Friday, November 22, 2024
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‘हिन्दू धर्म ही सम्पूर्ण विश्व का धर्म बन सकता है, अन्य धर्म व्यक्ति विशेष के जीवन-आधार पर खड़े… उनमें तत्व की कमी’

''हमारे धर्म के सिवा दुनिया के सभी धर्म, व्यक्ति विशेष या धर्म-संस्थापक के जीवन के आधार पर खड़े हैं। यदि उनके जीवन की ऐतिहासिकता पर आघात लगे और उसकी नींव हिल जाए तो उस पर खड़ा धर्म का सम्पूर्ण भवन गिर पड़ता है, अस्तित्व खो देता है।''

आज पूरा राष्ट्र स्वामी विवेकानंद की 158वीं जयंती ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के तौर पर मना रहा है। 12 जनवरी 1863 को बंगाल के कलकत्ता में माता भुवनेश्वरी देवी और पिता विश्वनाथ दत्त के घर जन्में नरेंद्रनाथ दत्त जो बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए, मात्र 39 वर्ष 5 महीने और 24 दिन के जीवन में, अगर उन्हीं के शब्दों में कहूँ तो 1500 वर्ष का कार्य कर गए।

स्वामी विवेकानंद को अनेक कार्यों के लिए जाना जाता है। लेकिन अगर एक कार्य जो उन्होंने जीवन भर अनेकों कष्ट, कठिनाइयों को सहते हुए भी किया, तो वह है नि:स्वार्थ भाव से अपने राष्ट्र ‘भारत’ और अपनी संस्कृति से अत्यंत स्नेह और प्रेम। भारतवासियों में आत्मविश्वास जगाने का कार्य स्वामीजी जीवन भर करते रहे क्योंकि उनको स्पष्ट था कि बिना आत्मविश्वास के, बिना चरित्र निर्माण के, बिना मनुष्य निर्माण के आत्मनिर्भर बनना संभव नहीं है।

मनुष्य निर्माण के कार्य में अपना जीवन समर्पित करने वाले स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व और चरित्र का लोहा भारत ने ही नहीं बल्कि पूरे विश्व ने 11 सितंबर, 1893 को अमेरिका के शहर शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में माना, जब स्वामी विवेकानंद स्वागत का उत्तर देने के लिए खड़े होते हैं और अपने मात्र पाँच शब्दों से “अमेरिकावासी बहनों तथा भाइयों” से भारत को विश्व विजयी बना देते हैं। सामने बैठे विश्व भर से आए हुए लगभग 7 हज़ार लोग दो मिनट से ज्यादा समय तक तालियाँ बजाते रहते हैं।

प्रो. शैलेन्द्रनाथ धर द्वारा लिखित पुस्तक “स्वामी विवेकानंद समग्र जीवन दर्शन” के अनुसार विश्व धर्म महासभा में दुनिया भर के दस प्रमुख धर्मों के अनेक प्रतिनिधि आए हुए थे, जिसमें यहूदी, हिन्दू, इस्लाम, बौद्ध, ताओ, कनफयूशियम, शिन्तो, पारसी, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट इत्यादि शामिल थे, लेकिन स्वामीजी का वक्तव्य सबसे अधिक सफल हुआ था, जो हमें धर्म महासभा के सामान्य समिति के अध्यक्ष डॉक्टर जेएच बैरोज के शब्दों से पता लगता है।

उन्होंने कहा था, “स्वामी विवेकानंद ने अपने श्रोताओं पर अद्भुत प्रभाव डाला” और मरविन-मेरी स्नेल महासभा की विज्ञान सभा के अध्यक्ष थे, वो लिखते हैं- “निःसंदेह स्वामी विवेकानन्द धर्म महासभा के सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। कट्टर से कट्टर ईसाई भी उनके बारे में कहते हैं कि वे मनुष्य में महाराज हैं।”

विश्व धर्म महासभा के बाद स्वामीजी का अमेरिका के अनेक प्रांतो में, इंग्लैंड में और यूरोप के अनेक देशों में प्रवास हुआ। सभी धर्मों और पंथों के लोगों और धर्म उपदेशकों के साथ अपने प्रत्यक्ष अनुभव के बाद स्वामी विवेकानंद उद्घोष करते हैं, ”वेदांत – सिर्फ वेदांत को ही सार्वजनीन मानता हूँ। वेदांत के सिवा कोई अन्य धर्म सार्वजनीन नहीं कहला सकता।”

आज के तमिलनाडु प्रान्त के एक नगर कुम्भकोणम में दिए हुए अपने भाषण ”वेदांत का उद्देश्य” में स्वामीजी कहते हैं:

”हमारे धर्म के सिवा दुनिया के सभी धर्म, सब किसी न किसी व्यक्ति विशेष या धर्म-संस्थापक के जीवन के आधार पर ही खड़े हैं और उसी से वे अपने आदेश, प्रमाण और शक्ति ग्रहण करते हैं। आश्चर्य तो यह है कि उसी अधिष्ठाता-विशेष के जीवन की ऐतिहासिकता पर ही उन धर्मों की सारी नींव प्रतिष्ठित हैं। यदि किसी तरह उनके जीवन की ऐतिहासिकता पर आघात लगे और उसकी नींव हिल जाए या ध्वस्त हो जाए तो उस पर खड़ा धर्म का सम्पूर्ण भवन भरभराकर गिर पड़ता है और सदा के लिए अपना अस्तित्व खो देता है।”

