महिलाओं को लेकर विश्वव्यापी धारणा है कि महिलाएँ भावनात्मक रूप से, शारीरिक रूप, मानसिक रूप से कमजोर ही होती हैं। वे सामाजिक दायरों को तोड़कर कितना ही खुद को सशक्त बना लें, लेकिन उनको लेकर इस कुत्सित मानसिकता की कोई थाह नहीं दिखती। जैसे-जैसे महिला आगे बढ़ती है, तरह तरह की उलाहनाएँ उसे घेरे रहती हैं। उसपर सवाल खड़े होते रहते हैं। कभी उसे परंपरा के नाम पर चार दिवारी में रखा जाता है, तो कभी अधिकारों का लालच देकर उसे अपनी क्षमता का विस्तार न करने पर बाध्य कर दिया जाता है।
और…शर्म की बात ये है कि इस घृणित काम को करने के पीछे सिर्फ़ रूढिवादी लोग अपना योगदान नहीं देते, बल्कि पढ़े-लिखे लोग भी इसमें खूब हिस्सा लेते है और साथ ही हिस्सा लेता है वो समुदाय जो खुद को महिलाओं को सच्चा हितैषी बताता है। उनके अधिकारों के लिए समय-समय पर आवाज उठाने के दावे करता है… मगर हकीकत में जब महिलाओं को आगे बढ़ता देखता है तो जुट जाता है उन औरतों का हौसला पस्त करने में, उन्हें भड़काने में। ताकि नारी सशक्तिकरण का झंडा उसी ओर उठे, जिस ओर वे उठाना चाहें।
हालिया उदाहरण देखिए। आज रेलवे मंत्रालय ने एक ट्वीट किया। ट्वीट महिला कूलियों से जुड़ा था। ट्वीट में कुछ महिला कूलियों की तस्वीरें थी, जो पुरूष कूलियों की तरह सामान उठाने का, उन्हें गाड़ियों पर खींचने का काम कर रही थीं। मुझे लगता है इससे खूबसूरत तस्वीर आज पूरे दिन भर में क्या ही होगी, रेलवे ने भी अपने ट्वीट में यही लिखा कि महिलाओं ने साबित कर दिया कि वे किसी से किसी मायने में पीछे नहीं हैं। अब आखिर इसमें क्या गलत था? मालूम नहीं, लेकिन लिबरल गिरोह की सशक्त महिलाओं को ये ट्वीट और ये तस्वीरें पसंद नहीं आईं।
उन्होंने महिला कूलियों की तस्वीर देखते ही उनकी हालत पर तरस खाना शुरू कर दिया। और, गिनी-चुनी इन महिला पत्रकारों ने इस तस्वीर के जरिए मोदी सरकार को घेरना शुरू किया। सबसे पहले फाय डियूजा ने इन तस्वीरों को देखकर ह्यूमन लेबर को अपना बिंदु बनाया और अपनी एलिट बुद्धि का प्रमाण देते हुए ह्यूमन लेबर को सशक्तिकरण से परे बताया। साथ ही ये कहा कि ह्यूमन लेबर देश में नौकरी की कमी है, बेरोजगारी हैं, गरीबी को दर्शाता है।
This is an indication of the lack of jobs, unemployment and poverty. Human labour – men or women is not empowering. https://t.co/YxmltrRaaX
— Faye DSouza (@fayedsouza) March 4, 2020
इसके बाद एक पत्रकार हैं- रोहिणी सिंह। रोहिणी ने भी इस तस्वीर को अपने लिए शर्मिंदगी की तरह देखा और ट्विटर पर कहा कि न्यू इंडिया उन्हें हर बीतते दिन के साथ शर्मसार कर रहा हैं। साथ ही शर्मसार कर रहे हैं सरकार के ट्विटर हैंडल जो ऐसी तस्वीरें डालते हैं।
New India shames us more with every passing day. Government twitter handles even more so. https://t.co/mCb7LMbXGG
— Rohini Singh (@rohini_sgh) March 4, 2020
जाहिर है, यहाँ पर फाय डिसूजा और रोहिणी सिंह जैसी क्रांतिकारी पत्रकारों को समझाकर कुछ हासिल नहीं होगा। क्योंकि जिन्हें महिला सशक्तिकरण के नाम पर एसी में बैठना और ऐसी बेफिजूल बातें करना सिखाया गया हो, उनका शारीरिक मेहनत जैसे कामों से क्या सरोकार? उन्हें आखिर क्या मतलब है एक महिला के स्वाभिमान से? उन्हें क्या मालूम कि समानता की बातें सिर्फ़ किताबों में परिभाषा सहित नहीं लिखनी होती, उन्हें व्यवहारिक स्तर पर उतारना पड़ता है, वो भी उदाहरण स्थापित करके, बिलकुल उस तरह जैसे ये महिलाएँ कर रही हैं। कभी उबर ड्राइवर के रूप में तो कभी महिला कूली के रूप में।
