2 अक्टूबर महात्मा गाँधी की जयंती है, जिन्हें भारत में ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में भी जाना जाता है। तटीय शहर पोरबंदर में एक गुजराती हिंदू मोध बनिया परिवार में जन्मे गाँधी ने अपनी शिक्षा इंग्लैंड से पूरी की और कानून की प्रैक्टिस करने के लिए वहाँ से दक्षिण अफ्रीका चले गए।
बाद में वे भारत लौट आए और दमनकारी ब्रिटिश शासन के खिलाफ देश के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए। इन सबके अलावा, उन्होंने विभिन्न समुदायों, विशेष रूप से हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के उद्देश्य से दैनिक प्रार्थना सभाओं के आयोजन के साथ प्रयोग किया। इन बैठकों के दौरान गाँधी ने लोकप्रिय भजनों और धार्मिक गीतों के सामुदायिक गायन को प्रोत्साहित किया।
गाँधी ने मुस्लिमों को खुश करने के लिए हिंदू धार्मिक भजन के लिरिक्स के साथ छेड़छाड़ की
गाँधी की प्रार्थना सभाओं में ‘रघुपति राघव राजा राम’ मुख्य आकर्षण का केंद्र था। भजन का इस्तेमाल पहली बार गाँधी द्वारा 1930 में दांडी मार्च के दौरान दांडी तक की 241 मील की यात्रा के दौरान एक नए कानून का विरोध करने के लिए किया गया था, जिसे अंग्रेजों ने भारतीयों को नमक बनाने या बेचने से प्रतिबंधित करने के लिए बनाया था। इस आंदोलन के दौरान गाँधी ने ‘रघुपति राघव राजा राम’ को लोकप्रिय बनाया क्योंकि मार्च करने वालों ने अपने आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए गाया था।
हालाँकि कल्पना के विपरीत, गाँधी भजन के निर्माता नहीं थे। भगवान श्री हरि के मानव अवतार पुरुषोत्तम श्री राम को समर्पित यह भजन श्री लक्ष्मणाचार्य द्वारा रचित श्री नम: रामायणम् का एक अंश है। गाँधी जी इस मूल भजन की 1-2 पंक्तियों को स्वतंत्रता आंदोलन मे अपनी भागीदारी के अनुसार परिवर्तित करके गाया करते थे। इस दौरान एक और मिथक पॉपुलर हो गया था कि यह एक देशभक्ति गीत है जिसका उद्देश्य भारतीय समाज की एक धर्मनिरपेक्ष समग्र छवि पेश करना है। हालाँकि, मूल रचना को, जिसे कभी-कभी राम धुन के रूप में संदर्भित किया जाता था, भगवान राम की महिमा और स्तुति के रूप में वर्णित किया जा सकता है। मूल पंक्तियाँ इस तरह है:
रघुपति राघव राजाराम,
पतित पावन सीताराम।
सुन्दर विग्रह मेघश्याम,
गंगा तुलसी शालिग्राम।
भद्रगिरीश्वर सीताराम,
भगत जन-प्रिय सीताराम।
जानकीरमणा सीताराम,
जय जय राघव सीताराम
यहाँ मूल हिंदू भजन की एक वीडियो है: –
गाँधी इस मूल रचना में बदलाव करके प्रार्थना सभा में गाया करते थे, जो इस प्रकार है-
रघुपति राघव राजाराम,
पतित पावन सीताराम,
भज प्यारे तू सीताराम
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम,
सबको सन्मति दे भगवान।
धार्मिक भजन का यह घटिया संस्करण तुरंत लोकप्रिय हो गया। इसके पीछे गाँधी द्वारा स्वयं इसे प्रमोट करना था और इसके धर्मनिरपेक्ष अर्थ की वजह से यह अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। इस भजन की रचना प्रसिद्ध संगीतज्ञ पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर द्वारा की गई थी।
यहाँ तक कि बॉलीवुड ने भी धार्मिक भजन के मिलावटी संस्करण पर विचार करने में अपनी भूमिका निभाई। हिंदी फिल्मों, जैसे ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ और ‘कुछ कुछ होता है’ में इसका इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा, यह 1982 में अफ्रोबीट बैंड के एल्बम ओसिबिसा- अनलेशेड – लाइव का शुरुआती ट्रैक भी था।
