श्री लंका को जेहादी झटके लगने बंद नहीं हो रहे हैं। ईस्टर के बम धमाकों में मरने वालों की बढ़ती संख्या के बीच आत्मघाती हमलावरों में से एक की गर्भवती बीवी ने गिरफ़्तारी से बचने के लिए खुद को बम से उड़ा लिया। वह भी अपने दो बच्चों के साथ। उसके इस हमले में श्री लंका पुलिस के तीन अफसरों को भी अपनी जान गँवानी पड़ी है। वह तीनों आत्मघाती हमलावरों में से दो भाइयों के घर छापा मारने पहुँचे श्री लंका पुलिस के दल का हिस्सा थे।
इंसाफ-इल्हाम इब्राहीम थे धमाकों के मास्टरमाइंड
अब तक आई ख़बरों के मुताबिक श्री लंका में मसालों और ताँबे का व्यापार करने वाले व्यापारी घराने के ये दो भाई ‘गरीब/अनपढ़’ आतंकवादी की छवि के बिलकुल उलट थे। इनमें से इल्हाम तो खुल कर अपनी कट्टरता का प्रदर्शन करता था- यहाँ तक कि वह स्थानीय कट्टरपंथी संगठन नेशनल तौहीद जमात की मीटिंगों में खुल कर हिस्सा लेता था। मगर इंसाफ इब्राहीम अपने आपको उदारवादी दिखाता था। अपने ताँबा कारखाने के कर्मचारियों और अन्य गरीब लोगों की भी भरपूर मदद करता था। धमाकों के केंद्रबिंदु माने जा रहे इन भाइयों के पिता मोहम्मद इब्राहीम को श्री लंका पुलिस ने पूछताछ के लिए हिरासत में ले लिया है।
‘नैरेटिव-बाजी’ से बाज नहीं आ रहा मीडिया
चरम-वामपंथी वैचारिकता से ग्रसित मुख्यधारा का मीडिया यहाँ भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। श्री लंका धमाकों के मृतकों, घायलों और पीड़ितों की बजाय वह लोगों का ध्यान बाँटने के लिए मुद्दे खोज रहा है। आप किसी भी मुख्यधारा के मीडियाहाउस की कवरेज खोल कर पढ़ेंगे तो लंबे-चौड़े लेखों में शायद 40% भी पीड़ितों के लिए नहीं छोड़ा है। उनके लेख धमाकों की सोशियोलोजी नापने, धमाकों के बाद ‘लोगों के गुस्से से सहमे (बेचारे?) मुस्लिम समाज’ के प्रति सहानुभूति जताने, इन हमलों की गंभीरता कम कर के दिखाने जैसे मुद्दों से भरे पड़े हैं। यहाँ तक कि और कुछ नहीं मिल रहा तो यही शिगूफा छेड़ा जा रहा है कि कैसे श्री लंका में लगे आपातकाल से वहाँ ‘नागरिक अधिकारों के हनन की संभावना’ है।