23 नवंबर 2024 को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद एकनाथ शिंदे के रूठने-मानने के जो दिन शुरू हुए थे, उस पर अब पूर्ण विराम लग गया है। तय हो गया है कि बीजेपी नेता देवेंद्र सरिता गंगाधर राव फडणवीस (Devendra Fadnavis) 5 दिसंबर 2019 को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर एक बार फिर शपथ लेंगे। पिछले 10 साल में यह तीसरा मौका होगा जब फडणवीस मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेंगे।
मुंबई से प्रकाशित हिंदी दैनिक ‘महानगर’ के संपादक आदित्य दुबे का कहना है कि फडणवीस आज महाराष्ट्र की राजनीति के सबसे बड़े रणनीतिकार हैं। उन्होंने ऑपइंडिया से बातचीत में कहा, “शरद पवार अब तक महाराष्ट्र की राजनीति के सबसे बड़े खिलाड़ी माने जाते थे। सब उन्हें बड़ा रणनीतिकार मानते थे। लेकिन अब सबसे बड़े खिलाड़ी देवेंद्र फडणवीस हैं।”
खुद को ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’ के तौर पर फडणवीस ने 10 साल के भीतर ही स्थापित किया है। 2014 से पहले महाराष्ट्र के बाहर कम ही लोग उनका नाम जानते थे। हालाँकि वे विधायक 2009 में ही बन गए थे। उससे पहले उस नागपुर के मेयर भी रह चुके थे, जहाँ बीजेपी की वैचारिक गुरुकुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का मुख्यालय भी है।
प्रमोद महाजन की हत्या के बाद बीजेपी में महाराष्ट्र के जिन नेताओं का जलवा रहा उनमें एक नागपुर से ही आने वाले नितिन गडकरी हैं। दूसरे गोपीनाथ मुंडे थे जिनकी 2014 में केंद्र में पार्टी की सरकार बनने के बाद सड़क हादसे में मृत्यु हो गई।
2014 के आम चुनावों से पहले मैं पत्रकारिता करने के लिए इंदौर से मुंबई पहुँचा था। पहली बार फडणवीस का नाम मैंने भी तभी सुना। हालाँकि इस नाम की धमक मुझे लोकसभा चुनावों के बाद महसूस हुई। 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले एक नारा चला था,
केंद्र में नरेंद्र, महाराष्ट्र में देवेंद्र
शुरुआत में मुंबई में भी कोई इस नारे को गंभीरता से नहीं ले रहा था। इसे फडणवीस के कुछ उत्साही समर्थकों का कैंपेन बताकर खारिज किया जा रहा था। इसका कारण यह था कि तब बाल ठाकरे की पार्टी दो फाड़ नहीं हुई थी। बीजेपी से उसका गठबंधन नहीं टूटा था। महाराष्ट्र में एनडीए के चुनाव जीतने पर मुख्यमंत्री पद शिवसेना को मिलना तय माना जा रहा था।
लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सीटों के बँटवारे पर मतभेद हुआ और 25 साल पुराना शिवसेना-बीजेपी का गठबंधन टूट गया। अचानक से यह नारा राजनीति का केंद्र बन गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद उस चुनाव में बीजेपी का जो चेहरा सबसे अधिक नजर आ रहा था, वह देवेंद्र फडणवीस का ही था।
नतीजे आए तो बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। लेकिन सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल नहीं कर सकी। चुनाव के करीब तीन महीने बाद शिवसेना ने महाराष्ट्र में पहली बार बीजेपी की सदारत कबूल कर ली और देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में एनडीए की उस सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा भी किया। फडणवीस की बतौर रणनीतिकार यह चुनाव पहली परीक्षा थी। इस परीक्षा में वे केवल पास ही नहीं हुए, शिवसेना को ‘छोटा भाई’ बनाकर उन्होंने खुद को स्थापित भी किया।
