Thursday, November 14, 2024
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दिल्ली में आए 50 हजार किसान, अपनी बात कह लौट गए खेत-खलिहान: न कोई टेंट गड़ा-न किसी पर ट्रैक्टर चढ़ा, फिर ‘बक्कल उतार दूँगा’ वाले कौन थे

राकेश टिकैत कहते थे कि उनके पास 700 माँगों की सूची है? क्या उनके 'बक्कल उतारने' जैसे बयानों से लगता भी था कि वो सचमुच किसानों की समस्याओं के समाधान के प्रति सकारात्मक हैं? केंद्र सरकार के मंत्रियों ने कई राउंड की वार्ताएँ की, सब विफल। 'कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (CAIT)' ने बताया कि 'किसान आंदोलन' के कारण देश को 60,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।

‘किसान आंदोलन’ – अगर कोई किसान कहे कि ये हमें बदनाम करने के लिए हुआ था, तो आप क्या सोचेंगे? लेकिन, आंदोलनजीवियों के देश भारत में कुछ ऐसा ही हुआ है। ‘किसान गर्जना रैली’ में आए देश भर के किसानों ने जाति-भाषा-क्षेत्र से ऊपर उठ कर एक सवाल से कहा कि राकेश टिकैत हमारे नेता नहीं हैं। ‘किसान आंदोलन’ किसानों को बदनाम करने के लिए था, किसानों ये यही कहा। फिर राकेश टिकैत को ‘किसान नेता’ बनाने वाले कौन लोग थे?

स्पष्ट है, विपक्ष में बैठे दलों ने उन्हें ‘किसान नेता’ बनाया, जो उनके आंदोलन में बढ़-चढ़ कर शामिल थे। बदले में इन ‘किसान नेताओं’ ने पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भाजपा के विरुद्ध चुनाव प्रचार किया। उन्हें ‘किसान नेता’ बनाया मीडिया ने, जिसके सामने वो भड़काऊ बयान देते रहते थे और प्रेस वालों को मसाला मिलता रहता था। उन्हें ‘किसान नेता’ बनाया पंजाब के खालिस्तानियों और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जातिवादी ठेकेदारों ने, जो अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने में लगे रहते थे।

जरा याद कीजिए उस ‘किसान आंदोलन’ को, जिसने एक साल तक दिल्ली की सीमाओं को ऐसा घेर रखा था कि NCR के लाखों कामकाजी लोगों को प्रतिदिन परेशानी होती थी और वो कुछ कर भी नहीं सकते थे। AAP की सरकार इन प्रदर्शनकारियों को राशन-पानी मुहैया कराती थी। केंद्र सरकार ने भीड़तंत्र के विरुद्ध कड़ा रुख नहीं अपनाया और अंततः तीनों कृषि कानूनों को रद्द किए जाने के साथ ही कृषि सुधार की योजना अटक गई।

ये भला कैसा ‘किसान आंदोलन’ था, जहाँ हत्याएँ और बलात्कार हुए। ये कैसा ‘किसान आंदोलन’ था, जहाँ स्थानीय ग्रामीणों की लड़कियों के साथ छेड़छाड़ होती थी। ये कैसा ‘किसान आंदोलन’ था, जिसकी भीड़ ने लाल किले पर चढ़ कर तिरंगे झंडे का अपमान किया। ये कैसा ‘किसान आंदोलन’ था, जहाँ प्रदर्शनकारियों के सामने बेबस पुलिसकर्मी जान की भीख माँगते नज़र आए। ये कैसा ‘किसान आंदोलन’ था, जिसके जरिए पाकिस्तान भारत में अशांति फैलाने की कोशिश में लग गया था।

जब मैं सोमवार (19 दिसंबर, 2022) को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित ‘भारतीय किसान संघ’ की ‘किसान गर्जना रैली’ को कवर करने पहुँचा, तो वहाँ 50,000 किसानों के शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन को देख कर मन में सवाल उठा कि क्या राकेश टिकैत, दर्शन पाल, हन्नान मोल्लाह और योगेंद्र यादव जैसों के नेतृत्व में जो हुआ क्या उसे सचमुच में ‘आंदोलन’ कह सकते हैं? ‘किसान गर्जना रैली’ में देश भर के किसान जुटे थे और उनका कहना था:

