमी से जूझ रहा हो तो युद्ध करेगा? बेचारा है तो उस से भाईचारा दिखाना है। फिर लड़ेंगे युद्ध! क्षमा करें, ऐसे नियमों से युद्ध नहीं लड़ा जाता। मुगलिया दौर ही हिंदी साहित्य का भक्तिकाल भी होता है। उस दौर के भक्तिकाव्य में लोट-पोट होकर जबतक आप रामायण पढ़ते रहेंगे तबतक ऐसा होता रहेगा। आपको दिखेगा ही नहीं कि हारे हुए राक्षसों द्वारा ऋषियों के यज्ञ का विध्वंस गलत बताया गया है।
वहीं जीतने वाली वानर सेना जब मेघनाद के यज्ञ का विध्वंस करके उसे अधूरे यज्ञ से उठाकर लक्ष्मण जी से लड़ा देती है, तो कोई उसे गलत कहता दिखा है क्या? दुनिया के पिछले दो हजार वर्षों के इतिहास में कभी किसी देश में ऐसा देखा है कि उसपर किसी अब्राहमिक मजहब की हमले में कब्जा कर लिया गया हो और फिर वो छूटकर अपनी पुरानी सभ्यता संस्कृति वापस ले सका हो? स्पेन पर इनक्वीजिशन के बाद वो छूट पाए?
एज्टेक जैसी सभ्यताओं का क्या हुआ, या फिर ईरान के पारसी कहाँ गायब हो गए? भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ अब्राहमिक हमलावरों की तलवारें कुंद पड़ गयीं। हम उस सभ्यता से आते हैं जिसने हजार वर्षों के युद्ध के बाद भी अपने पैर के नीचे की थोड़ी धरती बचा पाने में सफलता पाई है। पिछले दो-ढाई सौ वर्षों का इतिहास भी देखें तो इस प्रयास में अफगानिस्तान का क्षेत्र हमारे हाथ से गया। पाकिस्तान-बांग्लादेश हाथ से गए।
फिलहाल भारत के कम से कम नौ राज्यों में हिन्दू ही अल्पसंख्यक हैं लेकिन उन्हें अल्पसंख्यकों को सरकार बहादुर की ओर से मिलने वाली मदद नहीं दी जाती क्योंकि अल्पसंख्यक तो हमारे नए वाले संविधान में परिभाषित ही नहीं। इतने वर्षों तक, बल्कि वर्षों क्यों, दशकों-शताब्दियों तक हम हिन्दू बचे हुए कैसे हैं? कैसे ऐसा होता है कि आज भी अफगानिस्तान से सिख शरणार्थी, पाकिस्तान से हिन्दू शरणार्थियों के पास जान बचा कर, भाग कर आने के लिए एक देश बचा हुआ है?
इसके लिए आपको उन्हीं हिन्दुत्ववादी लोगों का धन्यवाद देना चाहिए, जिन्हें आम तौर पर सरकार बहादुर “फ्रिंज एलिमेंट्स” कहकर पहचानने से मना कर देती है। ये वही झंडा उठाए सड़कों पर उतरने वाले लोग थे जिन्हें आप घरों में इसलिए नहीं आमंत्रित करते क्योंकि इससे मोहल्ले में आपकी छवि बिगड़ेगी। इन्हें देखकर आपके बच्चों पर भी तो बुरा प्रभाव पड़ता न, कहीं हिंसक हो जाते तो? ये वो लोग हैं जिनके लिए चंदा जुटाने के लिए एक गुल्लक तक आपने नहीं रखी।
कभी सोचा भी कि आर्थिक जरूरतें इनकी भी होंगी, तो गुल्लक लाना आज-कल करके टालते रहे। ये कह देने के बाद भी अधिकांश लोग चाहेंगे कि धर्म का काम है, मुफ्त में करे, इसलिए वो आज भी गुल्लक खरीदकर उनके लिए चार पैसे भी अलग नहीं करेंगे! असल में हिन्दू वो लोग होते हैं जो महाराणा प्रताप की मदद कोई भामाशाह करे, इसी प्रतीक्षा में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना चाहते हैं। वो भीलों की तरह मदद करने उतर आएँ, इतना दम ही नहीं होता उनमें।
खुद ही सोचिए न, चार पैसे बचाकर जैसे कश्मीर में हिन्दुओं ने घर बनवाए थे, वैसा घर बनवा लेना ठीक नहीं होगा? बाद में आपको कश्मीर से भागना पड़े तो उसमें कोई पड़ोसी “घर की देखभाल करने” के नाम पर रह लेगा। लाखों लगते हैं घर बनाने में, अलग से गुल्लक में सिक्के डालकर साल में 1000-1500 कैसे बचाते? आस पास का माहौल देखकर, कहीं से “जागो हिन्दू जागो” सुनकर बेचारा हिन्दू जाग भी जाए तो क्या होगा?
जागने के बाद कोई बताता कि क्या करना है जागकर तब तो कुछ करता न? अपनी बुद्धि तो उस कॉर्पोरेट को दे रखी है, जिससे लाखों की सालाना सैलरी मिलती है। कोई बताए कि हजार रुपये की दो-चार किताबें अपने पक्ष की खरीदकर किसी को भेज सकते हो। हजार रुपये का गिफ्ट कार्ड अमेज़न से खरीदकर किसी अपने पक्ष वाले के ईमेल-इनबॉक्स में चुपचाप डालकर आ सकते हो। कोई बताएगा तब न! ऐसे कैसे कर दें जी?
एक स्त्री के खिलाफ माहौल बनाने वाले झबरे लम्पट को मिलता चंदा देखिए और अपने पक्ष वालों को चंदा मामा कहने की बीमारी से मुक्ति पाइए। वो माँग रहा था या नहीं, ये सोचना छोड़िए। गुल्लक में ही सही आज से अर्थोपार्जन-बचत शुरू कीजिये। अपने पक्ष में यूट्यूब वीडियो बनाने वालों के हाथ मजबूत कीजिए। मुकदमा झेल रहे लोगों की मदद करने वाले लोगों की मदद कीजिए। मुकदमा लड़ने उतरने वाले वकीलों की किताबें खरीदकर लोगों को बाँट दीजिए। अपने पक्ष में लिखे को फेसबुक/ट्वीटर पर पेड प्रमोशन दे दीजिए। कब तक अंग विशेष को कुर्सी से चिपकाए आराम करेंगे? कुछ तो कीजिए!