2019 के विधानसभा चुनावों के बाद उद्धव ठाकरे के मन में दबी आकांक्षाएँ जिस तरीके से प्रस्फुटित हुई, उसे पूरा करने के लिए जिस तरह उन्होंने कॉन्ग्रेस की गोद में भी बैठने से संकोच नहीं किया, जिस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने उस हिंदुत्व की विचारधारा तक की तिलांजलि दे दी जो बाल ठाकरे और शिवसेना की पूँजी थी, उससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि फडणवीस का राजनीतिक-रणनीतिक कौशल किस आला दर्जे का होगा कि शिवसेना उनके पहले कार्यकाल में पिछलग्गू बनकर चलती रही।
बावजूद फडणवीस को वह श्रेय नहीं मिला जिसके वे अधिकारी थे। महाराष्ट्र की सारी सफलताएँ उसी तरीके से नरेंद्र मोदी के मुकुट में जोड़ दी गईं, जैसे देश के अन्य हिस्सों में बीजेपी के उद्भव को जोड़ा गया। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद जब अजित पवार के साथ रातोंरात सरकार बनाने का दाँव फेल हो गया, उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में एनसीपी-कॉन्ग्रेस वाली महाअघाड़ी ने सरकार बना ली तो फडणवीस के इस कौशल का खूब मजाक भी बना।
इतना ही नहीं कई मौकों पर उनको उनकी पत्नी की रील के लिए भी ट्रोल किया गया। पर फडणवीस इन बाधाओं से टूटे नहीं। वे एक-एक रणनीतिक चाल चलते रहे। फिर आया जून 2022 का वह महीना जब उद्धव की शिवसेना टूट गई। एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बने। उस समय भी जब देवेंद्र फडणवीस को उपमुख्यमंत्री बनकर उनकी कैबिनेट में शामिल होना पड़ा तो बीजेपी का भी एक धड़ा उनके राजनीतिक अवसान की कहानियाँ गढ़ने लगा।
पर 2024 का नवंबर बीतते-बीतते फडणवीस ने ऐसी सारी कहानियों को अकेले दम पर ढाह दिया। अपनी उस भविष्यवाणी को सही साबित कर दिखाया जिसमें उन्होंने अपने इस्तीफे के बाद कहा था;
मेरा पानी उतरता देख, मेरे किनारे पर घर मत बसा लेना, मैं समंदर हूँ, लौटकर वापस आऊँगा
2024 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने महाराष्ट्र ने अपनी सबसे बड़ी जीत दर्ज की है। पार्टी जिन 149 सीटों पर लड़ी, उनमें से 132 पर वह जीती। 89 प्रतिशत के स्ट्राइक रेट से। वह भी उस लोकसभा चुनाव के करीब 4 महीने बाद ही, जिसमें महाराष्ट्र में महायुति का आधार तक खिसक चुका था।
विधानसभा चुनाव के नतीजों का संदेश भले यह था कि बहुमत से 13 सीट दूर खड़ी बीजेपी ही अगली सरकार का नेतृत्व करें। लेकिन कुछ दुविधा भी थी। मसलन, 2024 के लोकसभा चुनाव का जो गणित है उससे सहयोगी दलों को साथ लेकर चलना बीजेपी की मजबूरी है। शायद इसी मजबूरी के कारण शिंदे कई दिन तक फैसले को लटकाने में कामयाब रहे।
दूसरा करीब-करीब इसी स्ट्राइक रेट से 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने सफलता हासिल की थी, लेकिन आज भी वह बिहार में नीतीश कुमार की छाया से बाहर नहीं निकल सकी है। तीसरी, पिछले ही साल मध्य प्रदेश और राजस्थान में जीत के बाद भी शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे को बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने मौका नहीं दिया, ऐसी ही अटकलें कुछ लोग देवेंद्र फडणवीस को लेकर भी लगा रहे थे। यहाँ तक कि वर्तमान राजनीतिक हालातों का हवाला देकर कुछ लोग फडणवीस की जाति (ब्राह्मण) को भी उनके मुख्यमंत्री चुने जाने की राह की बाधा के तौर पर प्रचारित कर रहे थे।