स्वामीजी के अनुसार हिन्दू धर्म के सिवा संसार के अन्य सभी धर्म ऐतिहासिक जीवनियों के आधार पर खड़े हैं। परन्तु हिन्दू धर्म कुछ तत्वों की नींव पर खड़ा है। स्वामीजी कहते हैं, ”पृथ्वी पर कोई भी व्यक्ति – स्त्री हो या पुरुष, वेदों के निर्माण करने का दम नहीं भर सकता है।” इसीलिए हमारा धर्म किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं करता, यहाँ तो अनेकों ऋषि-ऋषिकाओं ने और महापुषों ने जन्म लिया है और आगे भी लेते रहेंगे।

स्वामीजी के अनुसार, “हिन्दू धर्म इसलिए भी सत्य है कि उसकी सर्वोच्च शिक्षा है त्याग और युगों के अनुभव से प्राप्त अगाध विज्ञान। बाकि जातियाँ (धर्म) इन्द्रिय-जनित सुखों के गुलाम, भोग-विलास की लालसा और संसार की माया में लिपटे हैं। हम हिन्दुओं की तुलना में वह अभी दुधमुँहे बच्चे के बराबर हैं। त्याग से ही मनुष्य अभीष्ट तक पहुँच सकता है, भोग-विलास द्वारा नहीं। इसीलिए हमारा धर्म ही सच्चा धर्म है। स्वामीजी यह भी कहते हैं कि दुनिया में अनेकों राष्ट्र बने और विलीन हो गए, अनेकों सभ्यताओं ने जन्म लिया और आज उनका नामों-निशान नहीं हैं लेकिन हम यहाँ इस तरह से जीवित हैं, मानो हमारा जीवन अनंत है।

पाश्चात्य देश वाले ”बलिष्ट की अतिजीविता (Survival of the fittest)” के सिद्धांत पर बहुत लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं। उनके अनुसार जिसकी भुजाओं में सबसे अधिक बल है, वही अधिक जीवित रहेगा। किंतु हमारी हिन्दू जाति ने कभी किसी जाति या राष्ट्र को पराजित नहीं किया लेकिन फिर भी हम करोड़ों हिन्दू जीवित हैं।

स्वामीजी मद्रास के अपने अंतिम व्याख्यान ”भारत का भविष्य” में बताते हैं कि विदेशी आक्रांताओ ने हमारे अनेकों मंदिर तोड़े लेकिन मंदिर के कलश फिर खड़े हो गए। दक्षिण के कुछ मंदिर और गुजरात के सोमनाथ जैसे मंदिर हमें विपुल ज्ञान प्रदान करेंगे। पता नहीं कितने सैकड़ों बार यह तोड़े गए आक्रांताओ द्वारा और न जाने कितने बार यह पुनः वापस खड़े हो गए। बार-बार नष्ट हुए और बार-बार नवीन जीवन प्राप्त कर अटल रूप से वापस खड़े हो गए। स्वामीजी आगे कहते हैं:

”इस धर्म में ही हमारे राष्ट्र का मन है, हमारे राष्ट्र का जीवन प्रवाह है। इसका अनुसरण करोगे तो यह तुम्हें गौरव की ओर ले जाएगा। इसे छोड़ोगे तो मृत्यु निश्चित है।”

आज अगर हम विश्व भर में देखें तो हमें धर्म के नाम पर अनेकों लड़ाइयाँ दिखती हैं। धर्म को आतंकवाद से जुड़ते हुए भी हमने अनेकों बार देखा है। हर व्यक्ति अपने धर्म या पंथ को श्रेष्ठ बताने में लगा है। इसी बीच विश्व को स्वामीजी के इस विचार को धारण करने की जरूरत है, जो हिन्दू धर्म को इसलिए श्रेष्ठ और दुनिया का धर्म बनने का माद्दा रखने वाला नहीं बताते हैं क्योंकि वह सबसे श्रेष्ठ है, बल्कि इसलिए क्योंकि हिन्दू धर्म में सबसे ज़्यादा स्वीकार्यता है।

हिन्दू धर्म सभी धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करता बल्कि, सभी धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करता है। इसीलिए हिन्दू जाति सैकड़ों सदियों से कहते और जीवन में उतारते हुए आ रहे हैं – एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं (”ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 164वें सूक्त की 46वीं ऋचा”) सत्ता केवल एक ही है, ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। इसीलिए सबको मात्र सहने वाला नहीं बल्कि स्वीकार करने वाला हिन्दू धर्म ही विश्व का धर्म बन सकता है।

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nikhilyadav
nikhilyadav
Nikhil Yadav is Presently Prant Yuva Pramukh, Vivekananda Kendra, Uttar Prant. He had obtained Graduation in History (Hons ) from Delhi College Of Arts and Commerce, University of Delhi and Maters in History from Department of History, University of Delhi. He had also obtained COP in Vedic Culture and Heritage from Jawaharlal Nehru University New Delhi.Presently he is a research scholar in School of Social Science JNU ,New Delhi . He coordinates a youth program Young India: Know Thyself which is organized across educational institutions of Delhi, especially Delhi University, Jawaharlal Nehru University (JNU ), and Ambedkar University. He had delivered lectures and given presentations at South Asian University, New Delhi, Various colleges of Delhi University, and Jawaharlal Nehru University among others.

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