लिरिक्स में इस हेरफेर के साथ मुस्लिमों को अपना समर्थन गाँधी को देने और उन प्रार्थना सभाओं में शामिल होने में कोई समस्या नहीं होती थी, जिसका उद्देश्य दोनों समुदायों के बीच मतभेदों को सुलझाना और सांप्रदायिक सद्भाव बनाना था। हालाँकि, मुस्लिम अल्पसंख्यक की माँगों के साथ सामंजस्य बैठाने की जिम्मेदारी हमेशा हिंदू बहुसंख्यकों की ही रही।
गाँधी ने मुस्लिमों द्वारा रखे गए आरक्षण को संबोधित करने के लिए एक हिंदू धार्मिक गीत के लिरिक्स को विकृत करने में बेजोड़ निपुणता दिखाई, लेकिन उन्होंने कभी भी पवित्र कुरान के आयतों की निंदा नहीं की, जो मूर्ति-पूजा को पाप कहता है और मूर्तिपूजा के लिए मृत्युदंड का आदेश देता है।
गाँधी ने मुस्लिमों को खुश करने के लिए हिंदुओं के राम जाप वाले भजन को विकृत कर दिया। बता दें कि गाँधी के सामुदायिक प्रार्थना में मुस्लिमों का कलमा जाप भी शामिल था। हालाँकि, ऐसी कोई रिपोर्ट या ऐतिहासिक सबूत नहीं हैं, जो यह बताता हो कि गाँधी ने हिंदुओं की चिंताओं को दूर करने के लिए कुरान की आयतों को बदल दिया या कलमा में बदलाव किया था, ताकि इसे आपसी सह-अस्तित्व और सांप्रदायिक सद्भाव के अपने स्वीकृत रुख के अनुकूल बनाया जा सके। शायद इस दोहरेपन के कारण ही विभाजन के दौरान गाँधी की प्रार्थना सभाओं का ध्रुवीकरण हो गया और प्रार्थना सभाओं के दौरान कलमा को शामिल करने पर सवाल उठाए जाने लगे।
समग्र एकता के सार को बनाए रखने के लिए गाँधी द्वारा हिंदुओं के साथ बार-बार विश्वासघात
राम धुन में मिलावट एक ऐसी घटना थी, जिसमें गाँधी ने हिंदुओं की भावनाओं के प्रति बेहद कम संवेदनशीलता दिखाई। उनके लिए अगर हिंदू धर्मग्रंथों और धार्मिक गीतों में बदलाव करने से मुस्लिम चिंताओं को संतुष्ट करने में मदद मिलती है तो यह उचित था। हालाँकि गाँधी ने मुस्लिमों को आधुनिकता को अपनाने और इस्लाम की अपनी शुद्धतावादी व्याख्या को छोड़ने के लिए कहने से परहेज किया।
इसी तरह, अन्य घटनाएँ भी हुईं जब गाँधी का हिंदुओं के हितों को प्रति उदासीन रवैया देखने को मिला। 1920 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस्लामिक खिलाफत के समर्थन में भारतीय मुस्लिमों के बीच एक विद्रोह हुआ था। इसका नाम खिलाफत आंदोलन दिया गया, जिसका उद्देश्य ऑटोमन साम्राज्य की मदद से ब्रिटिश साम्राज्य को नष्ट करके भारत में इस्लामी प्रभुत्व स्थापित करना था। अपने वर्चस्ववादी उपक्रमों के बावजूद गाँधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस ने 1920 में खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया और इसे हिंदू-मुस्लिम संबंधों को मजबूत करने के एक महान अवसर के रूप में बताया।
गाँधी के संरक्षण के कारण खिलाफत आंदोलन ने मालाबार में भी प्रभावी हुआ और इसकी आड़ में भयानक हिंदू नरसंहार को अंजाम दिया, जिसे 1921 मोपला दंगों के रूप में भी जाना जाता है। विभाजन के समय, जब पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों को बेरहमी से मार डाला गया था, गाँधी ने नरसंहार को भाग्यवाद के रूप में बचाव करने की कोशिश की और तर्क दिया कि हमले में मारे गए हिंदुओं ने कुछ हासिल किया था, क्योंकि हत्यारे कोई और नहीं बल्कि उनके मुस्लिम भाई थे।
