Monday, December 23, 2024
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कारगिल के 20 साल: गाथा चार वीरों की, जो हमें बार-बार सुननी चाहिए

30 जून-1 जुलाई 1999 की रात को दक्षिण-पूर्वी छोर से किसी तरह चढ़ते हुए चोटी के पास तो भारतीय सेना पहुँच गई, लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद भी ऊपर की चट्टानों में खाई बनाकर छिपी पाकिस्तानी सेना की गोलीबारी ने दो घंटे तक उन्हें आगे बढ़ने से रोके रखा।

कारगिल की बर्फ़ीली चोटियाँ न जाने कितने सैनिकों की जाँबाज़ी की कितनी ही गाथाएँ अपनी ख़ामोशी में समेटे हैं। उन सभी को जान पाना शायद मुमकिन नहीं होगा। लेकिन आज कारगिल विजय दिवस पर उन कुछ वीरताओं को याद तो किया ही जा सकता है जिनके चलते कारगिल पर चाँद-सितारे की जगह आज भी तिरंगा कायम है।

टाँग खोकर भी चैम्पियन बनने वाले सतेंद्र सांगवान

Captain Satendra Sangwan

2009 में ओएनजीसी के सर्वश्रेष्ठ विकलांग कर्मचारी और समाज के लिए प्रेरणा-स्रोत का राष्ट्रीय अवार्ड तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी से पाने वाले कैप्टेन सतेंद्र सांगवान प्रोस्ठटिक टाँग के सहारे राष्ट्रीय विकलांग बैडमिंटन चैंपियनशिप लगातार तीन साल जीत चुके हैं, एवरेस्ट (हिन्दुस्तानी नाम: सागरमाथा) पर चढ़ने का प्रयास कर चुके हैं, और विश्व चैम्पियनशिप में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया है। बारहवीं के बाद रेडियो टेक्नीशियन के तौर पर वायु सेना में भर्ती होने वाले कैप्टेन सांगवान ने उस्मानिया विश्वविद्यालय से डिस्टेंस लर्निंग द्वारा ग्रेजुएशन किया, और उसके बाद CDS/OTA इम्तिहान पास करने के बाद 16 ग्रेनेडियर रेजिमेंट में वह कमीशन-प्राप्त अफसर बने।

29 जून, 1999 को ब्लैक रॉक नामक क्षेत्र में दुश्मन के बंकरों को तबाह करने के बाद गश्ती (पैट्रोलिंग) ऑपेरशन से लौटते समय कैप्टेन सांगवान का पैर एक बारूदी सुरंग पर पड़ गया, जिसका धमाका उनके दाहिने पैर को उनसे छीन ले गया। उस समय तक उनकी टुकड़ी द्रास और बटालिक जैसे दुर्गम स्थलों पर दो महीने से अधिक समय बिता चुकी थी।

टीले पर कब्ज़े के लिए गोलियों की बौछार में सीधी छलाँग

लगभग सीधी चढ़ाई वाले टीले पर स्थित पॉइंट 4812 पर कब्ज़ा करने का निर्देश लेफ्टिनेंट कीशिंग क्लिफ़र्ड नोंग्रुम की टुकड़ी को मिला था। तिस पर से यह चढ़ाई भी पाकिस्तानियों की नज़र में न आने के लिए छिप कर ही करनी थी। 30 जून-1 जुलाई 1999 की रात को दक्षिण-पूर्वी छोर से किसी तरह चढ़ते हुए चोटी के पास तो भारतीय सेना पहुँच गई, लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद भी ऊपर की चट्टानों में खाई बनाकर छिपी पाकिस्तानी सेना की गोलीबारी ने दो घंटे तक उन्हें आगे बढ़ने से रोके रखा

लेफ्टिनेंट नोंग्रुम की तस्वीर के साथ उनके माता-पिता (साभार: defencelover.in)

तब इस गतिरोध से पार पाने के लिए लेफ्टिनेंट नोंग्रुम ने अपनी जान हथेली पर लेकर गोलियों की बौछार में छलाँग लगा दी। दुश्मन की पहली पोज़ीशन पर पहुँच कर उन्होंने वहाँ ग्रेनेड फेंका, जिसके धमाके से 6 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए। दूसरी पोज़िशन पर तैनात यूनिवर्सल मशीन गन को भी पाकिस्तानियों से छीनने की कोशिश में वह तो घातक रूप से घायल हो गए, लेकिन इस बीच पाकिस्तानियों का ध्यान बँटने का फायदा उठाकर भारतीय सैनिकों ने हमला बोलकर वह पोज़िशन हथिया ली। इसके बाद अपने घावों के साफ़ तौर पर जानलेवा होने के बावजूद लेफ्टिनेंट नोंग्रुम ने मैदान से दूर ले जाए जाने से साफ़ इंकार कर दिया, और आखिरी साँस तक लड़ते ही रहे। उनको सेना का दूसरा सबसे बड़ा पुरस्कार ‘महा वीर चक्र’ मरणोपरांत दिया गया

