राजनीति से तेज़ किसी खेल, किसी फॉर्मेट में गेम पलटता है तो वो केवल क्रिकेट का T-20 है। बाकी राजनीति जिस गति से रंग बदलती हैं उसका कहीं कोई मुकाबला नहीं है। कल शाम तक खट्टर की सत्ता खटाई में थी और दुष्यंत चौटाला किंग और किंगमेकर के बीच अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो करते लग रहे थे। फिर निर्दलीय विधायकों रणजीत सिंह चौटाला और गोपाल कांडा ने क्रमशः कल (24-25 अक्टूबर, 2019) देर रात और आज (25 अक्टूबर, 2019 को) सुबह पलटी मारी, तो खट्टर की सरकार से खतरा हटता दिख रहा है।
कुछ ही घंटे पहले तक ऐसा ही हाल महाराष्ट्र में था। भाजपा खुद बहुमत के लिए ज़रूरी 145 सीटों में से 105 पा कर दम तोड़ चुकी है। कॉन्ग्रेस और राष्ट्रवादी कॉन्ग्रेस पार्टी (राकांपा) दोनों के ही साथ उसके गठबंधन का सवाल पैदा ही नहीं होता (बावजूद इसके कि एनसीपी प्रमुख शरद पवार को मोदी ने 2017 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया था)। अगर किसी चमत्कार से असदुद्दीन ओवैसी के 2 विधायक, सपा के दो और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का एक विधायक दल बदल कर उसके साथ आ भी जाएँ तो भी वह पूरे ‘अन्य’ के साथ भी 134 पर दम तोड़ देती। यानि उसके दोस्त और दुश्मन, “बड़ा भाई कौन, छोटा भाई कौन” में उलझी बाला साहेब ठाकरे से उद्धव के हाथ में आई शिव सेना अहम थी।
इतनी अहम कि विधानसभा में एक तिहाई से अधिक सीटें अकेले लाने वाली भाजपा को किनारे कर उद्धव ठाकरे अपने बेटे आदित्य ठाकरे के लिए सियासत की ‘ओपनिंग’ ही मुख्यमंत्री पद से करवाने के बारे में सोचने लगे (मीडिया की खबरों के अनुसार)।
समीकरण यह था कि अगर भाजपा को सत्ता से बाहर रखना ही ध्येय है तो शिव सेना के 56, कॉन्ग्रेस के 44 और एनसीपी के 54 विधायकों की सरकार आराम से बहुमत के लिए ज़रूरी 145 के सामने 154 खड़े कर सकती है। इसी उम्मीद को कल्पित करते ही पूरा हुआ समझ कर शिव सेना प्रमुख ने राजग में रहते हुए ही ऐसा सम्पादकीय छाप डाला जैसे किसी विरोधी खेमे के नेता को गरिया रहे हों।
सामना के मुताबिक यह जनादेश कोई “महा जनादेश” नहीं है। यह उनके लिए सबक है जो “सत्ता की मद में चूर” हैं। सामना में शिव सेना ने यह भी कहा है कि इस जनादेश ने वह ग़लतफ़हमी भी दूर कर दी कि चुनाव जीतने का रास्ता दल बदल की इंजीनियरिंग करना और विपक्षी पार्टियों को तोड़ना है। यही नहीं, तस्वीर पूरी तरह साफ़ होने के पहले ही आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने के नारे भी शिव सैनिक लगाने लगे।
अगर उद्धव उतनी दूर न भी जाते तो भी वे कम से कम भाजपा से समर्थन का तगड़ा मूल्य वसूलने की स्थिति में तो थे ही। उन्होंने 50-50 फॉर्मूले की बात करनी शुरू कर दी- यानि आधे समय भाजपा का सीएम, बाकी आधे समय शिव सेना का। चूँकि शिव सेना के पास कम लेकिन अहम संख्या थी, इसलिए ज़ाहिर तौर पर वह पहले अपना नंबर लगाती कुर्सी पर।
घबराए फडणवीस ने भी शिव सेना पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए पार्टी छोड़ कर गए नाराज़ बागियों को मनाने की कवायद शुरू कर दी थी। हालाँकि, कल ही मोदी ने उन्हें 5 साल का कार्यकाल पूरा कर चुनाव में जाने और फिर जीत कर आने वाले पहले मराठी सीएम होने की बधाई देते हुए एक तरह से ठाकरे को बता दिया था कि वे झुकेंगे नहीं, लेकिन यह साफ़ है कि फडणवीस अपनी ओर से हाथ पैर मारने में कोई कोताही नहीं रहने देना चाहते थे।
और इसी बीच भाजपा के तारणहार बनकर आए शरद ‘राव’ पवार। और उन्होंने अपनी पार्टी के सरकार बनाने की कोशिश की अटकलों से इंकार कर दिया।
Sharad Pawar, Nationalist Congress Party (NCP) President, in Baramati: Our role is, that people have given us the opportunity to sit in the Opposition and not form the govt. We will carry out our work efficiently. #Maharashtra pic.twitter.com/Tyrubj6ghJ
— ANI (@ANI) October 25, 2019
और इसी के साथ शिव सेना के भाजपा के बिना सरकार बनाने की उम्मीदें स्वाहा हो गईं हैं- और उसके पास भाजपा के पास ‘लौट के बुद्धू घर को आए’ के अलावा कोई और चारा ही नहीं बचा है। 54 विधायकों पर पकड़ के साथ वे ठाकरे परिवार की उम्मीदों की धुरी थे। अब जब उन्होंने भी मना कर दिया तो भाजपा के बिना किसी और की सरकार बन ही नहीं सकती।
वैसे तो वे शिव सेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे के मित्र भी हैं, लेकिन जैसा कि उन्हें दो साल पहले ही एहतियातन पद्म विभूषण देने वाले मोदी ने उनके गढ़ सतारा की रैली में हफ्ते भर ही पहले कहा था, “शरद ‘राव’ शरद ‘राव’ हैं, वे हवा का रुख पहचानते हैं।” उद्धव ठाकरे को भी इतनी बयानबाजी के पहले हवा का रुख पहचानना सीखना चाहिए।