प्रधानमन्त्री मोदी जी ने अपने संबोधन में कहा था- ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम’ अर्थात् इस राष्ट्र यानी देश के हित में हम सब आलस्य और प्रमाद को छोड़कर सजग बनें। ‘वयं’ शब्द संस्कृत व्याकरण के हिसाब से उत्तम पुरुष के बहुवचन का प्रयोग है, जिसका मतलब होता है ‘हम सब’। वक्ता का अभिप्राय जिस इकाई से है उसके अन्दर आने वाले सभी लोग उस ‘हम सब’ का हिस्सा हैं।
यहाँ ‘वयं’ शब्द की परिधि राष्ट्र से तय होती है, जिसका मतलब हुआ इस देश के अंतर्गत आने वाले सभी लोग- शासक, प्रशासक, नागरिक, सुरक्षाकर्मी, चिकित्सक, रोगी, सफाईकर्मी, सभी व्यवसाय, सभी सम्प्रदाय, भारत संघ के सभी राज्य या आप कह सकते हैं कि जिस प्रसंग में इस वैदिक सूक्ति का प्रयोग किया गया है उससे सम्बंधित हर वो पुर्जा जिसे इस संकट में जागरूक और सावधान रहना है वो ‘वयं’ शब्द का अर्थ है। कुल मिलाकर वयं = We the People of India।
इन सब पुर्जों में से अधिकांश ठीक काम कर रहे हैं। लेकिन एक-दो पुर्जों में काफी समस्या है। उन्होंने इस ‘वयं’ में भी एक और ‘वयं’ का वहम पैदा कर लिया है। इससे पूरे राष्ट्र के एक इकाई के रूप में किए जा रहे प्रयासों पर पानी फिर जाता है। बांद्रा जैसी संकुल जगह पर हजारों लोग इकट्ठे होकर जब राष्ट्र के प्रयासों को गरियाते हैं तो इसे शायद ‘जा गरियाम’ तो कह सकते हैं, मगर ‘जागृयाम’ नहीं। जागृयाम का अर्थ है जागरूक होना।
मुरादाबाद की शर्मनाक घटना इंसानियत के दायरे से बिल्कुल बाहर की चीज़ है और उससे भी अधिक शर्मनाक है ऐसी चीजों पर की जाने वाली राजनीति। ऐसी घटनाएं देश में कई स्थानों पर घट चुकी हैं, जिसकी वजह से अनेक जीवन खतरे में हैं। जीवन शब्द संस्कृत की मूल धातु ‘जीव प्राणने’ से बनता है, इस तरह जीवन का अर्थ हुआ श्वास लेना।
कोरोना व्यक्ति की श्वास को बंद कर देता है, जिसका मतलब है रोगी का जीवन ख़त्म हो जाना। डॉक्टर्स का धर्म यही है कि वो हमारी यानी इंसान की श्वास को ठीक से चलने दें। जब वो अपने इस मानव धर्म का पालन करने आते हैं तो कुछ दानवधर्मा जिनका वास्तविक धर्म जियो और जीने दो की बजाय मरो और मारो है, उन पर पत्थर फेंकने लगते हैं।
हममें से कुछ को ताज्जुब होता है कि इतने पत्थर आते कहां से हैं? दरअसल उनका भण्डारण ऐसी जगह पर किया गया है कि वहां से जितने और जब चाहे पत्थर पैदा कर लो। ये उनके दिमागों में भरे हुए हैं।
बहुत-से लोगों को लगता है कि ये बच्चों की नादानी है, कुछ भटके हुए बच्चे हैं, चलो मान लेते हैं कि ऐसा ही है। लेकिन अगर आपके बच्चे की नादानी नागवार गुजरे तो क्या आप उसे रोकेंगे नहीं? जिन्हें सचमुच ये लगता है कि ये उनके बच्चे हैं उन्हें उनके प्रति अपना अभिभावकत्व तो निभाना ही चाहिए। जो अभिभावक अपने बच्चों को गलत रास्ते पर जाने से नहीं रोकते उनको अक्सर दूसरों की गालियाँ सुननी पड़ती हैं।
ये दुनिया का रिवाज़ है। जिनके बच्चे उनके वश में नहीं होते उनका किसी को तो इलाज करना ही पडेगा। ऐसे में जब कानून अपना काम करता है या लोग उनकी आलोचना करते हैं तो आपको विरोध का कोई अधिकार नहीं है।
एक और बात, अगर आप कहीं सर्कस देखने जाएँ जहां आप आराम से बैठकर करतबों का मज़ा ले रहे हों वहां अचानक जोकर्स आकर आप पर पत्थर फेंकने लगें, आपकी आँख-नाक से खून बहाने लगे तो आपको कैसा लगेगा? क्या आप उन्हें ये सोचकर माफ़ कर देंगे कि चलो ये तो जोकर हैं, इनका क्या बुरा मानना? हरगिज़ नहीं। अत: हे सलमान भ्रात:! आप इन्हें जोकर कहकर जोकर्स का अपमान न करें। जोकर का काम है लोगों को हँसाना और खुश करना, उन्हें जख्मी करना या जान से मारना नहीं।
