Sunday, December 22, 2024
Homeविचारसामाजिक मुद्देजब साधु-संतों पर इंदिरा सरकार ने चलवाई गोलियाँ, गौ भक्तों के खून से लहूलुहान...

जब साधु-संतों पर इंदिरा सरकार ने चलवाई गोलियाँ, गौ भक्तों के खून से लहूलुहान हो गई थी दिल्ली

उन दिनों इंटरनेट नहीं था, तो शायद ही यह पता चले कि असल में कितने लोग मरे थे। लेकिन इस घटना से यह तो साफ़ पता चलता है कि भारतीय सत्ता हिन्दू-विरोध की बुनियाद पर बने सेक्युलरिज़्म नामक सिद्धांत की वाहक 'सेक्युलरासुर' हमेशा से रही है। गौ रक्षकों को उस समय भी अपमान, हिंसा, हत्या के अलावा कुछ नहीं मिलता था।

गौ रक्षा आधुनिक हिंदुत्व/हिन्दू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण अंगों में से एक रहा है। किंवदंती है कि मुगलों का दार उल इस्लाम उखाड़ फेंकने वाले मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने ‘कैरियर’ की शुरुआत एक मुस्लिम कसाई का वध करके की थी, जब वह एक गाय की हत्या करने जा रहा था। सावरकर हालाँकि वैसे तो ईश्वरीय, परा-प्राकृतिक सत्ता को लेकर संशयवादी/नास्तिक थे, लेकिन जीवित गाय से प्राप्त होने वाले गौ-उत्पादों (पंचगव्य- दूध, घी, दही, गोबर और गौमूत्र) के वैज्ञानिक महत्व और लाभ, और गायों के साथ भारतीय जनमानस के भावनात्मक और आस्था के जुड़ाव के चलते वे भी गौ-रक्षा के समर्थक थे। भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों, Directive Principles of State Policy, में भी गायों के संवर्धन और रक्षण की बात कही गई है।

लेकिन इतने सब के बावजूद गौ रक्षक और गौ भक्त इस देश के सबसे अपमानित समूहों में से हैं, इस पर कोई दोराय नहीं हो सकती। कभी भारत में बैठकर रिपोर्टिंग करने वाली विदेशी रिपोर्टर फ़ुरक़ान खान “गौमूत्र पीने वालों, अपना गौमूत्र वाला धर्म छोड़ दो, आधी समस्याएँ दूर हो जाएँगी” की नसीहत दे कर चलीं जातीं हैं, क्योंकि पता है भारत सरकार घंटा कुछ करेगी। कभी आदिल डार गौमूत्र पीने वाले काफ़िरों को सबक सिखाने के लिए वीडियो संदेश छोड़कर पुलवामा हमला करता है, ताकि उन्हें पता चल जाए उनका क्या हाल होने वाला है। लिबरल गिरोह में जिसे लगता है कि किसी हिन्दू से कोई ट्विटर बहस वह हारने वाला है, वह ‘गौ भक्त’, ‘गौ रक्षक गुंडे’ और ‘गौमूत्र पीने वाले’ का तमाचा मार कर ब्लॉक कर देता है- क्योंकि हमारे खुद के नेता ही गौ रक्षकों को गाय की हत्या से रक्षा करने की भावना रखने भर से गुंडा घोषित कर देते हैं।

यह कोई 2014 या 2016 में पैदा हुई बीमारी नहीं है- आज़ादी के बाद से इस देश के नेता हमेशा ही गौ भक्तों को हिकारत भरी नज़रों से ही देखते रहे हैं, भले ही वे नेतागण अपने निजी जीवन में हिन्दू रीति-रिवाजों का नियमपूर्वक पालन करने वाले क्यों न हों, भले ही वे जनता से गाय-बछड़े का चुनाव चिह्न लगाकर वोट क्यों न बटोर रहे हों। ऐसे नेताओं में अग्रणी नाम भारत के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में गिनी जाने वालीं (लिबरल गिरोह के हिसाब से तो नंबर 1), ‘आयरन लेडी’ इंदिरा गाँधी का है।