  • कृषि कानूनों के विरोध में हुआ ‘किसान आंदोलन’ राजनीति से प्रेरित था।
  • राकेश टिकैत हमारे नेता नहीं हैं।
  • ‘किसान आंदोलन’ को राजनीतिक फंडिंग थी।
  • ‘किसान आंदोलन’ किसानों को बदनाम करने के लिए हुआ था।
  • ‘किसान आंदोलन’ की माँगें प्रांतीय थीं और दुर्भावना से पूर्ण थीं।

असल में ‘किसान गर्जना रैली‘ में किसान उसी दिन सुबह को या एकाध दिन पहले दिल्ली पहुँचे और उनमें से अधिकतर उस दिन शाम को रैली संपन्न होने के साथ ही वहाँ से निकल गए। मध्य दिसंबर के बाद की ठंड में राष्ट्रीय राजधानी में जुटे इन किसानों को खेती-बारी भी देखनी होती है और अभी गेहूँ सहित अन्य रबी फसलों के मौसम में उन्हें खेत में समय देना होता है। फिर सोचिए, ‘किसान आंदोलन’ में वो कौन लोग थे जो एक साल से भी अधिक समय तक बैठे रहे और खेती-बारी किए बिना ही उनका घर चलता रहा?

‘किसान गर्जना रैली’ में कई महिलाएँ भी थीं। रैली खत्म होने के बाद ये लोग छोटे-मोटे फल या घर से लाए हुए भोजन को खाते दिखे। हालाँकि, संगठन ने वहाँ भोजन की व्यवस्था की थी। यहाँ कोई लक्जरी वाले टेंट नहीं थे, जो था सब सामने दिख रहा था। टेंटों में एसी सहित अन्य सुविधाएँ हम राकेश टिकैत वाले ‘किसान आंदोलन’ में देख चुके हैं। लेकिन, यहाँ किसान एक आम किसान की तरह थे – अपने प्रांत के परिधान में, अपनी स्थानीय संस्कृति का प्रदर्शन करते हुए, शांतिपूर्ण ढंग से मीडिया के सामने अपनी बातें रखते हुए।

‘किसान आंदोलन’ से बलात्कार की खबरें आती थीं, ‘किसान गर्जना रैली’ में दिखी महिलाओं की सहभागिता

‘किसान गर्जना रैली’ को लेकर मीडिया में खबरें आईं। ‘किसानों का प्रदर्शन’ – ये शब्द सुनते ही जनता की प्रतिक्रिया काफी कटु रही। किसी ने पूछा कि अब वो और क्या मुफ्त में माँगने आए हैं तो किसी ने कहा कि केंद्र सरकार ने झुकते हुए कृषि कानूनों को रद्द कर दिया, फिर ये क्यों निकले हैं? किसानों और उनके प्रदर्शनों को लेकर इस तरह की धरना बनने के कारण वही 1 साल तक चला ‘किसान आंदोलन’ है, जो सिंघु और टिकरी जैसी दिल्ली की सीमाओं पर बैठा हुआ था।

राकेश टिकैत कहते थे कि उनके पास 700 माँगों की सूची है? क्या उनके ‘बक्कल उतारने’ जैसे बयानों से लगता भी था कि वो सचमुच किसानों की समस्याओं के समाधान के प्रति सकारात्मक हैं? केंद्र सरकार के मंत्रियों ने कई राउंड की वार्ताएँ की, सब विफल। ‘कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (CAIT)’ ने बताया कि ‘किसान आंदोलन’ के कारण देश को 60,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। आवश्यक वस्तुओं की आवाजाही में दिक्कतें आईं।

