Saturday, November 23, 2024
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कितना खोखला है अवसाद से घिरे व्यक्ति को कहना- प्लीज रीच आउट टू मी

इन सबके बीच सबसे बकवास और निहायती खोखला फ्रेज है- 'प्लीज रीच आउट टू मी इन केस ऑफ़ एनी प्रॉब्लम, इस्यू, कंसर्न। आई एम ऑलवेज देयर फॉर यू'। पढ़ने सुनने में ये बहुत बढ़िया लग सकता है। लेकिन हकीकत में यह काम करता है क्या? जब आप ऐसा लिख रहे होते हैं तब आपका ईगो अपना काम कर रहा होता है। जब आप ऐसा लिख रहे होते हैं, आप जान रहे होते हैं कि किन लोगों को आपकी जरुरत है।

सुशांत सिंह की मृत्यु ने सभी को झकझोरा हो अथवा चिंतित किया हो, ऐसा लगता नहीं है। आम आदमी तो इस हादसे से जरूर चिंतित है, लेकिन बनावटी और खोखला बॉलीवुड भी दुखी हो सकता है, ऐसा लगता तो नहीं है। किसी की मौत पर टीवी के सामने शृंगार करती मौकापरस्त हसीना इसका सिर्फ एक छोटा सा उदाहरण है। हाँ, मानव स्वभाव पर बहस की एक बार फिर से शुरुआत जरूर हो गई है।

भारतीय समाज की इकाई से शुरू करते हैं। दूसरों के जज्बातों और विचारों का सम्मान करना हमें ‘बचपन’ से सिखाया ही नहीं जाता है। ना ही इस पर चर्चा की जाती है और न इसे व्यावहारिक शिक्षा में शामिल करना ही जरूरी समझा जाता है। भारतीय समाज में ऐसे कितने अभिभावक होंगे जो अपने बच्चों को दूसरों के विचारों का सम्मान करना सिखाते होंगे? अंग्रेजी शिक्षा के रटंतू सिलेबस के बीच शो-ऑफ़ करना बच्चे जरुर सीख जाते हैं।

ऐसे हजारों-लाखों उदहारण हैं जहाँ माँ-बाप अपने बच्चों को उन हमउम्र बच्चों से दूर रहने को कहते हैं, जिन्हें अच्छी शिक्षा नहीं मिल पा रही या जो ‘फ़्लूएंट’ फ़ेक एक्सेंट में अंग्रेजी नहीं बोल पाते। जिन बच्चों का तिरस्कार किया जाता है, जिनके रूप-रंग और दशा पर सामूहिक हँसी और अट्टहास किया जाता है, उनमें हीन भावना घर करने लग जाती है। हमारे बचपन को सिखाया ही नहीं जाता कि दूसरों के विचारों या परिस्थितियों को समझना भी बेहद जरूरी है।

हमारे भारतीय समाज के डे और बोर्डिंग स्कूल या कॉलेज वैचारिक दमन का जीता-जागता प्रमाण हैं। स्कूल में सीनियर विद्यार्थियों का नए छात्रों को प्रताड़ित करना आम है। बोर्डिंग स्कूल का उदाहरण लेते हैं। ऐसे समय में, जब एक नया विद्यार्थी घर से दूर एक नए, अनजान माहौल में जीने का साहस जुटा रहा होता है, तब सीनियर विद्यार्थियों द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया जाना, गाली-गलौज करना, हाथापाई करना, उनका सामान छीनना और जबरन अपने काम करवाना आम बात है।

डे और बोर्डिंग स्कूल चाहे कैसे भी दावे करें लेकिन स्कूलों में प्रताड़ना की वजह से छात्रों द्वारा आत्महत्या की कोशिशें यदा-कदा समाचारों में आती ही रहती हैं। हम और आप इस प्रताड़ना से गुजर रहे छात्र की मानसिक स्थिति को समझ ही नहीं सकते।

