बिहार में दो विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए – तारापुर और कुशेश्वर स्थान। जहाँ तारापुर मुंगेर में स्थित है, वहीं कुशेश्वर स्थान दरभंगा में। एक गंगा के इस पार है और दूसरा गंगा के उस पार। राजद के लिए दोनों पार से बुरी खबर आई है। इस विधानसभा उपचुनाव में उसे दोनों ही सीटों पर हार झेलनी पड़ी। दोनों सीटें सत्ताधारी जदयू की झोली में गई। राजद के संस्थापक-अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने 3 साल बाद चुनाव प्रचार किया, लेकिन उनकी पार्टी के लिए नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा।
कुशेश्वर स्थान के नतीजे: जदयू ने युवा कंधा + राजनीतिक घराना पर जताया भरोसा
सबसे पहले आँकड़ों की बात कर लेते हैं। कुशेश्वर स्थान ने जदयू ने युवा अमन भूषण हजारी पर भरोसा जताया था। 26 वर्ष के अमन भूषण हजारी युवा ज़रूर हैं, लेकिन इलाके के एक मजबूत राजनीतिक घराने से आते हैं। उनके पिता शशि भूषण हजारी ने इस सीट पर जीत की हैट्रिक लगाई थी। जुलाई 2021 में उनके निधन के बाद ये सीट खाली हुई थी। टिकट उनकी पत्नी को दिया जाना था, लेकिन उनका भी असामयिक निधन हो गया। जदयू ने युवा कंधों पर भरोसा जताया।
मतगणना की शुरुआत से ही यहाँ जदयू ने बढ़त बनाए रखी। लोगों का कहना है कि अमन भूषण हजारी को सहानुभूति वोट भी खूब मिले। उन्हें 59,887 (45.72%) वोट प्राप्त हुए, जबकि राजद उम्मीदवार गणेश भारती को 47,192 (36.02%) वोटों से ही संतोष करना पड़ा। लोजपा और कॉन्ग्रेस के वोटों को मिला भी दें तो ये 11,225 वोट होते हैं, जो इस सीट पर जीत के अंतर 12,698 से भी कम है। 2020 विधानसभा चुनाव में उनके पिता के जीत का अंतर से ये ज्यादा है।
जदयू ने बिहार के जल संसाधन और सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री संजय झा को कुशेश्वर स्थान विधानसभा सीट की जिम्मेदारी सौंपी थी, जो पड़ोसी जिले मधुबनी के रहने वाले हैं। लालू यादव का यहाँ आना और पूर्व उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का कैम्प करना भी बेअसर साबित हुआ। इस सीट पर मुस्लिम, यादव और ब्रह्मा बड़ी भूमिका निभाते हैं, ऐसे में राजद को अपने परंपरागत माई समीकरण के अलावा मुसहर जाति के उम्मीदवार के कारण उनके समुदाय के वोटों की भी अपेक्षा थी, जो नहीं हुआ।
राजपूत, कुर्मी, पासवान और रविदास समुदाय की भी इस सीट पर अच्छी-खासी संख्या है। राजद और कॉन्ग्रेस के बीच दरार आई। लालू यादव ने कॉन्ग्रेस नेता के लिए ‘भकचोन्हर’ शब्द का प्रयोग कर दिया। बाद में बयान आया कि सोनिया गाँधी से उनकी बात हो गई है और गठबंधन जारी रहेगा। इससे जनता और कन्फ्यूज्ड हो गई। 2020 में महागठबंधन में कॉन्ग्रेस ने यहाँ से चुनाव लड़ा था। इस बार सीट राजद ने कॉन्ग्रेस को नहीं दी। फिर फोनों अलग-अलग लड़े।
तेजस्वी यादव ने मुसहर जाति से उम्मीदवार बना कर इसे भुनाने की अच्छी-खासी कोशिश की थी और इससे वो वहाँ यादव-मुसहर गठजोड़ बनाना चाहते थे। राजद ने मुस्लिम-यादव उम्मीदवार न देकर दोनों सीटों पर एक प्रयोग किया था, जिसका कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला। CM नीतीश कुमार, भाजपा के सुशील मोदी, तारकिशोर प्रसाद और संजय जायसवाल, HAM के जीतनराम माँझी और VIP के मुकेश सहनी ने अपने-अपने समीकरणों के हिसाब से चुनाव प्रचार किए।
