रिपोर्ट की शुरुआत एक सवाल से करते हैं। अगर रैंडम चुना जाए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कुछ 7000 लोगों को, तो उनमें से कितने भाजपा समर्थक निकलेंगे? हालिया आम चुनाव में भाजपा को मिले 38.5% वोटों को दृष्टिगत रखा जाये , तो यह संख्या लगभग 2700 होनी चाहिए। वास्तविक संख्या इससे कुछ कम या कुछ ज्यादा हो सकती है। लेकिन अगर यह संख्या 6000 या 1000 हो फिर? अचरज होगा, है न!
अब अगर यह संख्या मात्र 5 निकले फिर? लगभग असम्भव लग रहा.. है न ?
पर ऐसा हुआ दिल्ली की मुस्तफाबाद विधानसभा मतगणना के दौरान। .
दोनों दलों को मिले वोटों की स्थिति इस राउंड तक इस प्रकार थी कि भाजपा उम्मीदवार और सिटिंग विधायक जगदीश प्रधान अपने आम आदमी पार्टी प्रतिद्वंद्वी के ऊपर 30000 मतों से ज्यादा की बढ़त बना चुके थे, और असेम्बली चुनाव में 30000 मतों की बढ़त अमूमन निर्णायक सिद्ध होती है।
लेकिन इसके बाद कुछ आश्चर्यजनक घटित हुआ, बतौर उदाहरण राउंड 19 की मतगणना के आंकड़ें ये रहे :
इस राउंड में आप के हाजी यूनुस को 7904 और भाजपा को केवल 36 वोट मिले। यह पैटर्न राउंड 14 से 23 तक लगातार कंटिन्यू रहा। हर बार AAP के प्रत्याशी को मिलते हजारों वोटों की तुलना में भाजपा तिहाई की संख्या तक पहुँचने के लिए भी संघर्ष करती नजर आई।
अंततः राउंड 23 तक आते आते भजपा के लिए खेल समाप्त हो चुका था। कैसे और क्यों हुआ ये?
इस राउंड में हाजी को 6878 वोट मिले वहीं बीजेपी को मात्र 5! और इस तरह हाजी 20000 वोटों की बढ़त बना, चुनाव जीतने की तरफ बढ़ गए।
क्या वोटिंग का यह पैटर्न किसी तकनीकी खराबी के कारण था या बिल्कुल अपेक्षित, जिस कारण बीजेपी ने चुपचाप बिना किसी भारी मन या शिकवे शिकायत के इसको स्वीकार कर लिया।
जी.. यह बिल्कुल अपेक्षित था, उस क्षेत्र की डेमोग्राफी को देखते हुए।
आम आदमी पार्टी की जीत के पीछे मचते सारे हल्ले और दिए जा रहे सारे ज्ञान की चकाचौंध में जो बातें मिस हो रहीं, मुस्तफाबाद की वोटिंग का यह पैटर्न उन सबको हाईलाइट में लाने का काम कर सकता है बशर्ते हम इस आँकड़े के पीछे छुपी इबारत पढ़ने-समझने के प्रति इच्छुक हों।
सैद्धांतिक तौर पर देखें तो वोट देते समय मुद्दे के आधार पर वोट करें, या कैंडिडेट के आधार पर, मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री की सीट पर कौन बैठेगा इसको सोच कर वोट करें या सांसद/विधायक कौन बनने जा रहा, इस आधार पर वोट करें, यह हमेशा ही एक कठिन पहेली हो सकती है।
फिर कुछ आयाम और विषय उस वक्त अँधेरे में भी हो सकते हैं, जिस समय हम वोट डाल रहे होते हैं!
जैसे महाराष्ट्र में शिव सेना को वोट करते वक़्त मतदाता को नहीं पता था कि उसका वोट कॉन्ग्रेस को जा रहा!
