बिहार में अगले साल विधानसभा चुनाव होना है और इसकी कैंपेनिंग अलग-अलग तरीक़े से अभी से शुरू हो गई है। इन दिनों जेडीयू (जनता दल यूनाइटेड) और आरजेडी (राष्ट्रीय जनता दल) के बीच पोस्टर जंग छिड़ी हुई है। दोनों ही पार्टियाँ जनता को एक ऐसा आइना दिखाने की कोशिश कर रही हैं जिससे वो जनता का ध्यान अपनी और आकर्षित कर सकें। जनता को लुभाने के इस हथकंडे में वो अपनी कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रख छोड़ रहे हैं।
चलिए आगे बढ़ते हैं और बात करते हैं जेडीयू और आरजेडी के उन पोस्टर्स की जिस पर लिखा संदेश चर्चा का विषय बना हुआ है। नीतीश के पोस्टर पर लिखा है, ‘क्यूँ करें विचार, ठीके तो है नीतीश कुमार‘। इसके जवाब में आरजेडी ने अपने पोस्टर में लिखा है, “क्यों न करें विचार, बिहार जो है बीमार।”
Bihar: Poster seen outside Rashtriya Janata Dal (RJD) office in Patna. https://t.co/97uGg1wooW pic.twitter.com/kYHQMHj2lH
— ANI (@ANI) September 3, 2019
सवाल यह है कि आख़िर नीतीश बाबू को बिहार में सब ठीके क्यों लगता है, जबकि सच्चाई यह है कि बिहार की जनता आज भी चौतरफ़ा मार झेलने को मजबूर है। फिर चाहे वो राज्य की क़ानून व्यवस्था हो, स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएँ हों, रोज़गार और शिक्षा हो या हर साल बाढ़ से ढह जाने वाला जीवन हो।
क़ानून-व्यवस्था की पोल खोलते आँकड़े
सबसे पहले बात करते हैं बिहार की क़ानून-व्यवस्था की, जिसमें लूट, हत्या, डकैती और अपहरण जैसे संगीन अपराधों को अंजाम दिया जाना शामिल है। इन सभी वारदातों पर विराम लगाने का ज़िम्मा पुलिस प्रशासन के सिर होता है। जून 2019 में न्यूज-18 में छपी एक ख़बर के अनुसार, बिहार की 54% जनता का कहना है कि पुलिस ख़ुद भ्रष्टाचार में लिप्त होती है, जबकि 34% जनता का मानना है कि पुलिस ख़ुद क़ानून-व्यवस्था का उल्लंघन करती है और एक पक्षपाती भूमिका निभाती है। बिहार की एक बड़ी संख्या (लगभग 77% जनता) यह मानती है कि राजनीतिक दल पुलिस के कामकाज में हस्तक्षेप करते हैं। इन सब कारणों से यह पता चलता है कि बिहार की जनता को क़ानून-व्यवस्था पर बहुत कम या न के बराबर भरोसा है।
जनता कभी सरकार से उब कर, तो कभी राजनीतिक कारणों से झूठ भी बोल सकती है। लेकिन आँकड़े झूठ नहीं बोलते हैं, वो भी सरकारी आँकड़ें! बिहार पुलिस का आँकड़ा कहता है कि जनवरी 2019 से मई 2019 तक 1277 हत्याएँ, 605 बलात्कार, 3001 दंगे, 4589 अपहरण जैसे संगीन जुर्म इस राज्य में हुए (हुए शायद ज्यादा होंगे!) और जो आधिकारिक तौर पर दर्ज किए गए।
10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ने में नंबर-1 है बिहार
चलिए, अब शिक्षा की बात करते हैं, जिसके आँकड़े कुछ इस तरह हैं। दिसंबर 2018 में हिन्दुस्तान में छपी ख़बर के अनुसार, 10वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ने वाले छात्रों में बिहार और झारखंड सबसे आगे है। इस ख़बर में यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फ़ॉर एजुकेशन (U-DIS) से मिले वर्ष 2014-15 से लेकर 2016-17 तक के आंकड़ों का ख़ुलासा किया गया था। आँकड़े के अनुसार, 2014-15 में माध्यमिक स्तर पर स्कूल छोड़ने वाले छात्र-छात्राओं का प्रतिशत 25% रहा।
वहीं, 2016-17 के दौरान यह आँकड़ा बढ़कर 39.73% हो गया। ख़बर में छात्राओं के स्कूल छोड़ने के पीछे मुख्य वजह शौचालय का अभाव बताई गई थी। इससे पता चलता है कि बिहार में शिक्षा के स्तर पर कुछ ठीक नहीं है, फिर भी नीतीश बाबू का कहना है कि सब ठीके तो है…
हर साल आती है बाढ़, लेकिन नहीं होता कोई पुख़्ता इंतज़ाम
बिहार में बाढ़ की समस्या हर साल की है। हालिया सन्दर्भ की बात करें तो राज्य के क़रीब 12 ज़िले बाढ़ से बेहाल रहे। इन ज़िलों में लगभग 50 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए। इन ज़िलों में शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, पूर्वी चंपारण, मधुबनी, दरभंगा, सहरसा, सुपौल, किशनगंज, अररिया, पूर्णिया के हालात बेहद ख़राब रहे। कहने को तो साल 1980 में बाढ़ नियंत्रण बोर्ड बनाया गया था, लेकिन आज तक बाढ़ से निपटने का पुख़्ता इंतज़ाम वाला ऐसा कोई सिस्टम नहीं बनाया गया जिससे राज्य की जनता को बाढ़ से बचाया जा सके।
सरकारी मिशनरी इस आपदा से अनजान नहीं थी, इसलिए आदेश तो निकाले लेकिन राहत-बचाव की कोई तैयारी नहीं की। आपदा प्रबंधन विभाग ने 3 मई 2019 को बिहार के सभी जिलाधिकारियों को एक पत्र भेजा था। यह पत्र हर साल अप्रैल के अंत या मई की शुरुआत में जारी होता है और जून के आख़िर तक इसमें दिए गए दिशा-निर्देशों का पालन करना होता है। इनमें कंट्रोल रूम बनाना, नावों का इंतज़ाम, गोताखोरों की बहाली, राहत केंद्र के लिए जगह, राशन, दवा, मोबाइल टीम, तटबंधों की सुरक्षा सुनिश्चित करना वगैरह जैसे काम शामिल होते हैं। सवाल यह है कि अगर दिशा-निर्देशों के तहत काम किया गया होता तो बाढ़ से जो ज़िंदगियाँ तबाह हुईं उन्हें बचाया जा सकता था।
हर साल की तरह इस साल भी बिहार में आई बाढ़ से कई ज़िले बुरी तरह से प्रभावित हुए। यह बेहद दु:खद है कि इस विकट समस्या से निपटने के लिए राज्य के पास अब तक कोई ठोस आपदा प्रबंधन प्रणाली नहीं है, फिर भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लगता है कि बिहार में सब ठीके तो है!
