बसपा संस्थापक कांशीराम ने जिस पार्टी को फर्श से अर्श तक पहुँचाया था, उसकी हालत आज पूरी तरह से खस्ता हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बना चुकी पार्टी का ग्राफ लगातार गिरता ही जा रहा है। हालात ये है कि कांशीराम की उत्तराधिकारी मायावती ने खोए हुए जनाधार को फिर से हासिल करने के लिए पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष से लेकर जिलास्तर के पदाधिकारी तक सभी बदल दिए, लेकिन स्थिति जस की तस है।
उत्तर प्रदेश में आगामी चुनाव की तैयारियाँ शुरू हो गई हैं, लेकिन पार्टी की ओर से कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही है। कांशीराम को भारत में दलितों के उत्थान के लिए काम करने वाले सबसे बड़े नेताओं के रूप में जाना जाता था। दलितों के उत्थान के नाम पर ही चार बार मायावती प्रदेश की सियासत में भी आई। लेकिन, उनका गिरता सियासी पारा अब थमता नहीं दिख रहा है। वहीं पार्टी के संस्थापक कांशीराम के सियासी सफरनामे पर नजर डालें तो पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गाँव में 15 मार्च 1934 को कांशीराम का जन्म हिंदू परिवार में हुआ था, लेकिन बाद में उन्होंने सिख धर्म अपना लिया था। वे पुणे की गोला-बारूद फैक्ट्री में क्लास वन ग्रेड के अधिकारी थे।
इसी फैक्ट्री में राजस्थान के रहने वाले दीनाभाना चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के तौर पर काम करते थे। वे अंबेडकर जयंती पर घर जाना चाहते थे और इसी को लेकर उनका उनके वरिष्ठ अधिकारियों के साथ विवाद हुआ और उन्हें सस्पेंड कर दिया गया। उनका पक्ष लेने आए डीके खापर्डे को भी सस्पेंड कर दिया गया। इसका पता चलने पर कांशीराम ने भी विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि उन्हें भी नौकरी से निकाल दिया गया। इसके बाद उन्होंने सस्पेंड करने वाले अधिकारी को पीट दिया और दलितों के उत्थान के लिए निकल पड़े।
यहीं से नीव पड़ी दलित कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए काम करने वाले संगठन बामसेफ (Backward And Minority Communities Employees Federation) की। 6 दिसंबर 1978 का दिन था जब राष्ट्रपति भवन के सामने स्थित बोटक्लब मैदान पर तीन लोगों ने मिलकर बामसेफ की। ये तीन लोग कांशीराम, डीके खापर्डे और दीनाभाना थे। कांशीराम ने दिल्ली महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा समेत कई राज्यों में संगठन को मजबूती देते हुए लाखों लोगों को इससे जोड़ा।
BSP की स्थापना
दलितों और वंचितों के लिए संघर्ष करते हुए कांशीराम को इस बाता का अहसास हुआ कि राजनीतिक सत्ता के बिना दलितों की आवाज बन पाना मुश्किल है। इसलिए उन्होंने 14 अप्रैल 1984 को एक ऐसा फैसला लिया जिसके बाद BSP का जन्म हुआ। हालाँकि, इसका असर यह हुआ कि बामसेफ टूट गया और उनके कई साथी इससे अलग हो गए।
मायावती से मुलाकात
दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे कांशीराम को ही मायावती को राजनीति में लाने का श्रेय दिया जाता है। मायावती दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ की पढ़ाई कर रही थीं। इसके साथ ही वो IAS की तैयारी भी कर रही थीं। DU में एक कार्यक्रम के दौरान मायावती ने मंच पर दलितों के उत्थान को लेकर एक भाषण दिया था। इस भाषण से प्रभावित होकर कांशीराम मायावती से मिलने गए। उन्होंने मायावती से उनके भविष्य की योजनाओं को लेकर पूछा तो उन्होंने कहा कि वो IAS बनना चाहती हैं। इस पर कांशीराम ने उन्हें समझाया कि IAS बनकर दलितों के लिए काम करना मुश्किल है, क्योंकि अधिकारियों को भी नेताओं की बात माननी होती है, इसलिए राजनीति में आओ। इसके बाद मायावती अपनी पढ़ाई छोड़ राजनीति में आ गईं।
आशुतोष को जड़ दिया था थप्पड़
पूर्व पत्रकार और नेता आशुतोष, कांशीराम के एक थप्पड़ के कारण सुर्खियों में आए थे। घटना 1996 की है, जब कांशीराम के घर के बाहर पत्रकारों की भीड़ लगी हुई थी। वो उनकी बाइट लेना चाहते थे। लेकिन, कांशीराम के समर्थकों ने पत्रकारों को वहाँ से हटा दिया। बावजूद इसके बाइट लेने पर अड़े पत्रकारों से नाराज कांशीराम ने आशुतोष को थप्पड़ मार दिया था। इस घटना से 4 साल पहले 1992 में अयोध्या में विवादित ढाँचे को लेकर बयान देते हुए कांशीराम ने कहा था कि उस ढाँचे की जगह शौचालय बनवा देना चाहिए।
जब मिल गए मुलायम-कांशीराम
बात 1991 की है जब समाजवादी पार्टी के प्रमुख रहे मुलायम सिंह और कांशीराम की दोस्ती एक घटना से हुई थी। दरअसल, इटावा में लोकसभा उपचुनाव हो रहा था, जिसमें कांशीराम उम्मीदवार थे। उस चुनाव को जीतने में मुलायम सिंह यादव ने उनकी मदद की। इसके अगले साल 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद जब केंद्र सरकार ने यूपी की कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया तो मुलायम और कांशीराम की दोस्ती अपनी बुलंदियों पर थी। उस दौरान एक नारा दिया गया था, ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’। 1993 में सपा-बसपा ने गठबंधन कर चुनाव भी लड़ा था। हालाँकि, 1995 के गेस्ट हाउस कांड से दोनों में दूरियाँ बढ़ गई थीं।
कांशीराम की मौत
BSP के संस्थापक कांशीराम की मौत को लेकर हमेशा से एक विवाद रहा है। कांशीराम की बहन स्वर्ण कौर ने एक बार ये आरोप लगाया था कि मायावती ने उनके भाई को बंधक बना लिया था और बाद में उनकी हत्या कर दी। उन्होंने मायावती को दुश्मन नंबर वन करार दिया था। उल्लेखनीय है कि कांशीराम की मौत 9 अक्टूबर 2006 में हुई थी।