किसी भी देश में छात्रों की बड़ी संख्या होना उनके लिए गौरव की बात होती है लेकिन यही छात्र यदि उपद्रवी हो जाएँ और उसी देश की संपत्ति को तोड़ने फोड़ने लगें, अपनी बात मनवाने के लिए लोगों के कत्लेआम पर उतर आएँ तब इन्हें छात्र कैसे माना जाएगा?
बांग्लादेश में छात्रों के नाम पर भड़के प्रदर्शन ने इतना भयंकर रूप लिया कि लोकतांत्रित ढंग से निर्वाचित हुई शेख हसीना को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी और वामपंथी ये कहते दिखे कि छात्रों ने लोकतंत्र को बचा लिया… विरोध था तो कुछ समय पहले जब बांग्लादेश में चुनाव हुए तब नाराजगी दिखाते हुए हसीना सरकार को सत्ता से निकाला जा सकता था। आज इस तरह प्रधानमंत्री आवास में भीड़ का घुसना कितना उचित है इसे सोचकर देखिए।
People who claim that the recent developments in Bangladesh was a student-led protest to effect regime change need to take a long look at this video to decide for themselves how much futher they are willing to go and defend bloodthirsty terrorists. pic.twitter.com/fBBUrT7MxJ
— Rashmi Samant (@RashmiDVS) August 6, 2024
आप हिंसक भीड़ के जिस कृत्य को छात्रों का प्रदर्शन कहकर ढाँकने का प्रयास कर रहे हैं वो यदि लोकतंत्र है तो इसका मतलब किसी भी व्यक्ति का किसी के घर में घुसकर उसे खदेड़ना लोकतंत्र कहलाया जाने लगेगा… प्रधानमंत्री पद की गरिमा यदि कोई न समझे, इंसानी जान की कीमत कोई न समझे, देश की संपत्ति का मूल्य कोई न समझे, हिंदुओं को चुन-चुनकर निशाना बनाए तो आप उसे छात्र कहेंगे?
छात्रों के नाम पर खेले जाने वाला खूनी खेल कोई नया नहीं है। इतिहास में कई बार इस शब्द का प्रयोग करके जमीनें लाल हुई हैं। आज जो शेख हसीना तथाकथित छात्र प्रदर्शन के कारण बांग्लादेश छोड़ भागी हैं कभी खुद उनके पिता शेख मुजीबुर रहमान भी अपने छात्र दिनों में ऐसे प्रदर्शनों में खूब शामिल हुए थे।
आपको जानकर हैरानी होगी कि जिन हिंदुओं के कारण 1971 में शेख मुजीब उर रहमान की जान बची थी उन्हीं शेख मुजीबुर को अपने छात्र जीवन में मंजूर नहीं था कि सत्ता हिंदुओं के साथ साझा हो। उनका हमेशा मानना था कि वर्चस्व मुस्लिमों का रहना चाहिए। उनकी इसी सोच की वजह से उन्होंने छात्र जीवन से ही मुस्लिम लीग में बढ़-चढ़कर भाग लेना शुरू कर दिया था। उनके साथ और छात्र लोग भी मुस्लिम लीग में जुड़े। यही वजह बाद में यही मुस्लिम लीग जब टू नेशन थ्योरी पर अड़ी और डायरेक्ट एक्शन डे पर मुस्लिमों ने सड़कों पर उतरकर हिंदुओं को मारना शुरू किया तो उसमें शेख मुजीबुर रहमान का नाम भी आया।
It is a fact that Sheikh Mujibur Rahman was a Muslim League activist during the Great Calcutta Killings of August 1946 and in his 'Unfinished Autobiography' has spoken untruths about it. But he reformed himself later and declared that his Bangladesh would be religion-neutral. https://t.co/rTZ1dHrq7j
— Tathagata Roy (@tathagata2) July 23, 2020
दरअसल, छात्र जीवन में शेख जिसे अपना राजनीतिक गुरु मानते थे वो बंगाल में डिप्टी मेयर हुसैन शहीद सुहारवर्दी थे। सुहारवर्दी ने डायरेक्ट एक्शन डे (16 अगस्त 1946) पर हथियार लेकर मुस्लिमों के सड़कों पर उतरने का जब समर्थन किया तब भी शेख मुजीब उन्हीं के साथ जुड़े थे।
बंगाल में एक तरफ से हिंदुओं का नरंसहार 16 अगस्त से 18 अगस्त 1946 तक चलता रहा। मुस्लिम भीड़ सड़कों पर उतरी। चुन चुनकर हिंदुओं को मारा काटा गया। कोई मरने वाले हिंदुओं की संख्या 5 हजार के आसपास बताता है तो कोई 10 हजार। लेकिन उस समय न सुहारवर्दी ने विरोध किया और न ही शेख मुजीब ने।
अंत में 18 अगस्त को जब गोपाल मुखर्जी ने हिंदुओं को मुस्लिमों से भिड़ने के लिए हथियार दिए और प्रतिरोध शुरू हुआ तब सुहारवर्दी ने शेख मुजीब को भेज अनुरोध करवाया कि ये हिंसा रोक दी जाए क्योंकि बात उनके पद पर बन आई थी।
ये कोई अकेली घटना नहीं है जब शेख मुजीब का नाम हिंसा में सीधे तौर पर जुड़ता बताया जाता हो। रिपोर्टेस बताती हैं छात्र दिनों में कट्टरपंथी विचारों के लिए पहचाने जाने वाले शेख मुजीब पर हत्या, लूटपाट, सांप्रदायिक हिंसा सबके आरोप लगे थे, लेकिन हर आरोप से वो बचे क्योंकि सुहारवर्दी ने उनपर अपना हाथ रखा हुआ था।