4 दिसंबर को जब बीजेपी विधायक दल ने अपना नेता चुना तो इसने साबित कर दिया कि जितने भी कारण विरोध में गिनाए जा रहे थे, सबको फडणवीस ने अपने रणनीतिक कौशल से अपना पक्ष बना लिया। बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व को यह मानना पड़ा कि महाराष्ट्र की जटिल राजनीतिक परिस्थितियों में फडणवीस ही ‘चाणक्य’ हैं।
ऑपइंडिया से बातचीत में दुबे भी इसकी पुष्टि करते हैं। उन्होंने कहा, “भले विधानसभा चुनाव महायुति ने जीता है। लेकिन वोट लोगों ने बीजेपी को देखकर दिया है। देवेंद्र फडणवीस को देखकर दिया है, जिन्होंने राज्य में सबसे ज्यादा रैलियाँ की। पूरी चुनावी कमान उनके ही हाथों में थी। ऐसे में मतदाताओं की भावनाओं के सम्मान के लिए उनको मुख्यमंत्री बनाना जरूरी था।”
उन्होंने बताया कि गठबंधन सरकार होने के कारण भी बीजेपी के लिए एक ऐसा चेहरा चुनना जरूरी था जो एकनाथ शिंदे और अजीत पवार दोनों के साथ समन्वय स्थापित कर चल सके। किसी नए चेहरे के लिए इन दोनों के साथ समीकरण बैठाना आसान नहीं होता। इसके अतिरिक्त लोकसभा चुनाव में हार के बाद जिस तरह से उन्होंने राज्य में पार्टी को फिर से खड़ा किया, जिस तरह से संघ पूरी ताकत के साथ जुटा, यह भी फडणवीस के पक्ष में गया है।
समर्थकों के बीच ‘देवा भाऊ’ के नाम से मशहूर फडणवीस ने पार्टी के प्रति जिस तरीके से समर्पण दिखाया, जैसे एक-एक आदेश (मसलन शिंदे का डिप्टी बनना) का कार्यकर्ता के तौर पर पालन किया है, उसने भी मुंबई से दिल्ली तक पार्टी के भीतर विरोधियों के मौजूद रहने के बाद भी फडणवीस को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भरोसेमंद बनाया है।
इसके अलावा बिहार की उस सीख ने भी बीजेपी के नेतृत्व को फडणवीस को चुनने की प्रेरणा दी होगी जिसे वह आज भी भोग रही है। बिहार में भी कभी बीजेपी ने खुद से स्टीयरिंग नीतीश कुमार को थमाई थी। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों का एक निहितार्थ यह भी था कि भले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार हैं, लेकिन मतदाताओं का मानना था कि राज्य में जो बेहतर बदलाव हुए हैं उसके पीछे की फोर्स बीजेपी ही है।
बीजेपी ने इस निहितार्थ को पढ़ने की कभी कोशिश नहीं की और उसके बाद कई चुनाव हुए बीजेपी 2010 के स्ट्राइक रेट की तरह बिहार में सफलता हासिल नहीं कर पाई। नीतीश के राजनैतिक (कु) प्रयोग का दोष उसके भी मत्थे गया। भले पिछले ढाई दशक में बीजेपी ज्यादातर समय बिहार की सत्ता में रही है, लेकिन उसके पास प्रदेश स्तर पर कोई भी ऐसा नेता नहीं जो अपने दम पर पार्टी को चुनाव जीता सके। यदि आज बीजेपी महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस को नहीं चुनने या एकनाथ शिंदे का पिछलग्गू बने रहने का ही भूल करती तो आने वाले वर्षों में उसे महाराष्ट्र में भी इसी तरह के संकट से जूझना पड़ सकता था।
अब बीजेपी ने तय कर दिया है कि जब भी उसकी दूसरी पीढ़ी के नेताओं की गिनती होगी तो वह योगी आदित्यनाथ, हिमंता बिस्वा सरमा के साथ-साथ देवेंद्र फडणवीस का नाम लेने के बाद ही पूर्ण होगी।