जब से पत्रकारिता की तरफ रुख़ किया है, तबसे महिला पत्रकारों में सागरिका घोष और बरखा दत्त दो ऐसे नाम रहे हैं, जिन्हें हर दूसरे शख़्स के मुँह से मैंने सुना और जाना है। क्लास में टीचर के लेक्चर से लेकर सोशल मीडिया की टाइमलाइन पर आप लोगों के बारे में जब भी पढ़ने का मौक़ा मिला तो अपने समय में से समय निकालकर आप लोगों को समय दिया। वर्चुअल स्पेस में आप लोगों की बातचीत और सक्रियता ने ही हमको मौक़ा दिया कि हम आपसे न जुड़ते हुए भी आपसे, और आपकी शैली से, बहुत कुछ सीख सकें। क्योंकि, पता होना चाहिए देश में पितृसत्ता की इतनी कसी जकड़ में भी आप लोग उस मुकाम तक किस जज़्बे को लेकर पहुँची हैं, जहाँ तक जाने के हम सिर्फ़ सपने देख पाते हैं।
मैंने अभी इस मीडिया इंडस्ट्री में कदम रखा है और अभी से कुछ पत्रकारों को पढ़ते-समझते हुए कई बार असहमति की दीवार मानो जैसे मुझे घेर लेती है और फिर मैं कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं दे पाती। आख़िर, जिन्हें हमेशा से पढ़ा और जाना है, उनकी बातों पर सवाल हम जैसे नए लोग कैसे उठा सकते हैं। फिर भी क्या आप लोगों को कभी नहीं लगता कि हम बतौर पत्रकार सही दिशा में जाने की जगह कहाँ पर जा रहे हैं और इसका प्रभाव हम जैसों नए लोगों पर क्या पडे़गा जो अभी अपनी शुरूआत ही कर रहे हैं?
मैं छोटे स्तर पर रहकर सोशल मीडिया पर चल रही धार्मिक, राजनैतिक लड़ाईयों से तंग आ जाती हूँ, बहुत समय तक मैं सोशल मीडिया से ही दूर रही सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मुझे अपने आस-पास के लोगों को जीना था, न कि सोशल मीडिया पर पसरे ज़हर को अपने भीतर उतारकर उनसे बहसों में उलझना था।
मैं अभी नई हूँ, इसलिए ज़्यादा सवाल करना नहीं सीख पाई और न ही मैं अभी पूर्णत: अपने भीतर नारीवाद की आग को जला पाई हूँ, शायद इसलिए असहमति की दीवार मुझे हमेशा काली दिखती है।
बरखा दत्त द्वारा उठाया गया सबरीमाला विवाद हाल ही के मामलों में शामिल है। इस मामले को पीरियड्स से जोड़कर देखने वालों को सिर्फ़ अपना अधिकार दिख रहा है। उसके लिए चाहे वो पीरियड्स की उलाहनाएँ देते हुए ही पूरे प्रबंधन को कोसें। लेकिन, न जानें क्यों किसी को उस मंदिर में विराजमान अयप्पा भगवान द्वारा लिया ब्रहमचर्य का वो प्रण नहीं दिख रहा है, जिसकी वजह से सालों से उनकी आराधना एक तय तरीक़े से होती रही है। धर्म को आधार और श्रद्धा को भाव मानने वाले लोग इतने मतलबी कैसे हो सकते है कि अपनी अधिकारों की लड़ाई में वो किसी और के प्रण को तोड़ने पर ही आमादा हो जाएँ। अगर हमारे हिंदू धर्म में वाकई पीरियड्स को अछूत होने की दिशा में देखा जाता, तो देश के सबसे बड़े मंदिरों में से एक कामाख्या मंदिर में रजस्वला होती देवी की पूजा क्यों की जाती?