चमकी बुखार ने ली 200 बच्चों की जान, नीतीश बाबू बाँट रहे थे आम
बिहार की स्वास्थ्य सुविधाएँ कितनी दुरुस्त हैं इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य में एक्यूट एंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (AES) यानी चमकी बुखार के प्रकोप से क़रीब 200 बच्चों ने अपनी जान गँवा दी। जहाँ एक तरफ बच्चों पर चमकी का क़हर जारी था, तो वहीं दूसरी तरफ़ मुख्यमंत्री साहब विधानसभा में आम के पौधे बाँट रहे थे। चमकी बुखार के इंतज़ाम पर फेल हो चुकी सरकार ऐसी स्थिति में नहीं थी कि वो कोई स्पष्टीकरण दे पाती। सूबे के मुखिया नीतीश कुमार ख़ुद इस स्थिति में भी नहीं थे कि वो इस समस्या पर एक पत्रकार के सीधे से सवाल का जवाब दे पाते।
#WATCH Bihar: Chief Minister Nitish Kumar evades questions of journalists as they ask him about the deaths of children in the state due to Acute Encephalitis Syndrome (AES). pic.twitter.com/37cQrlOskB
— ANI (@ANI) June 21, 2019
हद तो तब पार हो गई जब बिहार के अस्पताल में पीड़ित बच्चों की संख्या इस क़दर बढ़ गई कि उनके इलाज के लिए बेड की कमी पड़ गई और एक ही बेड पर दो बच्चों को लिटाना पड़ा। श्रीराम कृष्ण मेडिकल कॉलेज एंड अस्पताल के सुपरिटेंडेंट ने इस बात की पुष्टि की थी कि अस्पताल के हर विभाग में डॉक्टर्स की भी कमी है।
इस कमी को पूरा करने के लिए किसी तरह का कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया, यदि उठाया गया होता तो इतने मासूमों की जान न जाती। अच्छा होता यदि इस बीमारी को रोकने के लिए प्राथमिकी स्वास्थ्य केंद्र के स्तर पर स्वास्थ्य प्रणाली को विकसित किया गया होता।
घर-द्वार छोड़, विदेश तक जाने को मजबूर हैं बेरोज़गार
आइए अब बात कर लेते हैं राज्य में फैली बेरोज़गारी की। हिंदुस्तान की ख़बर में सेंटर फॉर मॉनेटरिंग इंडियन इकोनॉमी के सर्वे का ज़िक्र करते हुए लिखा गया कि बिहार में बेरोज़गारी दर वर्तमान में 8% से भी ज़्यादा है।
ग़ौरतलब है कि विदेश मंत्रालय कम पढ़े-लिखे कामगारों को देश से बाहर जाने पर इमिग्रेशन देता है। इनमें वही लोग शामिल होते हैं, जिनके पास रोज़गार नहीं होता। अपने ही राज्य में रोज़गार न मिल पाने से मजबूर लोग रोज़गार के लिए अपना घर-द्वार छोड़कर विदेश जाने का रुख़ करते हैं। 2018 में बिहार के 42 हज़ार से अधिक कामगारों को इमिग्रेशन दिया गया। इनमें से 8,600 लोग इमिग्रेशन लेकर विदेश गए। गोपालगंज से 8300, पश्चिमी चम्पारण से 3,000, पटना से 3,600, सारण से 1,600, मुजफ़्फरपुर से 1,500, मधुबनी से 1,900 और दरभंगा से 1,500 कामगार लोगों को इमिग्रेशन दिया गया।
गली-मौहल्ले में ‘सब ठीके है’ के मात्र पोस्टर लगा देने से ही सब ठीक नहीं हो जाता सुशासन बाबू! अच्छा होता कि आप इस ‘सब ठीके है’ के भ्रमजाल से बाहर निकल आते और राज्य की असली तस्वीर से रुबरू होते। साथ ही अपने अंतर्मन में झाँककर इस सवाल का जवाब तलाशते कि बिहार की जनता आख़िर आपका विकल्प क्यों न तलाशे?