तारापुर विधानसभा क्षेत्र: मुंगेर में भी फेल हुआ तेजस्वी यादव का गणित
मुंगेर के तारापुर विधानसभा क्षेत्र पर भी राजद ने पूरा जोर लगाया था। यहाँ टक्कर काँटे की जरूर हुई, लेकिन अंत में जदयू उम्मीदवार ने बाजी मारी। जदयू के राजीव कुमार सिंह को 79,090 (46.62%) मत प्राप्त हुए, जबकि राजद के अरुण कुमार को 75,238 (44.35%) वोट मिले। जैसा कि आप देख सकते हैं, 3852 (2.27%) वोटों से हार-जीत का फैसला हुआ। कॉन्ग्रेस और जदयू मिला कर 8954 वोट ही ला पाए। कॉन्ग्रेस को नोटा से लगभग एक हजार वोट अधिक आए।
राजद ने जहाँ वैश्य समाज से उम्मीदवार उतारा था, वहीं जदयू ने अपने परंपरागत कुशवाहा समाज से उम्मीदवार दिया। हाँ, जीत का अंतर जरूर पिछली बार के मुकाबले घट गया। लेकिन, राजीव कुमार सिंह इससे पहले अन्य चुनावों में हारते ही रहे थे। वर्ष 2020 में तारापुर विधानसभा क्षेत्र से जदयू प्रत्याशी मेवालाल चौधरी ने 7256 मतों के अंतर से अपने निकटतम प्रतिद्वंदी राजद प्रत्याशी सह पूर्व केंद्रीय मंत्री जयप्रकाश यादव की पुत्री दिव्य प्रकाश को हराया था।
राजद की हार के साथ ही मुंगेर के मुख्य बाजार असरगंज स्थित उसके दफ्तर में सन्नाटा छा गया। लोगों में ऐसी चर्चा होने लगी कि जाति के भरोसे चुनाव लड़ने वाले राजद के उम्मीदवार को उनकी अपनी ही जाति का समर्थन नहीं मिला। वर्ष 2000 में भी अरुण कुमार भाजपा नेता अश्विनी कुमार चौबे के विरुद्ध चुनाव लड़े थे, लेकिन तब जीत का अंतर इससे कम रहा था। इसके बाद वो भागलपुर में राजद के नगर अध्यक्ष के रूप में काम कर रहे थे और असरगंज को ही गढ़ बनाया था।
इस क्षेत्र में यादव 65 हजार, कुशवाहा 58 हजार, अति पिछड़ा 48 हजार, वैश्य 40 हजार, सवर्ण 40 हजार, SC 35 हजार, मुस्लिम 22 हजार अन्य 9 हजार कुल 3 लाख 17 हजार मतदाता हैं। तेजस्वी यादव ने वैश्य और माई समीकरण के भरोसे अपना अंकगणित लगाया था। लेकिन, अब साफ़ हो गया है कि ये फिट नहीं बैठा। तारापुर में जदयू ने दिवंगत विधायक मेवालाल चौधरी के परिवार से किसी को नहीं उतारा। बताया जाता है कि तेजस्वी यादव ने हर पंचायत के लिए विधायकों को जिम्मेदारी दी थी।
तारापुर विधानसभा क्षेत्र की जिम्मेदारी जदयू ने मंत्री अशोक चौधरी को सौंपी थी। दोनों सीटों पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दो दिनों तक चुनाव प्रचार किया। राजद ने रणविजय साहू के नेतृत्व में राजद के वैश्य विधायकों को मैदान में उतारकर माहौल भी बनाया था। अशोक चौधरी ने जदयू और भाजपा के नेताओं के बीच सामंजस्य बिठाने और चुनाव प्रचार की रणनीति बनाने में अहम भूमिका निभाई। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने न तो कहीं कैम्प किया, न ही चुनाव प्रचार में ज्यादा दिन खपाए।
तारापुर और कुषवेश्वर स्थान: राजद और जदयू के लिए अब आगे क्या?
बिहार विधानसभा में राजद के 75 विधायक हैं। ये संख्या छोटी नहीं है। सबसे बड़ी बात तो ये कि लालू यादव की गैर-मौजूदगी में 2020 विधानसभा चुनाव में राजद को इतनी सीटें आईं। ये भी गौर कीजिए कि उस दौरान पोस्टरों-बैनरों से लेकर नारों तक से लालू यादव का नाम और तस्वीरें हटा दी गए थीं। तेजस्वी यादव ने खुद पर ध्यान केंद्रित रखा था और मुस्लिम-यादव गठजोड़ को ही भुनाया था। ऐसे में सवाल ये हो सकता है कि क्या लालू यादव के मैदान में उतरने से उलटा नुकसान ही हो गया?
