महागठबंधन की कवायद में शुरू से ही यह सवाल उठ रहे थे कि हालाँकि एक-दूसरे से दुश्मनी की ही जिन्दगी भर लड़ाई लड़ने वाले साथ तो आ रहे हैं, पर क्या उनके मतदाता इसे स्वीकार करेंगे। यह सवाल सबसे ज्यादा मायावती और मुलायम को लेकर पूछा गया था, पर उस समय इस आशंका को निर्मूल बता दिया गया था। कल बरेली के चुनावों ने खुलकर उस आशंका का मूल दिखा दिया था।
बसपा के कई मतदाताओं ने जहाँ भ्रम की स्थिति और हाथी नहीं दिखने के चलते कमल दबाकर भाजपा को वोट दे दिया, वहीं कई अन्य ने सब जानते हुए भी महागठबंधन को अपनी निष्ठा के साथ छल मानते हुए ऐसा किया।
‘बहन जी नहीं हैं तो फिर मोदी जी ही ठीक’
बरेली सीट से भाजपा ने संतोष गंगवार को उतारा है। वह भाजपा के केन्द्रीय मंत्री भी हैं। उनके मुकाबले में सपा-बसपा के महागठबंधन ने सपा के भगवत सरन गंगवार को उतार कर जातीय आधार पर वोट बाँटने की कोशिश की है। पर जैसा कि अमर उजाला के बरेली देहात संस्करण की आज ही छपी खबर से साफ हो रहा है, बसपा समर्थकों को न ही समाजवादी पार्टी से गठबंधन रास आया है, और न ही उसका ‘देश में सेक्युलरिज्म बचाना है’ का स्पष्टीकरण। बसपा के मतदाता वर्ग ने इसे अपने साथ छलावा माना है। बसपा के कई ‘कमिटेड’ मतदाताओं ने अमर उजाला से बातचीत में यह भी कहा कि बहन जी यानि मायावती (और उनकी पार्टी) अगर मुकाबले में होते तो वह जरूर वोट देते, पर जब बसपा मुकाबले में नहीं है तो भाजपा उनकी पसंद है।
इसके अलावा जमीन पर बहुत से मतदाताओं तक महागठबंधन की खबर पहुँचा पाने में भी बसपा कार्यकर्ताओं की विफलता सामने आ रही है। इस कारण से एक बड़ा मतदाता वर्ग हाथी न ढूँढ़ पाने के चलते भी भ्रम में कमल दबा आ रहे हैं।
गेस्टहाउस कांड हो सकता है कारण
बसपा का वोट सपा को ट्रांसफर न होने का एक बड़ा कारण गेस्टहाउस कांड को माना जा सकता है। 2 जून 1995 को जब बसपा ने सपा-बसपा गठबंधन की उत्तर प्रदेश सरकार से समर्थन वापिस लेकर उसे गिरा दिया था तो नाराज सपा कार्यकताओं ने लखनऊ के एक गेस्टहाउस में मायावती पर हमला बोल दिया था। उन्होंने अपने आपको एक कमरे में बंद कर लिया तो भी सपा वाले उस कमरे का घेराव किए रहे। अंत में भाजपा के विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी के नेतृत्व में पहुँचे लोगों ने उन्हें वहाँ से खदेड़ कर मायावती की जान बचाई थी।
पिछले 23 सालों में मायावती कई राजनीतिक मुसीबतों के मौकों पर अपने समर्थकों को गेस्टहाउस की याद दिला कर वोट माँग चुकीं हैं। कमोबेश उनके वोट बैंक ने उस प्रकरण को एक व्यक्ति नहीं, दलित अस्मिता की प्रतीक पर हमला मानकर उनका साथ भी दिया है। 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हाहाकारी जीत के बावजूद बसपा मत प्रतिशत के मामले में दूसरी और सीटों के मामले में तीसरी पार्टी रही थी। ऐसे में जनता से इस मुद्दे के दम पर दो दशकों से ज्यादा की अपील करने के बाद अब इस मुद्दे पर समझौता करने की बसपा को कीमत चुकानी पड़ रही है।