नायक ब्रिज मोहन सिंह- पाकिस्तानियों को समझ नहीं आया खाली हाथ झपटते को कैसे रोकें

BRIJ MOHAN SINGH

नायक ब्रिज मोहन सिंह ने मश्कोह सब-सेक्टर में “सैंड्स टॉप” टीले पर कब्ज़े के लिए जो रणनीति इस्तेमाल की, उसकी शायद ही कभी पाकिस्तानियों ने कल्पना भी की होगी, सामना तो दूर की बात है। जब उनकी 9 पैराशूट स्पेशल फोर्सेज़ की 30-सदस्यीय कमांडो टीम की बढ़त 30-जून-1 जुलाई, 1999 की रात टीले की छोटी के पास पहुँच कर भी लगातार हमले के चलते रुक गई, तो उन्होंने आत्मोत्सर्गी निर्णय लिया। अपनी टुकड़ी के भाले की नोंक बन उन्होंने पहले दुश्मन की पोज़िशनों पर ग्रेनेड से हमला किया, उसके बाद यकायक धमाके से बौखलाए सैनिकों पर खुद झपट्टा मार कर उन्हें ढेर करना शुरू कर दिया। ऐसी रणनीति से बौखलाए पाकिस्तानी जब तक कुछ समझ या पलट कर ब्रिज मोहन सिंह पर हमला कर पाते, भारतीय कमांडोज़ को हमले का वह मौका मिल चुका था जिसकी उन्हें तलाश थी। ऐसे ही ब्रिज मोहन सिंह ने गंभीर रूप से घायल होकर वीरगति को प्राप्त होने के पहले पाँच पाकिस्तानियों को मौत की नींद सुला दिया, जिसमें से दो को तो उन्होंने केवल अपने खंजर (कमाण्डो नाइफ़) से मारा। अपनी जान और सुरक्षा की परवाह किए बिना दिलेरी और शौर्य की मिसाल खड़ी करने वाले ब्रिज मोहन सिंह को वीर चक्र से नवाज़ा गया

हाथ पर लगी गोली ले गई टाइगर हिल के नायक की जान

कैप्टेन जेरी प्रेमराज को वीर चक्र से नवाज़ा गया

जब 6/7 जुलाई, 1999 की रात पाकिस्तानी गोली कैप्टेन जेरी प्रेमराज के सर, सीने और पेट को ‘बख्श’ बाँह पर लगी होगी तो उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि एक विषैले सँपोले की तरह वह ‘मामूली’ चोट उनकी जान की दुश्मन साबित होगी। लेकिन हुआ यही, क्योंकि गोली देश के दुर्भाग्य से नस को चीर गई, और वह चोट ऊँचाई पर ज़्यादा तेज़ी से होने वाले रक्त-स्राव के चलते अंततः प्राणघातक निकली। उस चोट के बाद भी कैप्टेन लड़ते रहे, क्योंकि उनका मिशन था 15,000 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित चोटी 4875 पर हमला, जिससे पाकिस्तानियों पर गोलीबारी की जा सके। हमले के दौरान पाकिस्तानियों की ओर से हुई जवाबी गोलीबारी में उन्हें और गोलियाँ भी लगीं, लेकिन उन्होंने हमला पूरा होने के पहले मेडिकल सहायता के लिए मैदान छोड़ कर जाने से मना कर दिया। अंततः उसी दिन मात्र छह महीने की उम्र में अपने गाँव के सबसे तंदरुस्त बच्चे का ख़िताब जीतने वाले कैप्टेन आर. जेरी प्रेमराज की मौत हो गई।

खुद घायल होते हुए भी छह को मारा हवलदार गिल ने

Sis ram gill

हवलदार शीश राम गिल के नेतृत्व वाली कमांडो टीम को 17,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित “मंजू” नामक पाकिस्तानी चौकी पर कब्ज़े का निर्देश दिया गया। लगभग असम्भव चढ़ाई वाली यह चोटी बहुत ही दुर्गम थी, और दुश्मन ने गोलियों और मोर्टार के हमले लगातार चालू रखे। लेकिन हवलदार गिल ने भी अपनी टीम के जज़्बे को गोलियों की बारिश से बुझने नहीं दिया, और अपने पैर पर लगी गोली की चोट को भी खुद स्नाइपर और मशीन गन से एक पाकिस्तानी अफसर, दो जेसीओ, और तीन सैनिकों को ऊपर पहुँचाने के आड़े नहीं आने दिया। इसके अलावा उनकी गोलियों से चार अन्य पाकिस्तानी भी घायल हुए। हवलदार गिल को पता था कि उनके हटने से कमांडो टीम की लड़ने की ताकत घटेगी और मिशन फेल हो जाएगा, इसलिए वह लड़ते रहे। 9 जुलाई, 1999 को लेकिन वह अपनी ज़िंदगी की जंग हार गए, और उनका वीर चक्र मरणोपरांत उनके परिवार को मिला।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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