बच्चे-बच्चे को पता है कि हम दीपावली अथवा दिवाली का त्योहार इसीलिए मनाते हैं, क्योंकि त्रेता युग में इसी दिन भगवान श्रीराम लंका में रावण का वध कर के वापस अयोध्या लौटे थे। उन्हें 14 वर्ष का वनवास हुआ था, ये भी बताने की ज़रूरत नहीं है। अपने लोकप्रिय राजा का अयोध्या की जनता ने दीप जला कर और आतिशबाजी से स्वागत किया। लेकिन, क्या आपको पता है कि सिखों के लिए दिवाली दोगुने उत्साह का दिन है? ये दिन गुरु हरगोबिंद से जुड़ा हुआ है और ‘बन्दी छोड़ दिवस’ के रूप में भी मनाया जाता है?
आइए, आपको सिखों के छठे गुरु हरगोबिंद साहिब जी की कहानी सुनाते हैं। सिख समाज के पाँचवें गुरु अर्जन देव जी को जहाँगीर ने सिर्फ इसीलिए मरवा दिया था, क्योंकि उसे पवित्र गुरु ग्रन्थ साहिब के कुछ अंश मुस्लिम विरोध लगे थे और वो उसे हटाने के लिए तैयार यहीं हुए थे। इस तरह की क्रूर मुगलिया करतूतों के बाद सिख समाज को लगा कि हथियार उठाए बिना काम नहीं चलेगा। अतः, गुरु हरगोबिंद ने भक्ति के साथ-साथ शक्ति पर भी जोर देना शुरू कर दिया।
सन् 1606 में अपने पिता की हत्या के बाद हरगोबिंद जी को काफी कम उम्र में ही गुरु की पदवी स्वीकार करनी पड़ी थी। ये वो समय था, जब सिखों के उत्थान से मुग़ल साम्राज्य को अपनी नींव हिलती हुई महसूस हो रही थी। मात्र 11 वर्ष की उम्र में गुरु बने हरगोबिंद जी अपने साथ दो तलवार रखते थे, जिसे मीरी और पीरी के नाम से जाना गया। मीर से बना है मीरी, अर्थात नेता या शासक। पीर से बना है पीरी, अर्थात आध्यात्मिक गुरु।
गुरु हरगोबिंद ने अपने साथ-साथ 52 राजाओं/राजकुमारों को कैद से मुक्त कराया
अब आप समझ गए होंगे कि ये दोनों तलवार भौतिक विजय और आध्यात्मिक चेतना जागृत करने का प्रतीक थे। सन् 1612 में जहाँगीर ने उन्हें भी गिरफ्तार करवा दिया था। उन्हें ग्वालियर स्थित एक जेल में रखा गया था। 1614-15 ईस्वी में जिस दिन उन्हें कैद से मुक्त किया गया था, उस दिन दिवाली ही थी। इस दिन को सिख समाज इसके बाद से ‘बन्दी छोड़ दिवस’ के रूप में मनाने लगा, अर्थात जेल से छूटने के उत्सव के रूप में। जब वो अमृतसर पहुँचे, तो उनका दीप और पटाखों के साथ स्वागत किया गया था।
इसका अर्थ ये कतई नहीं लगाइएगा कि इससे पहले सिख समाज दिवाली नहीं मनाता था। असल में यही तो दिन होता था, जब गुरु की संगत में दूर-दूर के लोग जुटते थे और उनके प्रवचन का आध्यात्मिक लाभ लेते थे। इन पर्व-त्योहारों का सिख धर्म में भी महत्व है। असम में दिवाली के दिन पहुँचे गुरु नानक ने वहाँ के लोगों को उपदेश दिया था। गुरु गोविन्द सिंह ने रामायण की कथा को फिर से लिखा। गुरु हरगोबिंद का वापस आने दोहरी ख़ुशी का कारण बना।
हालाँकि, बाहर भी मुगलों के जासूस उनके पीछे पड़े रहते थे। उन्होंने जहाँगीर की कैद से मुक्त होकर सिख समाज का फिर से नेतृत्व करना शुरू किया। उस जेल में पहले से ही जहाँगीर ने 52 राजाओं और राजकुमारों को कैद कर के रखा था। उन सभी को कैद के दिनों में गुरु के आध्यात्मिक ज्ञान का लाभ मिला और उन सबने हरगोबिंद साहिब को अपना गुरु माना। लेकिन, इस रिहाई के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है।
