मैथिली ठाकुर- लड़की है! उम्र में छोटी है! और तो और, गिरोहों की सदस्यता भी नहीं ले रखी है! ऐसे कैसे अपना राजनैतिक मत प्रकट कर सकती है? अरे कम से कम सुगर फ्री पीढ़ियों से सर्टिफिकेट तो लिया होता! मैथिली ठाकुर के गाने पर विवाद तो होना ही था। आश्चर्य की बात यह है कि यही विवाद तब नहीं छिड़ा था जब जनकवियों के लिखे गीतों को यूट्यूब पर रिलीज करने पर लोग उसके खिलाफ बोल पड़े थे। तब इन्हीं सूरमाओं को याद नहीं आई थी कि लोकगीतों को, कविताओं को कोई अपनी बपौती नहीं बता सकता। लेकिन फिर सही भी है, याद आती भी कैसे?
थोड़े ही दिन पहले जब मगध के मुख्यमंत्री की सरकार के लिए काम करने वालों ने स्थानीय उत्पादों के लिए जीआई टैग देने का काम शुरू किया तो भी ऐसा ही देखने को मिला था। मगही पान को तो मगही पत्ता के नाम से मान्यता दी गई लेकिन मिथिलांचल के मखाना की बात आते ही बात बदल गई। पुर्णिया जिले के “मिथिलांचल मखाना उत्पादक संघ” (एमएमयूएस) ने बिहार एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के माध्यम से ये आवेदन दिया था। सभी को ये ज्ञात है कि मखाना केवल मिथिलांचल में उपजाया जाता है, ये पूरे बिहार में नहीं उपजता। इसके अलावा भी कहावतों में मिथिलांचल की पहचान “पान, पाग और मखान” बताई जाती है।
इसका नाम मिथिलांचल के बदले बिहार क्यों रखा जा रहा था, इस पर इन तथाकथित प्रगतिशील गिरोहों ने कोई आवाज नहीं उठाई थी। मिथिलांचल के क्षेत्र से भारत के कुल उत्पादन का 75 प्रतिशत मखाना उपजता है। इसका नाम मिथिलांचल से छीनकर किसी और को देने के खिलाफ दरभंगा के पूर्व सांसद कीर्ति आजाद ने भी आवाज उठाई थी। तकनिकी कारणों से मसला अटका और मिथिलांचल की संपत्ति कोई और लूट नहीं पाया। यहाँ सवाल ये भी है कि जब बिहार की ब्रांडिंग लिट्टी-चोखा के नाम पर होती है, तो भला मखाना जो मिथिलांचल में होता है, उसे भुलाया क्यों जाता है?
आखिर ऐसी चीज़ों के बारे में ही तो कोई छोटी सी लड़की याद दिलाने निकली थी! सामंतवादी पुरुषों को लड़की का बोलना भला कैसे बर्दाश्त होता? अगर बिहार की चीज़ों को पहचान मिलने लगे, मिथिलांचल का मखाना या गया का तिलकुट, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाने लगे, ये उनसे बर्दाश्त कैसे होगा?
उनकी स्थिति तो सड़क के किनारे के उन भिखारियों वाली है जो बच्चों को अफीम चटा कर इसलिए बेहोश रखते हैं ताकि उन्हें दयनीय दिखाकर ज्यादा भीख ली जा सके। अगर कोई बिहारी, राज्य के सम्मान की बात करने लगे, गर्व से अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता का प्रदर्शन करने लगे तो उन्हें दिक्कत होनी ही थी। इससे उन्हें मिलने वाले फंड जो कम हो जाएँगे! फिर कभी बाढ़ कभी बीमारी के नाम पर चंदा आना बंद हो गया तो?
मुगालते और मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की दुनिया में जीने के आदि इन लोगों की सबसे बड़ी समस्या है रीढ़ की हड्डी की कमी। बिहार का नाम खराब करने में अकेले लालू यादव का योगदान नहीं है। लालू यादव के चारा घोटाले में पकड़े जाने, जेल जाने पर बात ख़त्म हो जाती। उसे कला-साहित्य के माध्यम से आम बिहारी की पहचान बनाने में तथाकथित बुद्धिपिशाचों ने प्रबल योगदान दिया।
बरसों तक फिल्मों का खलनायक और भ्रष्टाचारी नेता एक ख़ास किस्म की लालू यादव वाली बिहारी भाषा बोलता दिखाया गया। सिवाय मायानगरी की फिल्मों के ये भाषा बिहार में कहीं नहीं बोली जाती। लेकिन ऐसी पहचान बनाने में बिहारियों का चंदे पर पलने योग्य, गरीब, कुचला हुआ, हाशिये पर धकेला गया दिखाने में उन्हें सुविधा होती थी।
लोकतंत्र का मतलब जनप्रतिनिधियों का सरकार चलाना होता है, ये साधारण सी बात बुद्धि-पिशाचों का गिरोह भूल जाता है। अपने प्रतिनिधि चुनते समय मुद्दों पर चर्चा भी होगी, और अपने मुद्दे पर चर्चा करना हरेक व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता है। ये बात कुछ लोगों को हजम नहीं होती। लाइसेंस-परमिट राज के दौर में खाए-पिए-अघाए ये लोग चाहते हैं कि उनसे “सर्टिफिकेट” लिए बिना ना तो कोई समर्थन करे ना विरोध! भला उनकी आज्ञा के बिना बोले ही क्यों? यहाँ तो एक छोटी सी लड़की बोल पड़ी थी और उनकी हालत नंगे राजा वाली हो गई थी जिस पर कोई बच्चा हँस पड़ा हो।
जब विकास की बात होती है तो केवल कमियाँ ही नहीं देखी जातीं। प्रबंधन (मैनेजमेंट) की सफलतम तकनीकों में से एक स्वोट एनालिसिस में कमजोरियों और आसन्न आपदाओं के साथ साथ अच्छाइयों और संभावित मौकों की तलाश भी की जाती है। निराशावादी लोग जो अपने निजी स्वार्थ के लिए एक बच्ची के विरोध में उतर आए हैं, उन्हें भी सोचना चाहिए कि उनका स्तर कितना गिर गया है कि विरोध के लिए वो अपनी बराबरी के लोग भी नहीं चुन पा रहे। शायद वहाँ तर्कों में बुरी तरह पछाड़े जाने का डर होगा? बाकी बिहार में जो अच्छा है, उसे भी सामने लाने के लिए लोककलाकार को जो सम्मान मिलना चाहिए, उसके लिए तो मैथिली ठाकुर की बड़ाई होनी चाहिए, और होगी ही!