बेहतर होगा कि स्कूलों में व्यवस्था हो कि विद्यार्थियों के लिए ऐसे विषय भी पाठ्यक्रम में शामिल किए जाएँ जो उन्हें अन्य व्यक्तियों की परिस्थितियों और उनके विचारों का सम्मान करना सिखाएँ। अध्यापक, अभिभावक और वार्डन अधिक व्यावहारिक बनें ताकि बच्चे अपनी हर बात बिना हिचकिचाए उनके समक्ष रख सकें। फिर इनकी जिम्मेदारी है कि गंभीरता से, शान्तिपूर्वक छात्रों की समस्याओं का समाधान भी करें।

कॉलेज में रैगिंग के पक्ष में दिए जाने वाले तर्क सबसे अधिक हास्यास्पद होते हैं। मसलन, ‘रैगिंग से नए छात्रों के अंदर की हिचकिचाहट कम होती है, रैगिंग से सीनियर और जूनियर के बीच तालमेल बेहतर होता है, रैगिंग के बाद सीनियर्स अपने जूनियर्स की अधिक मदद करते हैं’ और भी न जाने क्या-क्या। अरे भई! आपको मदद करनी है तो नए विद्यार्थियों को उनका कोर्स समझने में मदद करिए न! स्कूल से, अलग-अलग बैकग्राऊंड से, सामाजिक, आर्थिक ताने-बाने से निकलकर आए, भाषाओं के अल्प ज्ञान से जूझते नए छात्रों के बाल कुतरवा कर आप क्या साबित करना चाहते हैं?

जबरन लड़कों की बेल्ट उतरवा कर और लड़कियों से दो चुटिया बनवाकर कॉलेज में आप कौन से फन्ने खाँ बन जाते हैं? इन नए बच्चों से ‘चार आना, आठ आना’ करवाकर और कॉलेज से हॉस्टल तक लाइन बनवाकर आप उनका मानसिक शोषण ही कर रहे हैं।

सीनियर के शोषण, पढ़ाई का प्रेशर और फ़ाइनल ईयर आते-आते नौकरी और GATE/GPAT/CAT/MAT क्लियर करने के दबाव में कॉलेज के हॉस्टल में रात-रात को दूसरों से छुपकर रोते हुए लड़के भी होते हैं साहब। ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ या ‘लड़के कभी रोते नहीं’ जैसे फालतू बॉलीवुडिया डायलॉग बच्चों पर अनावश्यक दबाव बनाने का ही काम करते हैं।

सरकारी और कॉर्पोरेट दफ्तर की कहानी एक ही है। यहाँ कितने ही मुस्कुराते चेहरे या स्मार्ट पर्सनैलिटी दिखाई देती हों, अंदर से सब एक-दूसरे की तरक्की से जलते ही हैं। ‘स्मार्ट वर्क, स्मार्ट कल्चर, ऑन द टॉप अक्रॉस द ग्लोब’ जैसे जुमले सिर्फ ई-मेल पर ही ठीक लगते हैं।

हकीकत यह है कि लोग चाहते हैं कि आप गलती करें, आपको एप्रिसिएशन न मिले, आपके काम को रिकग्निशन न मिले। यदि मीटिंग में आपके काम की तारीफ होती है तो अंदर तारीफ़ करने वाले, ताली बजाने वाले सब होंगे लेकिन बाहर आते ही दस में से आठ लोग यह कहते पाए जाते हैं कि ‘ये तो बॉस का चाटुकार है’। आपको अवार्ड देने वाला बॉस ही चाय-सुट्टे पर अपने साथियों से कहता पाया जाएगा कि ‘अरे यार इसको देना नहीं था लेकिन क्या करें? सबको खुश रखना पड़ता है।’

सारांश यह कि हमारे समाज में कब यह सिखाया जाता है कि हम दूसरों की तरक्की से सचमुच खुश होना सीखें? हमारे समाज में इंटरव्यू के लिए सीवी पढ़कर नहीं बल्कि फेसबुक और इंस्टाग्राम पर तस्वीरें देखने के बाद बुलाया जाता है।