जब गुरु गरगोबिन्द ने जहाँगीर के सामने ये माँग रखी कि उनके साथ-साथ उन 52 राजाओं और राजकुमारों को भी छोड़ा जाए, तब बादशाह ने एक शर्त रखी। इस्लामी आक्रांता ने कहा कि गुरु के कपड़े को जितने राजा पकड़ सकेंगे, उतने ही रहा होंगे। गुरु ने भी ऐसा कुर्ता सिलवाया, जिसके 52 हिस्से थे और एक-एक कर सभी राजा बाहर आ गए। जहाँगीर अपनी बेइज्जती की वजह से कुछ नहीं कह सका। गुरु हरगोबिंद के बाद उनके पोते हर राय गुरु बने थे।
जानबूझ कर गुरु हरगोबिंद को पंजाब से दूर ग्वालियर में कैद कर के रखा गया था। वो गुरु हरगोबिंद ही थे, जिन्होंने युवाओं को घुड़सवारी और तलवारबाजी सीखने के लिए आह्वान किया। उन्होंने अपनी सेना बनाई, युवाओं को प्रशिक्षण दिया। उन्होंने ही 1609 ईस्वी में हरमंदिर साहिब के मुख्य द्वार पर ‘अकाल तख़्त’ की स्थापना की। इसका अर्थ है – सत्य का सिंहासन। समाज की भाई के कार्यों के लिए ये पद सृजित किया गया था।
जहाँगीर ने कैसे करवाई थी गुरु अर्जन देव जी की हत्या
15 अप्रैल, 1563 को पंजाब के तंरतारन स्थित गोयंदवाल जन्मे गुरु अर्जुन देव जी को मुग़ल आक्रांता जहाँगीर के अत्याचारों का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपना सिर नहीं झुकाया और न ही अधर्मियों की बात मानी। जहाँगीर हर हाल में सिख गुरु अर्जुन देव को मृत देखना चाहता था, जिसके काई कारण थे। मुगलों को लगता था कि गुरु ग्रन्थ साहिब में इस्लाम को लेकर कुछ गलत बातें लिखी गई हैं, जिन्हें हटाया जाना चाहिए।
जहाँगीर को ये भी लगता था कि गुरु अर्जुन देव जी बागी शहजादा खुसरो की सहायता कर रहे हैं। लेकिन, सबसे बड़ा कारण ये था कि सिख संप्रदाय जिस तरह से आगे बढ़ रहा था, उससे इस्लामी आक्रांता भयभीत हो उठे थे। गुरु अर्जुन देव जी को ‘शहीदों का सरताज’ कहा जाता है। गुरु रामदास की पत्नी बीबी भानी के तीन पुत्र थे – जिनमें सबसे बड़े का नाम पृथ्वी चंद्र था और सबसे छोटे तीसरे पुत्र अर्जुन देव थे। इन दोनों के बीच में जो थे, उनका नाम महादेव रखा गया था।
उन दिनों सिखों के तीसरे गुरु अमरदास गोयंदवाल में ही रहा करते थे। गुरु अर्जुन दास तीनों भाइयों में सबको सबसे ज्यादा योग्य लगते थे और साथ ही उनमें अपने पिता और नाना अमर दास के गुण भी भरे पड़े थे। इस कारण सभी उनसे प्रेम करते थे। उनका विवाह जालंधर जिले के मऊ गाँव के कृष्ण चंद्र की पुत्री गंगा देवी से हुआ था। गंगा देवी की कोख से ही सिखों के छठे गुरु हरगोविंद का जन्म हुआ था। असल में ये उनका दूसरा विवाह था, क्योंकि पहली पत्नी का देहांत हो चुका था और उनकी कोई संतान नहीं हुई थी।
गुरु अर्जन देव जी को पहले रावी नदी के किनारे ले जाया गया। वहाँ एक जलती हुई भट्ठी के ऊपर लोहे की चादर डाली गई, जो काफी गर्म हो उठी थी। उन्हें तपती हुई लोहे की चादर पर बिठा दिया गया और ऊपर से गर्म बालू डाला गया। इस तरह गुरु अर्जुन देव जी को सिख संप्रदाय में ‘प्रथम शहीद’ का दर्जा मिला। इस तरह उन्हें मृत्युदंड दिए जाने के पीछे जहाँगीर के मन में एक और कारण था, वही विचारधारा, जिस पर चल कर आज भी हिन्दू विरोधी हिंसा की जाती है।
गुरु अर्जुन देव जी पर जब शहजादा खुसरो की सहायता का आरोप लगाया गया, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि गुरु के दरबार में आने से किसी को रोका नहीं जा सकता और यहाँ जाति-पाति या धर्म-मजहब का भेदभाव भी नहीं चलता है, ऐसे में अन्य लोगों के समान खुसरो भी गुरु के दरबार में आया था और उसे रोकना गुरु परंपरा के विरुद्ध था। 30 मई, 1606 को उन्हें जहाँगीर के आदेश पर मार डाला गया। वो बलिदान हो गए।