ये बेहद शर्मनाक स्थिति है हमारे उस समाज की, कि हम आज नारीवाद के मामले में सिर्फ़ योनि से संबंधित बातों को ही करके अपनी छवि को बूस्ट कर पाते हैं, क्या हम थोड़ा सीधा होकर अपनी बात या रिपोर्ट नहीं कर सकते थे? लेकिन हाँ मैं समझती हूँ कि अगर सीधी तरीके से बातें होने लगीं तो मिर्च-मसाला टूथपेस्ट की ट्यूब में ही रह जाएगा।
बातों को किस तरह घुमाया जाता है वो तो ज़्यादा नहीं मालूम मुझे, लेकिन मैं लगातार कुछ आप जैसे कुछ लोगों को फ़ॉलो कर रही हूँ, बहुत दूर नहीं भी जा पाई तो आप जैसों तक थोड़ा तो पहुँच ही जाऊँगी।
इसके बाद एक बेहद मामूली-सा उदहारण है कि सागरिका घोष ने हाल ही में एक ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने बॉलीवुड की स्थिति को और मिडिया की स्थिति को एक जैसा ही बताया है। साथ ही, उनका ये भी कहना भी रहा कि सरकार का फ़िल्म इंडस्ट्री पर जो नियंत्रण है वो बेहद अनौपचारिक और अत्यधिक है। हालाँकि, इस ‘नियंत्रण’ पर कुछ साक्ष्य या तर्क के साथ उन्होंने कहीं कुछ लिखा हो, मुझे नहीं पता। उनका मानना है जैसे कुछ पत्रकार ‘भक्त’ हैं वैसे ही कुछ कलाकार भी ‘भक्त’ हैं। अब समझ नहीं आता मैं पहले ‘भक्त’ होने की परिभाषा नेट पर सर्च करूँ या फिर उनके इस को ट्वीट को समझने में अपनी पूरी मानसिक शक्ति लगाऊँ!
Bollywood is like media, free in name only. Govt control over the film industry is informal and immense. Like bhakt journalists we have bhakt movie stars. Meryl Streep? Robert De Niro? Not in India ! That’s why I argue to push back the Big State https://t.co/9fdfgE3EDs
— Sagarika Ghose (@sagarikaghose) January 11, 2019
मैं नई धरातल पर आकर इतना समझ पा रही हूँ कि किसी के साथ सेल्फ़ी लेना हमें उसका भक्त नहीं बना सकता है, लेकिन आप इतनी बड़ी गलती कैसे कर रही हैं? अगर सिर्फ़ सेल्फ़ी लेने से और अपना झुकाव दिखाने से कोई भक्त हो जाता है, तो लालू प्रसाद के साथ ली आपकी सेल्फ़ी, जो बेहद ख़ूबसूरत है, उससे हम नए लोग क्या समझें?
मेरे जैसे नसमझ तो इसको यही समझेंगे कि अगर मोदी के साथ एक तस्वीर लेना भक्त हो जाने की परिभाषा है तो लालू प्रसाद संग ली गई तस्वीरों का मतलब यह है कि लालू द्वारा किए गए ‘शुभ कार्यों’ में सागरिका की भी भागीदारी रही होगी या उनसे प्रभावित होकर वो भी अपने क्षेत्र में लालू के तौर तरीकों को अपनाने लगी होंगीं।
मैं उम्मीद करती हूँ जिस तरह महज़ एक सेल्फ़ी पर सागरिका ने बॉलीवुड के सितारों को भक्त कह दिया, उन्हें किसी ने ‘लालू की लाली’ न कहा हो। नवाज़ शरीफ के साथ खिंचाई तस्वीर को देखकर क्या यह समझ लिया जाए कि आप पाकिस्तान की तरफ से हिंदुस्तान पर हँस रही हैं।?
ये बातें महज़ समझने वाली बातें हैं कि प्रधानमंत्री मोदी देश की सबसे ऊँचे पद पर है अगर कोई उनके साथ सेल्फ़ी लेकर पोस्ट करता है, तो ये आत्मीयता का भाव भी हो सकता है, या भविष्य में याद करने के लिए एक स्मृति कि हम देश के प्रधानमंत्री से मिले थे। आज के दौर में सेल्फ़ी लेना बहुत आम बात है। भक्त शब्द की परिभाषा बहुत गहरी है। आप किसी भी संदर्भ में इसका प्रयोग करके न सिर्फ़ अपनी साख हम जैसों की नज़रों में धूमिल कर रही है बल्कि भारत के सांस्कृतिक शब्दों से भी छेड़-छाड़ कर रही हैं।
आप जैसे पत्रकारों को लेकर जो हमारे भीतर सीखने की ललक है उसे बने रहने दीजिए। आपके इन सर्कास्टिक प्रयोगों से ऐसा लगता है कि अगर किसी के पास सोशल मीडिया पर उसके पाठक पहले से तैयार हों, तो वो भारी तादाद में नागरिकों को देश के प्रति भड़का और बरगला सकते हैं। अपनी विचारधारा में सनी हुई सोच से हर बात को जेनरलाइज़ करते हुए कुछ भी मत परोसिए, प्रतिक्रिया से समस्या नहीं है, जेनेरलाइज़शन से है। हम जैसे नए लोगों का भी ख्याल रखें, जो क्लासरूम से पत्रकारिता में नैतिकता वाला पाठ पढ़कर निकलते हैं, व्यवहारिकता में वही सच्चाई दिखाने का सपना देखते हैं, न कि किसी के साथ मानसिकता के साथ खेलने का!
ऐसा मत करिए! मेरा और मेरे जैसों के विश्वास को बने रहने दीजिए…