आप खुद से पूछिए कि आपके मेहनती सहकर्मी की तरक्की से आप कितने खुश होते हैं भला? ऐसे हजारों उदाहरण हैं – जहाँ दफ्तरों में बॉस अपने जूनियर्स पर चिल्लाते हैं, बदतमीजी करते हैं, मानसिक शोषण करते हैं, काम को कम-ज्यादा करने की हेराफेरी करते हुए दमन करते हैं।

इन सबके बीच सबसे बकवास और निहायती खोखला फ्रेज है- ‘प्लीज रीच आउट टू मी इन केस ऑफ़ एनी प्रॉब्लम, इस्यू, कंसर्न। आई एम ऑलवेज देयर फॉर यू’। पढ़ने सुनने में ये बहुत बढ़िया लग सकता है। लेकिन हकीकत में यह काम करता है क्या? जब आप ऐसा लिख रहे होते हैं तब आपका ईगो अपना काम कर रहा होता है। जब आप ऐसा लिख रहे होते हैं, आप जान रहे होते हैं कि किन लोगों को आपकी जरुरत है।

जब आप ऐसा लिखकर मेल भेज देते हैं, उसके बाद आप अपने कितने सहकर्मियों से या जूनियर्स से बात करते हैं? उनकी समस्याओं का समाधान करते हैं? उनकी चिंताएँ सुनते हैं? हमारे कल्चर में लोग सिर्फ बोलना चाहते हैं, बस सुनना कोई नहीं चाहता।

ऑफिस में बॉस से डाँट खाकर आई लड़की या लड़के के पास बैठकर कोई सांत्वना नहीं देना चाहता क्योंकि आपको डर है कि बॉस आपको भी अपना दुश्मन न समझ ले। कहीं बॉस आपका भी अप्रेजल न रोक दे। फिर आप मेल करते हैं- ‘प्लीज रीच आउट टू मी फॉर….’

सांत्वना, अपनापन, प्रेम सब कहीं खो जाते हैं। मानसिक विकार हावी होने लगता है। अपने आस-पास नजर घुमाइए। ऐसे दर्जनों उदाहरण आपको मिल जाएँगे।

बॉलीवुड ने फिर से साबित किया है कि इसकी नींव खाली है और दीवारें खोखली हैं। यहाँ ट्विटर पर प्रेम जताया जाता है, किसी की मौत पर पर्दे के पीछे मेक-अप चल रहा होता है। ऋषि कपूर, इरफ़ान, सुशांत सब भुला दिए जाते हैं।

काम बनता हो तो गधा भी बाप कहलाता है, मतलब न हो तो कला सड़कों पर दम तोड़ती जाती है। सोशल मीडिया पर बनावटी हैशटैग चलाए जाते हैं कि ‘काश! तुम मुझसे एक बार बात कर लेते’। लेकिन हे आर्टिफिशियल मनुष्य! तुम खुद क्यों नहीं बात कर सके उनसे, जब तुम कर सकते थे? तब तुम्हारा ईगो, तुम्हें रोकता था कि कहीं तुम उसकी मदद करने जाओ और वो तुमसे आगे न निकल जाए। कहीं वो तुमसे अधिक सफल न हो जाए। …आओ अब मेकअप कर लें। टीवी पर आने का वक़्त हो चला है।

नोट: ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि हमारे आस-पास अच्छे लोग, स्कूल-कॉलेज या सकारात्मक वातावरण नहीं है या कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा। लेकिन सुशांत के साथ हुई दुखद घटना हमारे समाज की कमजोरियों को भी उजागर करती है। जरुरत है कि हम इनसे सबक सीखें, आत्मचिंतन करें और अपनी आने वाली पीढ़ी को लोगों का, उनके विचारों को सुनने और समझने का महत्त्व समझाएँ। ताकि फिर किसी होनहार सुशांत के परिवार को ऐसी अप्रिय घटना का सामना न करना पड़े।

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