उन्होंने पश्चिमी पंजाब के हिंदू शरणार्थियों के लिए भी इसी तरह की टिप्पणी की, उन्हें घर लौटने के लिए कहा, भले ही वे मारे जाएँ। गाँधी चाहते थे कि वे हिंदू जो मौत से बचने के लिए पाकिस्तान से भाग कर भारत आए हैं, वो वापस लौट जाएँ और अपने भाग्य को गले लगा लें। इस प्रकार, गाँधी के आदर्शों का प्रारूप न केवल स्पष्ट रूप से अन्यायपूर्ण, कट्टरपंथी और गलत था, बल्कि एकतरफा भी था, जहाँ हिंदू हमेशा सांप्रदायिक कट्टरता का शिकार होते थे। उनके खिलाफ किए गए अत्याचारों पर या तो पर्दा कर दिया गया था या फिर नैतिक व्याख्याओं का उपयोग करके उचित ठहराया गया था।
गाँधीवादी धर्मनिरपेक्षता आज भी भारत को सताती है
दुर्भाग्य से, धर्मनिरपेक्षता का यह विकृत संस्करण, जिसका गाँधी ने समर्थन किया, यह आज भी भारत को परेशान कर रहा है। धर्मनिरपेक्षता की विकृति और बदतर हो गई है। वामपंथी झुकाव वाले बुद्धिजीवी हिंदुओं को अपराधबोध की तरफ ले जाने की कोशिश करते हैं और यह विश्वास दिलाते हैं कि उनकी हिंदू पहचान की मुखरता के कारण बहुलवाद खतरे में है।
धर्मनिरपेक्षता का यह तमाशा ही है कि गाँधी के हिंदू धार्मिक गीतों के घटिया संस्करण को महिमामंडित किया जाता है, जबकि पैगंबर मुहम्मद पर एक स्पष्ट चर्चा के अनुरोध को ‘सर तन से जुदा’ या सिर काटने के आह्वान के साथ पूरा किया जाता है। इस तरह की धमकियाँ देने वाले लोगों की निंदा करना तो दूर, लेफ्ट-लिबरल धर्मनिरपेक्षतावादियों ने उनकी धमकी को यह कहते हुए उचित ठहराया कि उन्हें ऐसा करने के लिए उकसाया गया था।
इसी तरह, इस साल की शुरुआत में यूपी शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी ने एक याचिका दायर कर कुरान से 26 आयतों को हटाने की माँग की थी। उनका दावा था कि इसमें आतंकवाद का समर्थन किया गया है। इसके बाद बड़े पैमाने पर आक्रोश फैल गया, सैकड़ों-हजारों प्रदर्शनकारी जामा मस्जिद में याचिका के विरोध में इकट्ठे हुए।
केंद्र और राज्य सरकारों को भेजे गए एक ज्ञापन में मुस्लिम प्रदर्शनकारियों ने उनके कृत्य के लिए ‘तत्काल गिरफ्तारी’ की माँग की। उन्होंने चेतावनी दी कि रिजवी के खिलाफ निष्क्रियता का मतलब होगा कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था याचिका के समर्थन में है। उन्होंने जोर देकर कहा, “वसीम रिजवी अब पवित्र कुरान का अपमान करने में लिप्त है, इसलिए वह अब मुस्लिम नहीं है।” इसके अलावा, मुस्लिम निकायों ने माँग की कि उन्हें किसी भी मुस्लिम संस्थान में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।
इस मामले में भी भारत की धर्मनिरपेक्षता के स्वयंभू संरक्षकों ने वसीम रिजवी या पवित्र कुरान में संशोधन की उनकी माँग के समर्थन में आवाज नहीं उठाई। इसके बजाय, उन्होंने यूपी शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष का विरोध करते हुए सड़कों पर उतर आए और उनकी गिरफ्तारी का आह्वान किया। ऐसे छद्म धर्मनिरपेक्षों के लिए अल्पसंख्यक चिंताओं को समायोजित करने के लिए एक हिंदू धार्मिक भजन को विकृत करना पूरी तरह से उचित कार्य है, लेकिन जब इस्लाम में लाए गए बेहद जरूरी सुधारों का समर्थन करने की बात आती है तो उन सभी के मुँह सिल जाते हैं।
जैसा कि गाँधी ने स्वयं निर्धारित किया था, भारत में धर्मनिरपेक्षता एकतरफा रास्ता है जहाँ राष्ट्र के बहुलवादी ताने-बाने को संरक्षित करने का भार पूरी तरह से हिंदुओं के कंधों पर है। वहीं, अन्य समुदायों के सदस्य अपनी मर्जी के अनुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं और सांप्रदायिक सद्भाव और सामाजिक एकता के आदर्शों को बनाए रखने के लिए उन पर कोई दायित्व नहीं है।