1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारतीय सेना के 4 जाबाँज सैनिकों को सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से नवाजा गया। जिनमें थे अल्बर्ट एक्का (Albert Ekka), निर्मल जीत सिंह सेखों (Nirmal Jit Singh Sekhon), पूना हॉर्स के सेकेण्ड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल (Arun Khetarpal), जिन्होंने अपने प्राण गँवा कर सबसे कम उम्र के परमवीर चक्र विजेता का सम्मान प्राप्त किया, और चौथे थे मेजर होशियार सिंह दहिया (Hoshiar Singh Dahiya)
1971 की भारत-पाकिस्तान की जंग भारतीय सैनिकों की वीरता और पराक्रम का एक शानदार उदाहरण है। इस जंग से जुड़े जवानों के बहादुरी के कई किस्से हैं। मेजर होशियार सिंह की वीरता की कहानी इन्हीं में से एक है। बसंतर की लड़ाई में घायल होने के बाद भी उन्होंने अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया और पाकिस्तानी सेना को वापस भागने पर मजबूर कर दिया था।
बसंतर की लड़ाई
भारत-पाकिस्तान युद्ध सन 1971 के दौरान 15 दिसम्बर को गोलन्दाज फौज की तीसरी बटालियन, जिसका नेतृत्व मेजर होशियार सिंह दहिया कर रहे थे, को आदेश दिया गया कि वह शकरगढ़ सेक्टर में बसन्तार नदी के पार अपनी पोजीशन जमा लें। वह पाकिस्तान का अति सुरक्षित सैनिक ठिकाना था और उसमें पाकिस्तानी सैनिकों की संख्या भी अधिक थी। यानी, दुश्मन यहाँ अधिक मजबूत स्थिति में था।
फिर भी आदेश मिलते ही मेजर होशियार सिंह की बटालियन दुश्मनों की सेना पर टूट पड़ी। लेकिन मीडियम मशीनगन की ताबड़तोड़ गोलीबारी और क्रॉस फायरिंग के कारण इनकी बटालियन बीच में ही फँस गई। फिर भी मेजर होशियार सिंह दहिया विचलित नहीं हुए। उन्होंने बटालियन का नेतृत्व किया और संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते ही गए। आख़िरकार उन्होंने उस स्थान पर कब्जा कर लिया, जिसके लिए उन्हें आदेश मिला था।
लेकिन दूसरे ही दिन, यानी 16 दिसम्बर को अधिक संख्या में पाकिस्तानी सैनिक आ धमके और लगातार तीन भीषण आक्रमण किए। मेजर होशियार सिंह दहिया और उनके सैनिकों को फिर कठोर अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। मेजर होशियार सिंह एक खाई से दूसरी खाई में बराबर जाते रहे और सैनिकों का हौसला बढ़ाते रहे।
इस तरह उन्होंने पाकिस्तान के सभी आक्रमण विफल कर दिए। अगले दिन, यानी 17 दिसम्बर को पाकिस्तान ने संख्या में अधिक टैंकों की सहायता से फिर से धावा बोल दिया, फिर भी होशियार सिंह मजबूती के साथ डटे रहे। हालाँकि, वे घायल हो चुके थे फिर भी अपने सैनिकों के बीच जाकर उन्हें प्रोत्साहित करते रहे।
इस दौड़-भाग में दुश्मनों की गोलियों की बौछार से वह और अधिक घायल हो गए। फिर भी उन्होंने अपनी जान की चिन्ता नहीं की और अपने साथियों का मनोबल बढ़ाते रहे। घमासान युद्ध चल ही रहा था कि अचानक एक पाकिस्तानी गोला उनकी मीडियम मशीनगन की एक चौकी के समीप आ गिरा।
इस बीच अनेक सैनिक घायल हो गए, मशीनगन बन्द हो गई। जब एक भारतीय मशीनगन का गनर वीरगति को प्राप्त हुआ तो उन्होंने खुद ही उसे सँभाल लिया। उस दिन दुश्मन के 89 जवान मारे गए, जिनमें उनका कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल मोहम्मद अकरम राजा भी शामिल था। मशीनगन चलाना बहुत ही आवश्यक था, इस बात को समझकर मेजर होशियार सिंह ने अपने घावों और दर्द की चिन्ता नहीं की और तुरन्त उस चौकी पर पहुँचे और स्वयं मशीनगन चलानी शुरू कर दी।
उन्होंने कई दुश्मन मार गिराए। इसी पराक्रम के कारण उस दिन भारत को विजय मिली। इसी युद्ध विराम के बाद बांग्लादेश के उदय पर बातचीत शुरू हुई। मेजर होशियार सिंह दर्द से कराह रहे थे, उनका काफी रक्त बह चुका था, फिर भी वे मोर्चा छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। वे वहाँ तब तक डटे रहे जब तक कि युद्धविराम की घोषणा नहीं कर दी गई।
इस लड़ाई के दौरान सेना की समृद्ध परम्पराओं के अनुकूल उत्कृष्ट वीरता, असाधारण युद्ध कौशल और कुशल नेतृत्व का प्रदर्शन करने वाले इस वीर योद्धा का जन्म मई 05, 1936 को हरियाणा के रोहतक जिले के सिसान गाँव में हुआ था।
मेजर होशियार सिंह दहिया वर्ष 1957 में 2 जाट रेजीमेन्ट में भर्ती हुए थे। इन्हें जून 1963 में 3 ग्रेनेडियर्स में कमीशन प्राप्त हुआ। होशियार सिंह लद्दाख तथा राष्ट्रपति भवन में भी सेवारत रहे। मेजर होशियार सिंह ने पूरे समर्पण के साथ देश की सेवा की और ‘ब्रिगेडियर’ के रूप में सेना से रिटायर हुए। 1969 में संयुक्त राष्ट्र मिशन में भाग लेने के लिए ये अपनी यूनिट के साथ कांगो देश गए। मेजर होशियार सिंह दहिया का देहावसान दिसंबर 06, 1998 को हुआ।