जबकि, ‘किसान गर्जना रैली’ में दृश्य इसके उलट था। वहाँ तैनात पुलिसकर्मी और पैरा-मिलिट्री के लोग निश्चिंत थे। कानून के साथ हर व्यक्ति सहयोग कर रहा था। चाँदनी चौक और आसपास के इलाकों में ठेले लगाने वाले छोटे-मोटे सामान लेकर वहाँ पहुँच गए थे, ताकि कुछ सामान बिक जाए। बाहर से आए ऊनी कपड़ों और सस्ती चीजों की लोग खरीददारी भी कर रहे थे। कहीं कोई भगदड़ नहीं मची। बुजुर्ग से लेकर युवा और महिलाओं तक की उपस्थिति रही।

बैग्स में ज़रूरी कपड़े व सामान लेकर आए थे किसान, फिर इन्हें लाद कर रेलगाड़ी से लौट गए

‘किसान गर्जना रैली’ में हमने किसानों को अपने सामान और झोलों को रख कर उनकी सुरक्षा करते देखा। ये लोग ज़रूरत के कपड़े व अन्य सामान अपने साथ लेकर आए थे, जिन्हें वो ले गए। कोई रेलवे स्टेशन का पता पूछ रहा था तो कोई अपने परिचितों को फोन कॉल कर उनसे मिलने जा रहा था। इस आंदोलन में आम लोग थे, फैंसी जमात नहीं। हाँ, AAP सरकार ने इनके -पानी उपलब्ध नहीं कराया था, क्योंकि ये उपद्रवी नहीं थे।

‘किसान आंदोलन’ में खालिस्तानियों की सक्रियता भी छिपी नहीं थी। प्रतिबंधित संगठन SFJ का पन्नू लगातार वीडियो जारी कर सिख युवाओं को भड़काता रहा। ट्रैक्टर को हथियार बनाने से लेकर लाल किले पर खालिस्तानी झंडा फहराने तक की बातें हुईं। ISI के लोग इस ‘आंदोलन’ में घुस गए। निहंगों द्वारा लखबीर सिंह नामक दलित की बेअदबी के आरोप में हत्या हो या शराबियों द्वारा मुकेश को ज़िंदा जलाना – ‘किसान आंदोलन’ नशा और कट्टरवाद का अड्डा बना हुआ था। 26 जनवरी, 2021 को ट्रैक्टर से स्टंट के कारण एक किसान की मौत भी हुई, जिस पर राजदीप सरदेसाई जैसों ने फेक न्यूज़ फैलाया

सामान की सुरक्षा के साथ-साथ फल खाती किसान महिलाएँ

जबकि, ‘किसान गर्जना रैली’ में पर्यावरण और स्वास्थ्य की सुरक्षा की बातें की जा रही थीं, प्रकृति की बात हो रही थी। आक्रोश यहाँ भी था, केंद्र सरकार का विरोध यहाँ भी हो रहा था – लेकिन, किसी खास पार्टी के प्रति दुर्भावना नहीं थी। टिकरी बॉर्डर बंगाल की युवती से गैंगरेप हुआ और इस खबर को दबाने की भी भरसक कोशिश हुई। महिला पत्रकारों के साथ बदसलूकी हुई। वहीं ‘किसान गर्जना रैली’ में हर उम्र की महिलाएँ विरोध प्रदर्शन में शामिल नज़र आईं और स्वच्छंद होकर अपनी परंपरा का प्रदर्शन करती भी दिखीं।

एक वो ‘किसान’ थे जिन्होंने गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली में घुस कर 300 पुलिरकमियों को घायल कर दिया था और राम मंदिर की झाँकी को नुकसान पहुँचाया था। एक ये किसान हैं, जो आए, सरकार के सामने अपनी माँगें रखी, प्रदर्शन कर के आक्रोश जताया और फिर लौट गए। अहिंसा, लोकतंत्र और शांति की बात की। एक वो ‘किसान’ थे, जिन्होंने सड़क और सार्वजनिक स्थानों पर कब्ज़ा किया था। जिन्होंने ‘किसान’ शब्द को गाली बनाने के लिए हर वो चीज की जो एक किसान नहीं करता।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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