कश्मीर पर लागू अनुच्छेद 370 में मूलभूत संशोधन किए गए हैं और विचित्र-विचित्र प्रतिक्रियाओं से समाचार जगत आच्छादित है। पाकिस्तान ने 15 अगस्त को इसके विरोध मे काला दिवस मनाने की घोषणा की है। भारत सरकार ने इसके उपलक्ष्य में अच्छे पड़ोसी होने के नाते काला दिवस के शुभ अवसर पर एक वरिष्ठ पत्रकार और एक विफल नेता की सेवाएँ एक शुभंकर के नाते उपलब्ध कराने की पेशकश की है।
भारत का मानना है कि प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ और विपक्ष के टटपूँजिया नेताओं को टैगित कर के समाचार प्रस्तुत करने की विधा के यह प्रणेता पत्रकार एक शुभंकर के रूप मे 1982 के एशियाई खेलों के शुभंकर अप्पू से अधिक लोकप्रिय होने का माद्दा रखते हैं। भारत सरकार का यह मानना है कि आतंकवाद और निर्धनता के तिमिर मे धँसी पाकिस्तान सरकार को काला दिवस के स्थान पर पाकिस्तानी राष्ट्रीय विचार के अनुकूल काली दशाब्दी मनानी चाहिए और संभव हो तो कराची में भारत में नरसंहार और ड्रग स्मग्लिंग के महानायक के बँगले के निकट ऐसे महान पत्रकारों के लिए प्लॉट काटने चाहिए।
बहरहाल, ज्ञानी लोग अनुच्छेद 370 पर निर्बाध रूप से चर्चा कर रहे हैं कि किस प्रकार 1948 में कश्मीर का भारत ने आधिकारिक विलय चार वर्ष पश्चात 1952 में आई 370 और छह वर्ष पश्चात आई 35-ए पर निर्भर था। छह वर्ष इन धाराओं के अभाव मे विलय उसी प्रकार रहा जैसे नेता विहीन काँग्रेस और दिशाविहीन वर्तमान भारतीय विपक्ष। क्योंकि मैं व्यंग्य लेखक हूँ, मेरा ज्ञान सीमित है, इसलिए कैसे पहले आया निर्णय बाद मे आई धारा पर निर्भर है, इस पर मैं नहीं जाऊँगा। वैसे भी यह लेख वाशिंगटन पोस्ट मे छप कर कौन सा मुझे रैमन मैग्सेसे पुरस्कार दिलाने वाला है, जिस पर राहुल गाँधी अति-उत्साहित होकर तीन-तीन बधाई संदेश भेजें और प्रणब दा के भारत रत्न के आने तक शुभकामनाओं का स्टॉक ही समाप्त हो जाए। मेरा सीमित ध्येय बस ऑपइंडिया के दीर्घकेशीय संपादक को चाय पानी (और शैंपू) का प्रलोभन दे कर ऑपइंडिया मे इस लेख को छपवाना है।
सो मेरा विश्लेषण कश्मीर निर्णय के पश्चात भारतीय बुद्धिजीवी समाज के वर्ग-विभाजन तक सीमित है। इस विषय पर विगत दिनों मैंने बहुत शोध किया है। इस शोध के आधार पर निर्धन हिंदी लेखक होने के बावजूद मुझे डॉक्टर नहीं तो कम से कम कम्पाउंडर की मानद उपाधि मिल ही जानी चाहिए। झुमरी तलैया विश्वविद्यालय से कम्पाउंडर साकेत सूर्येश नाम से संबोधित होने का सुख प्रदान करवाने का नैतिक दायित्व हमारे भाजपा आईटी सेल के फोकटिये कार्यकर्ता होने के नाते लाँछन के कारण श्री अमित मालवीय पर आयद होता है। एक अच्छा लेखक दो पंक्ति के सार को दो पुस्तकों का विस्तार दे सकता है।
इसी परंपरा में ‘मोदी राज ने अनुच्छेद 370 पर बुद्धिजीवी वर्ग विभाजन’ पर मैं कम्पाउंडर की मानद उपाधि के प्रलोभन पर 300 पृष्ठ का शोध प्रकाशित करके श्री रामचंद्र गुहा सरीखे विद्वानों की दीर्घा में स्वयं को स्थापित करने की सामर्थ्य रखता हूँ। इस भूमिका का लब्बोलुबाब यह है कि समाज में वर्ग भेद का प्रमुख सूचक भाषा और उच्चारण का भेद है। यह हम संस्कृत और प्राकृत के समय से देखते हैं। आज भी भारतीय समाज कश्मीर के मुद्दे पर दो भागों में बँट गया है। एक हमारे जैसा अल्पशिक्षित वर्ग है जो उसे कश्मीर कहता है, दूसरा अतिशिक्षित कान्वेंट शिक्षित अभिभावकों की कान्वेंट शिक्षित संतानों का वर्ग है जो इसे भारत के इस भू-भाग को कैशमीर कह कर संबोधित करता है।
पहले वर्ग के अनुसार यह वह भूमि है जहाँ मानव समाज की स्थापना हिंदू ऋषि कश्यप ने की। दूसरे वर्ग के अनुसार वहाँ आज तक ऋषि कश्यप के नाम की नेम प्लेट तक नहीं मिली है और इसलिए इस स्थान का नाम कैशमीर उचित है, क्योंकि यह 1947 के बाद से पाकिस्तान को विश्व भर से और भारत के वर्ग विशेष को पाकिस्तान से कैश उपलब्ध कराता रहा है। अपने शोध मे मैंने इस ओर ध्यान दिलाने का भी प्रयास किया है कि अनुचछेद 370 में संशोधन के समर्थन में खड़ा वर्ग उसे कश्मीर और विरोध में खड़ा पूर्व गृहमंत्री वाला समुदाय इसे कैशमीर कह कर संबोधित करता है। कहीं न कहीं, मूनमून सेन की चाय और शेहला रशीद की हाय के बीच बँटे भारतीय समाज के मूल में कैश और कश्यप का यही भेद है।
जैसे कश्मीर एक भू-भाग नहीं सोच है, जो कैराना से केरल तक जाती है, कैशमीर भी एक सोच है जो दस जनपथ दिल्ली से क्लिफ्टन रोड कराची तक फैली है। एक सोच आपको प्राचीन ऋषियों के समान न्याय के पक्ष हमें लँगोट में पहुँचा सकती है, वहीं दूसरी सोच आपको कैश देकर अमीर बहुत अमीर बना सकती है। इस मूल भेद को जब हम समझ जाएँगे, कश्मीर समस्या स्वत: सुलझ जाएगी। इसी प्रयास मे मेरा शोध इस महान राष्ट्र के चिंतकों की सेवा मे समर्पित है जो पेटीएम कर के इसकी प्रति प्राप्त कर सकते हैं।