इसके लिए संजय झा का बया याद कीजिए। लालू यादव के जब रैली करने की खबर आई थी तो संजय झा ने राहत की साँस लेते हुए कहा था कि राजद ने अब जदयू का काम आसान कर दिया है, क्योंकि लोगों को अब राजद के जंगलराज की याद नहीं दिलानी पड़ेगी। उनका कहना था कि जनता लालू यादव को देखते ही जंगलराज की यादें ताज़ा कर लेगी। जाहिर है, फायदा जदयू को होगा। 2005 से पहले का शासन कैसा था, लालू का चेहरा देखते ही जनता को याद आ जाता है।
लालू यादव ने जिस तरह नीतीश कुमार के ‘विसर्जन’ की बात की और पलटवार करते हुए मुख्यमंत्री ने उन्हें गोली मरवाए जाने की आशंका जताई, ये खासा चर्चा में रहा। तेज प्रताप यादव का भी अब बयान आ गया है। उनका कहना है कि प्रदेश अध्यक्ष जगादनंद सिंह, कोषाध्यक्ष सुनील सिंह और तेजस्वी यादव के रणनीतिकार संजय यादव ने चुनाव हरवाया है। उन्होंने कहा कि सबको साथ लेकर नहीं चला गया और बीमार पिता से भी चुनाव प्रचार करवाया गया।
तेजस्वी यादव और तेज प्रताप का झगड़ा आज से नहीं चल रहा। चुनाव से पहले भी दोनों के बीच दूरी बनी रही। लालू यादव ने तेज प्रताप को मनाने की कोशिश की। लेकिन, उन्हें चुनाव प्रचार करने से रोक दिया गया। वो तो कॉन्ग्रेस के पक्ष में चुनाव प्रचार करना चाहते थे, लेकिन किसी तरह उन्हें मनाया गया। तारापुर में तेजस्वी ने मछली पकड़ते फोटो खिंचवाई तो तेज प्रताप ने ये कहा कि किसी जीव को यूँ तड़पाना ठीक नहीं, बच्चों को पढ़ाई की चीजें देते तो बेहतर रहता।
— Janata Dal (United) (@Jduonline) November 3, 2021
ऐसे प्रदर्शन के बाद कॉन्ग्रेस की बात तो नहीं ही की जानी चाहिए, लेकिन उसने जो दमखम दिखाने की कोशिश की थी वो कहीं नजर नहीं आया। चुनाव से पहले कन्हैया कुमार को गाजे-बाजे के साथ पार्टी में एंट्री कराई गई। 2019 लोकसभा चुनाव में लगभग सवा 4 लाख वोटों से हारने वाले कन्हैया कुमार को वैसे भी मीडिया द्वारा ऐसे पेश किया जाता रहा है, जैसे वो बहुत बड़े नेता हों। पटना में उन्होंने लालू यादव के विरुद्ध बयान भी दिया था, लेकन फिर चुपके से निकल लिए।
उनके दो अन्य साथियों जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल कहाँ थे और क्या कर रहे थे, कोई थाह-पता नहीं चला। शायद कॉन्ग्रेस के नेताओं को पता था कि मेहनत करने या न करने से कोई फायदा नहीं होने वाला, क्योंकि जनता उनका नाम भी नहीं सुनना चाहती। कॉन्ग्रेस के नेता चुनाव प्रचार के लिए कब आए और कब गए, किसी को नहीं मालूम। महज 3% वोट शेयर में सिमटी कॉन्ग्रेस दोनों सीटों पर जमानत भी न बचा पाई। दोनों जगह वो चौथे स्थान पर रहे, चिराग पासवान की लोजपा (रामविलास) से पीछे।
CPI नेता और JNU छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने दोनों ही सीटों पर तीन-तीन दिन चुनाव प्रचार किया, इसीलिए ये पार्टी के साथ-साथ उनकी भी विफलता मानी जाएगी। बिहार में नीतीश कुमार के विरुद्ध तमाम असंतोष के बावजूद लोगों का मानना है कि विकास के लिए जदयू-भाजपा को ही वोट देना होगा और राजद अब कभी विकल्प नहीं बन सकती है। नीतीश कुमार की ‘विकास पुरुष’ की छवि बची हुई है और राजद का नाम नकारात्मकता का पर्याय बना हुआ है।