अपने वक्तव्य में प्रधानमंत्री ने देशवासियों से राष्ट्रीय हितों के प्रति जागरूक होने का आह्वान किया था, किन्तु कुछ लोगों की एक और समस्या है। वो राष्ट्र और राष्ट्रवाद शब्द से ही नफ़रत करते हैं। उनकी दृष्टि में राष्ट्रवाद एक विभाजनकारी वस्तु है, जबकि वास्तविकता ये है कि राष्ट्र शब्द चाहे देश का द्योतक हो या राज्यसत्ता का दोनों ही अर्थों में जाति-वर्ग से परे सभी नागरिकों का समावेशी है।
राष्ट्रवाद जिस राष्ट्र को सर्वोपरि रखने का आग्रही है वो जब सबके लिए और सबके द्वारा है तो फिर विभाजन कैसा? राष्ट्र मतलब एक संप्रभु राज्य। असली समस्या अक्सर चीजों के राजनैतिक दुरूपयोग से पैदा होती है। राजनीतिकरण की स्थिति में राष्ट्रवाद तो छोडिए धर्मनिरपेक्षता जैसी निरापद और संवैधानिक चीज़ भी संकुचित हो जाती है। स्वार्थी मंशा और महत्वाकांक्षा को बाहर निकाल दें तो राष्ट्रवाद एक उत्तम अस्तित्व बोधक चीज़ है।
राष्ट्र शब्द का एक और अर्थ है- कोई राष्ट्रीय या सार्वजनिक संकट। तब ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम’ का एक और अर्थ होगा- राष्ट्रीय संकट की इस वेला में हम सब जागरूक बनें। कोरोना के इस संकट में सबसे बड़ी जागरूकता यही है कि सामाजिक दूरी बनाए रखें। कुछ राष्ट्र विरोधी और मानवता विरोधी तत्वों के बहकावे में आकर बड़ी संख्या में एकत्रित होने का पागलपन न करें। Isane और इंसान के बीच के फर्क को समझें।
आपने अक्सर कुछ लोगों को चिड़चिड़ा कर कहते सुना होगा कि ये मच्छर हमेशा कान पर आकर ही क्यों बोलते हैं। बोलते तो हर जगह हैं लेकिन सुनाई सिर्फ कानों को देता है। और जब कान को सुनाई दे जाता है तो कान अपने आप को मच्छर से बचा भी लेता है। पाँव को सुनाई नहीं देता तो वो कोई बचाव भी नहीं करता और मच्छर उसे काट लेता है। बस ऐसा ही कोरोना के बारे में है, जो इसके खतरे पर गौर करेंगे वो बच जाएंगे, जो इसकी गंभीरता को नहीं समझेंगे वो बचाव नहीं करेंगे और कोरोना उन्हें काट लेगा।
कोरोना काल में हमारी लापरवाहियाँ राष्ट्र के उन जागरूक सिपाहियों की जिम्मेदारियों को कितना बढ़ा देती हैं जो अपने परिवार और घर से दूर रहकर अस्पतालों में कोरोना का और सड़कों पर हमारी लापरवाहियों और बीमार मानसिकताओं का इलाज कर रहे हैं। गाँवों में एक कहावत है- ‘अंधे की मक्खी राम उड़ावै’।
बस ये वही राम हैं जो कहीं डॉक्टर्स के रूप में तो कहीं सुरक्षाकर्मियों के रूप में खुली आँख वाले अंधों की मक्खियाँ उड़ाने में दिन-रात लगे हुए हैं। ये वास्तव में ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम’ की भावना के सच्चे निदर्शन हैं। इसलिए जब वो आपकी मक्खियाँ उडाएं तो उनके साथ बुरा बर्ताव न करें, उन पर पत्थर न फेंकें बल्कि धन्यवाद करें अन्यथा जो शास्त्र जागरूक बनाने की सलाह देते हैं या जो संविधान कर्तव्यों की प्रेरणा देता है वही उसके उल्लंघन पर कुछ दूसरे उपचार भी सुझाता है।
कहीं ऐसा न हो कि राष्ट्र के नाम अगले संबोधन में मोदी जी किसी ऐसी सूक्ति का पाठ कर दें- ‘दण्ड: शास्ति प्रजा: सर्वा:’ अर्थात् दंड सारी प्रजा को अनुशासित रखता है। इस ‘सर्वा:’ में उन सबका भी ग्रहण हो जाता है जिन्होंने खुद को खुदा समझकर ‘वयं’ से बाहर मान रखा था। अंधे की मक्खी राम उडावै ये तो ठीक है लेकिन जो अंधे होने का नाटक कर रहे हैं उनकी मक्खियाँ तो डंडे से ही उडानी होंगी।
अंतत: यही आशा और ईश्वर से प्रार्थना कि राष्ट्रीय एकता के संकल्पों का नाभिकीय संलयन देश में जागरूकता की अपार ऊर्जा पैदा करे।