बेंगलुरु में स्थित एक कम्पनी है लिसियस। यह कच्चे मांस की सप्लाई करती है। इसके अलावा वो मांस के ऐसे आइटम्स भी बेचती है, जिन्हें पका कर खाया जाता है। यानी, वो ‘रॉ मीट’ और ‘रेडी टू कूक’ मांस आइटम्स बेचती है। अब कम्पनी ने निर्णय लिया है कि वो अपनी बिजनेस पॉलिसी के तहत केवल हलाल मीट की ही सप्लाई करेगी। दरअसल, एक व्यक्ति ने गुस्से में कम्पनी को ईमेल किया था और कहा था कि उसने अब लिसियस के प्रोडक्ट्स का प्रयोग करना बंद कर दिया है।
ये सब शुरू हुआ एक ट्विटर ट्रेंड से। सोशल मीडिया पर लोगों ने भारत में सक्रिय मीट ब्रांड्स से पूछा कि उन्हें हलाल मीट खाने को क्यों बाध्य किया जा रहा है, जबकि उनके धर्म या संप्रदाय में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। अगर किसी ख़ास वर्ग को हलाल मीट ही चाहिए, तो बाकियों को भी उसी श्रेणी में रख कर हलाल ही क्यों खिलाया जा रहा है? यानी, मीट ख़रीदते समय एक आम आदमी के पास कोई विकल्प नहीं है। हलाल ही मिलेगा।
लोग इसीलिए गुस्सा थे क्योंकि उनकी भावनाओं की कोई भी कम्पनी सम्मान नहीं कर रही है और हलाल खाने को मजबूर कर रही है क्योंकि एक वर्ग विशेष केवल हलाल मीट ही खाता है। लिसियस को भेजे गए ईमेल में मनोहर नामक व्यक्ति ने कुछ तीखे सवाल पूछे:
“आखिर हलाल मीट ही क्यों? अगर हम हलाल न खाना चाहें, तो हमें अन्य विकल्प क्यों नहीं दिए जा रहे हैं? आप किसी अरब देश में मांस बेच रहे हो क्या? ये भारत है, यहाँ सभी धर्मों और सम्प्रदायों की भावनाओं का ख्याल रखा जाना चाहिए, एक वर्ग विशेष का नहीं। हलाल मीट के लिए न जाने कितने ही जमातियों को बहाल कर के रखा गया होगा, ताकि हलाल मीट की ही केवल सप्लाई हो। आप सेक्युलर बनिए लेकिन इस ‘हलाल इकॉनमी’ का अंग नहीं बनना चाहिए आपको।”
इसके बाद कम्पनी ने रविवार (अप्रैल 26, 2020) को दोपहर 2:19 बजे मनोहर के ईमेल का जवाब दिया और कहा कि लिसियस की ये बिजनेस पॉलिसी है कि सभी प्रकार के केवल हलाल सर्टिफाइड मांस ही बेचे जाएँगे (मेल की पहली लाइन ही पढ़िए, ध्यान से पढ़िए – we have decided to slaughter all our meat in halal way – मतलब मीट चाहे जैसा हो, कंपनी उसे हलाल ही करेगी)। इसका सीधा अर्थ है कि एक ग्राहक के पास हलाल मीट खाने के अलावा कोई चारा नहीं है, भले ही वो मजहब विशेष से नहीं हो।
ये ईमेल [email protected] ईमेल एड्रेस से आया, जो इसी कम्पनी का आधिकारिक ईमेल एड्रेस है। कम्पनी के आधिकारिक वेबसाइट पर भी कॉन्टैक्ट ईमेल के रूप में इसी को दिया गया है। इसका अर्थ है कि लिसियस भारतीय बाजार में नॉन-हलाल मीट सप्लाई करने से साफ़ इनकार कर रहा है क्योंकि समुदाय विशेष वाले इसे नहीं खाते। जबकि, कई लोगों की माँग है कि उन्हें नॉन-हलाल मीट ही चाहिए। उनकी भावनाओं का क्या कोई सम्मान नहीं, इन कंपनियों की नज़र में?
झटका Vs हलाल मीट
बता दें कि ‘झटका‘ हिन्दुओं, सिखों आदि भारतीय, धार्मिक परम्पराओं में ‘बलि/बलिदान’ देने की पारम्परिक पद्धति है। इसमें जानवर की गर्दन पर एक झटके में वार कर रीढ़ की नस और दिमाग का सम्पर्क काट दिया जाता है, जिससे जानवर को मरते समय दर्द न्यूनतम होता है। इसके उलट हलाल में जानवर की गले की नस में चीरा लगाकर छोड़ दिया जाता है, और जानवर खून बहने से तड़प-तड़प कर मरता है।
‘Dr. झटका’ और ‘King of झटका revolution’ कहे जाने वाले रवि रंजन सिंह ने ऑपइंडिया से बात करते हुए ‘हलाल’ के आर्थिक पहलू की बात की थी। उन्होंने समझाते हुए कहा था कि किसी भी भोज्य पदार्थ, चाहे वे आलू के चिप्स क्यों न हों, को ‘हलाल’ तभी माना जा सकता है जब उसकी कमाई में से एक हिस्सा ‘ज़कात’ में जाए- जिसे वे जिहादी आतंकवाद को पैसा देने के ही बराबर मानते हैं।
दिक्कत ये है कि हमारे पास यह जानने का कोई ज़रिया नहीं है कि ज़कात के नाम पर गया पैसा ज़कात में ही जा रहा है या जिहाद में। और जिहाद काफ़िर के खिलाफ ही होता है- जब तक यह इस्लाम स्वीकार न कर ले! ‘हलाल इंडिया’ के एक उच्चाधिकारी ने शाकाहारी खाद्य पदार्थों को ‘हलाल सर्टिफिकेट’ देने की प्रक्रिया के बारे में बताते हुए कहा था कि उनके अधिकारी फैक्ट्रियों तक जाते हैं और ये भी पता करते हैं कि रॉ-मैटेरियल्स कहाँ से आते हैं।
हालिया कोरोना वायरस आपदा के बाद न्यूजीलैंड में समुदाय विशेष के कई लोग शाकाहारी हो गए हैं क्योंकि वहाँ लॉकडाउन नियमों के तहत कसाईखानों को बंद कर दिया गया है। वहाँ रहने वाले इस्लाम के समर्थकों का कहना है कि वो सब्जियाँ खाने को विवश हैं। एक व्यक्ति ने यहाँ तक माँग की है कि हलाल मीट ज़रूरी है क्योंकि ये स्वस्थ रखता है और जानवरों को मारे जाने वक्त सिर्फ़ अल्लाह का ही नाम लिया जा सकता है।