कुल मिलाकर आज के समय में जो हालात बांग्लादेश में भड़के हैं और जिस तरह से उपद्रवियों को छात्र कहकर समर्थन किया जा रहा है वो कोई नया तरीका नहीं है हिंसा को जायज ठहराने का। भारत में भी हमने पिछले कुछ सालों में देखा है कि कैसे प्रदर्शन के नाम एक वर्ग को भड़काकर राजनैतिक हित साधे जाते हैं और बांग्लादेश में भी यही हुआ है।
16 अगस्त 1946 को क्या हुआ था
आज छात्र प्रदर्शन के नाम पर खुलकर हिंदुओं के मंदिरों को नोआखली (पहले भारत का हिस्सा) में निशाना बनाया जा रहा है। ये वही नोआखली है जहाँ 1946 में डायरेक्ट एक्शन डे के बाद 5000 हिन्दुओं (कहीं 10 हजार) के मारे जाने की बात कही जाती है, लेकिन आँकड़ा इससे कहीं बहुत ज्यादा है। मौजूदा रिपोर्ट बताती हैं कि बंगाल में उस दिन मुस्लिम भीड़ द्वारा 48 घंटों तक बेरोकटोक हत्याएँ और बलात्कार किए जा रहे थे।
ऐसा कहा जाता है कि सेना को तभी बुलाया गया जब लगा कि यूरोपीय लोगों पर हमला हो सकता है। लेखक निषाद हजारी के अनुसार, “कोई नहीं जानता कि कलकत्ता में हुई इस घटना में कितने लोग मारे गए। कई शव हुगली नदी में बह गए या आग में जल गए। आम तौर पर स्वीकृत अनुमान है कि पाँच हज़ार कलकत्तावासी मारे गए, जबकि अन्य 10 से 15 हज़ार लोगों की हड्डियाँ टूट गईं, अंग कट गए या शव जल गए।”
They have come to attack the Noakhali Hindu temple.#AllEyesOnBangladeshiHindus #SaveBangladeshiHindus pic.twitter.com/dBfrpxBywI
— Voice Of Bangladeshi Hindus 🇧🇩 (@hindu8789) August 5, 2024
गोपाल मुखर्जी का विरोध और तब रुके इस्लामी कट्टरपंथी
हजारों हत्याएँ देखने के बाद 18 अगस्त 1946 को स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार से आने वाले गोपाल चंद्र मुखोपाध्याय ने हिंदुओं पर इस राज्य प्रायोजित मुस्लिमों की हिंसा के खिलाफ खड़े होने का फैसला किया। उनके साथ जुगल चंद्र घोष, बसंत (पहलवान) और विजय सिंह नाहर शामिल हुए। सबने मिलकर भारत जातीय वाहिनी का गठन किया, एक ऐसा संगठन जिसने हिंदुओं को पिस्तौल (अमेरिकी सैनिकों से प्राप्त), लाठियाँ, भाले, चाकू, तलवारें और एसिड बम जैसे हथियारों से लैस किया। कलकत्ता और उसके आसपास के इलाकों की विभिन्न व्यायाम समितियों के सैकड़ों हिंदू (बंगाली, सिख, ओड़िया, बिहारी और यूपीवासी) आर्य समाजियों और हिंदू महासभा के सदस्यों के साथ प्रतिरोध में हिस्सा लेने के लिए आगे आए।
कोलकाता में जैसे-जैसे हिंदू प्रतिरोध मजबूत होता गया, मुस्लिम हताहतों की संख्या बढ़ती गई और जल्द ही इस्लामी कट्टरपंथी घबरा गए और शहर छोड़कर भागने लगे। मगर झड़पें करीब एक हफ़्ते तक जारी रहीं। 18 से 20 अगस्त तक गोपाल पाठा और दूसरे हिंदू नेताओं ने खास तौर पर उन इस्लामी कट्टरपंथियों को तलाशा जिन्होंने हिंदुओं के बलात्कार और हत्याओं में हिस्सा लिया था। जिसके बाद मुस्लिम लीग से जुड़े एक कट्टरपंथी संगठन मुस्लिम नेशनल गार्ड के सदस्य बड़ी संख्या में मारे गए, हालाँकि प्रतिरोध के दौरान हिंदुओं ने किसी भी मुस्लिम महिला या बच्चे को नहीं छुआ। 20 अगस्त तक सुहरावर्दी को एहसास हो गया था कि वह कलकत्ता से हिंदुओं को नहीं हटा सकता और कलकत्ता के साथ-साथ पूरे बंगाल को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने का उसका सपना पूरा नहीं होगा। अंत में उसने हार मान ली।
खुद को और अपनी सरकार को बचाने के लिए, सुहरावर्दी ने जीजी अजमेरी और शेख मुजीबुर रहमान (बांग्लादेश के संस्थापक और मुस्लिम लीग के सदस्य) के साथ मिलकर गोपाल मुखर्जी से हत्याओं को रोकने की अपील की। गोपाल मुखर्जी इस शर्त पर सहमत हुए कि मुस्लिम लीग पहले अपने सदस्यों से हथियार डालने और हिंदुओं की सभी हत्याओं को रोकने का वादा करवाएगी। अंततः 21 अगस्त को बंगाल सीधे वायसराय के शासन में आ गया और शहर में सेना तैनात कर दी गई। अपनी कुर्सी बचाने के लिए सुहरावर्दी ने गोपाल मुखर्जी की सभी शर्तें मान ली थीं। हालाँकि 21 अगस्त 1946 को सेना तैनात होने के बाद, ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड आर्चीबाल्ड वेवेल ने सुहरावर्दी और उनकी मुस्लिम लीग सरकार को बर्खास्त कर दिया।