यकीन मानिए, मुझे या मेरी जैसी लड़कियों को स्टेशन पर महिला कूली या कार की स्टियरिंग पकड़े उबर चलाती महिलाओं को देखकर हमारे देश के आने वाले भविष्य की चिंता नहीं होती। बल्कि हमें तो खुशी होती है जब हम एक महिला या लड़की को समाज की बनाई उन धारणाओं को तोड़ता देखते हैं, जिन्हें गढ़कर कई कार्यक्षेत्रों को सिर्फ़ पुरुषों के नाम सुपुर्द कर दिए। हमें खुशी होती है ये सोचकर कि जिन महिलाओं ने अपने लिए यहाँ तक का रास्ता तय कर लिया वो अपने दम पर आगे भी बढ़ जाएँगी।
हमें यकीन है कि ये महिलाएँ अपनी ऊर्जा बेफिजूल चिल्लाकर बर्बाद नहीं करती होंगी। इन्हें सरकारी योजना के तहत केवल दियासलाई की लालसा नहीं रहती होगी। ये पारिवारिक आय के लिए सिर्फ़ किसी पुरूष पर आश्रित नहीं रहती होंगी। क्योंकि, ये वो महिलाएँ हैं जो अपनी क्षमताओं का विस्तार स्वयं कर रही हैं और खुद के जीवन को बेहतर बनाने के लिए अपने पीछे संघर्ष की रूप-रेखा तैयार कर रही हैं।
मेरा सवाल फाय डियूजा और रोहिणी सिंह जैसे अनेको लोगों एवं पत्रकारों से है, जिन्हें महिलाओं को बतौर कूली के रूप में देखकर देश की स्थिति पर रोना आ रहा है, और ऐसा लग रहा है कि देश में रोजगार की तंगी के कारण महिलाओं को ये करना पड़ रहा है। क्या वो इनकी जगह होतीं तो इस कदम को उठा पातीं, क्या वो इस धारणा से निकल पातीं कि समाज ने तो उन्हें ये सिखाया है कि वो शारीरिक रूप से पुरूषों से कम होती हैं, तो फिर वो ये सब कैसे करें? या फिर परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए इतना हिम्मती काम कर पाते? शायद नहीं क्योंकि ऐसे लोगों के पास तो अपनी नाकामी छिपाने के लिए सरकार के प्रयासों को कोसना आखिरी विकल्प है। और बात नारीवाद की आए तो इनके लिए दिल्ली पुलिस पर पत्थर उठाने वाली महिलाओं और CAA पर निराधार प्रोटेस्ट चलाने वाली शाहीन बाग की महिलाओं को नायिका बनाना एकमात्र लक्ष्य। इनका कोई सरोकार नहीं है मेहनतकश और स्वाभिमानी महिलाओं से।
खुद सोचिए, आज जब एक संवेदनशील मुद्दे पर हमें ऐसी अव्यवहारिक टिप्पणी करने से बचना चाहिए और महिलाओं को उनके हौसले के लिए दाद देनी चाहिए। उस समय हम उनके प्रति अपनी दया प्रकट कर रहे हैं? उन्हें ये समझा रहे हैं कि देश के हालात बुरे हैं? आखिर क्यों? हमारे सामने बहुत से उदाहरण हैं जहाँ महिलाओं को आर्थिक दिक्कतों के कारण वेश्यावृत्ति तक का रास्ता अपनाना पड़ा। ऐसे में ये कूली, ड्राइवर का काम उससे तो बेहतर ही है न।
आज हम हमारे आसपास के समाज में देखते हैं कि देश में गरीबी है, लोग अपने लालन-पालन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे में अगर महिलाएँ आगे आकर अपना योगदान दे रही हैं, तो हम या आप इसमें क्यों आपत्ति जता रहे हैं, जरूरी नहीं है कि हर महिला या हर पुरूष के लिए रोजगार का पर्याय किसी फैक्ट्री में नौकरी हासिल करना ही हो, हो सकता है कि किसी के लिए सशक्त होने का मतलब खुद ही अपने लिए रोजगार पैदा करना हो। मशीनों के इस युग में हम समझते हैं कि ह्यूमन लेबर कोई सराहनीय कार्य नहीं है। लेकिन इसे जीवनयापन के लिए संघर्ष करते इंसान को देखकर शर्मसार होना और भी शर्मिंदगी की बात है।
खुद विचार करिए, एक ऐसा विकासशील देश जिसका इतिहास रूढ़िवादी परंपराओं से भरा हुआ है और जहाँ गरीबों की संख्या किसी नगर या किसी देश की संख्या से भी ज्यादा है, वहाँ पर कितना बेहतर है कि रोजगार के विकल्प तलाशे जाएँ और महिलाएँ भ्रांतियों को तोड़कर आगे आएँ।