इन सभी आयामों को अगर मिलजुला कर देखें तो समझ आता है कि डेमोक्रेसी कितनी संवेदनशील और क्षणभंगुर जैसी हो सकती है। और इसकी इन कमियों को सिंगल इशू वोटर्स किस आसानी से अपह्रत कर सकते हैं। जैसे मुस्तफाबाद से जीते हाजी को पता है कि उसको मिले 6878, बीजेपी और मिले 5 के पीछे की वजह स्कूली शिक्षा में हुए कथित सुधारों या फ्री हुए बिजली पानी बस मेट्रो के कारण नहीं, अपितु किन्हीं अन्य कारणों के कारण ही सम्भव हो पाया है।
इस नतीजे और वोटिंग पैटर्न से पता चलता है कि अपने मुद्दे के प्रति समर्पित सिंगल इशू वोटर्स किस तरह बहुसंख्यक वोटर्स पर भारी पड़ सकता है।
ओखला सीट से आप उम्मीदवार अमानतुल्ला खान की 1 लाख से अधिक की जीत के पीछे क्या ओखला की समृद्धि जिम्मेदार है? क्या ओखला में बेस्ट स्कूल्स और अस्पताल हैं? शायद नहीं।
यह फिनॉमिना सिर्फ दिल्ली तक नहीं सीमित है। हैदराबाद में पिछले 30 वर्षों से कब्जा जमाये ओवैसी परिवार की MIM पार्टी क्या हैदराबाद जैसे मेट्रोपोलिस में जीतनी चाहिए? शायह नहीं। लेकिन MIM वहां लगातार जीतती जा रही क्योंकि हैदराबाद के सबसे पिछड़े इलाके पुराने हैदराबाद शहर के सिंगल इशू वोटर्स पर ओवैसी परिवार का होल्ड है। वैसे क्या कभी आपने किसी लिबरल के मुँह से हैदराबाद में होते ध्रुवीकरण के बारे में सुना है?
चुनाव आते जाते रहते हैं। दिल्ली की इस मुस्तफाबाद सीट से अगर बीजेपी जीत भी जाती तब भी कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अगर सिर्फ हार जीत से अलग हट वोटर्स के सोचने के तरीके पर गौर करें तो समझ आएगा कि जहाँ एक ओर सिंगल इशू वोटर्स जहाँ आज हैं वहीं कल होंगे, और इस प्रकार आज नहीं तो कल डेमोक्रेसी की कमियों का फायदा उठा अपनी मनमर्जी उन बहुसंख्यक वोटर्स पर थोप सकेंगे जो वोट करते समय कई तरह के मूडस्विंग से गुजरते रहते हैं।
बतौर उदाहरण शाहीन बाग़ की बात करते हैं। मीडिया ने अब उस पर बात करनी बंद कर दी है। लेकिन याद रहे कि किस तरह वहाँ 4 महीने के एक बच्चे की मौत का जश्न मनाया गया, जहाँ धीरे धीरे कतरा कतरा उससे साँसे छीनी गईं। पर न उसकी माँ को कोई अफ़सोस न बाकियों को! मानवता के खिलाफ इस बर्बर हमले को किस कदर सेलिब्रेट किया गया है वह यह दर्शाता है कि सिंगल इशू वोटर्स अपने मुद्दे के प्रति किस हद तक समर्पित हैं।
हो सकता है कि आप सिंगल इशू वोटर न हों। आपकी प्राथमिकताएँ अलग हो सकती हैं। हो सकता है कि आप फिलहाल के लिए इन सिंगल इशू वोटर्स के साथ समझौते करने को इच्छुक हों पर याद रहे समझौते हमेशा आपको ही करने होंगे! यदि कोई माँ अपने बच्चे को अपने मुद्दे के लिए मारने पर सहर्ष उतारू हो सकती है तो फिर ऐसी जमात से यह उम्मीद करना कि वो आपके मुद्दों पर किसी प्रकार के समझोतों को तैयार होगी, कभी भी… यह असम्भव है। सिंगल इशू वोटर्स एक इंच भी खुद के एजेंडे से पीछे हटने वाले नहीं हैं, न वो पूरा 100% जीतने तक रुकने ही वाले हैं। भले इसमें 5 वर्ष लगें या 100 वर्ष, लेकिन जीत सिंगल इशू वोटर्स की भी होगी।