आज से 53 साल पहले आज ही के दिन (7 नवंबर, 1966 को; विक्रम संवत में कार्तिक शुक्ल अष्टमी, जिसे गोप अष्टमी भी कहते हैं) इंदिरा गाँधी की सरकार ने निहत्थे साधु-संतों के नेतृत्व में गौ हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की
लोकतान्त्रिक तरीके से माँग कर रहे 3 से 7 लाख की भीड़ पर गोली चलवाई, आँसू गैस के गोले छोड़े, लाठियाँ बरसवाईं। यानी, दमन के वह सभी हथियार जनता को दोबारा चखने को मिले जिनको ब्रिटिश छोड़ कर गए थे, और जिनसे मुक्ति के सब्ज़बाग दिखाकर इन्हीं कॉन्ग्रेसी नेताओं ने आम आदमी को आज़ादी की लड़ाई में जोता था।

इस प्रदर्शन के आयोजक थे राजनीतिक ज़मीन तलाशता दिवंगत हो चुके श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भारतीय जन संघ, मदन मोहन मालवीय और सावरकर के बाद किसी नए उद्धारक की आस देख रही हिन्दू महासभा (सावरकर ने उसी साल फरवरी में आमरण अनशन से प्राण त्यागे थे), आर्य समाज के नेता, विश्व हिन्दू परिषद और सनातन धर्म सभा नामक 1952 में बना संगठन।

संसद भवन के बाहर उन्हें रोक दिया गया और साधु-संतों ने अंदर बैठे सत्ताधीशों को निशाने पर लेकर इकठ्ठा भीड़ को सम्बोधित करना शुरू कर दिया। इसके पहले काफ़ी समय से माँग की जा रही थी कि संविधान के उन हिस्सों, जिन पर अमल करना सरकार के लिए जरूरी नहीं, से गौ-रक्षा को सरकार असली, ठोस नीति के रूप में कानून की शक्ल दे। इसको लेकर आंदोलन नेहरू के समय से चल रहा था और कॉन्ग्रेस के भीतर भी इसके समर्थकों की कमी नहीं थी। लेकिन मोहनदास करमचंद गाँधी की विरासत की दावेदारी से सत्ता पाने वाले जवाहरलाल नेहरू के आगे आवाज़ें घुटी हुईं थीं।

1965 में इस आंदोलन को हवा मिलनी शुरू हुई थी और देश के तीन शंकराचार्यों ने भी इस आंदोलन को अपने आशीर्वचन दे दिए थे। इसके बाद देश भर में विरोध-प्रदर्शन से लेकर भूख हड़तालें शुरू हो गईं थीं।

पहले तो इंदिरा गाँधी ने नई-नई सत्ता की अकड़ में मीडिया से कह दिया कि वे ऐसी किसी माँग के आगे नहीं झुकेंगी, लेकिन 7 नवंबर आते-आते ऐसा लगने लगा था कि वे जनभावना के सम्मान में नरम पड़ सकती हैं। आखिरकार 7 नवंबर को रैली हुई, और इस रैली के पीछे की भावनाओं को अगर और कुछ नहीं तो इस बात से समझा जा सकता है कि इसे उस तारीख तक दिल्ली में आज़ाद भारत की सबसे बड़ी रैली माना जाता है। इसमें वे नग्न नगा साधु भी शामिल हुए, जो आम तौर पर समाज से दूर रहते हैं, जो अपने पास आने वाले अधिकांश श्रद्धालुओं को भी दौड़ा कर दूर भगा देते हैं। The Spokesman नामक अखबार के अनुसार इस रैली में कुल 15,000 के आस-पास तो केवल साधु-संन्यासी ही थे। अन्य रिपोर्टों में इसके अलावा बड़ी संख्या में औरतों और बच्चों के भी होने की बात कही जाती है।

उस समय तक शांतिपूर्वक चल रही रैली की भीड़ तब उत्तेजित हो गई जब पता चला कि भारतीय जनसंघ के सांसद स्वामी रामेश्वरानंद को “अगरिमापूर्ण आचरण” के आरोप में संसद से धक्के मारकर निकाल दिया गया है।

इसके बाद भीड़ को गुस्सा आ गया और भीड़ की उत्तेजना के जवाब में पुलिस ने लाठियाँ भांजनी, गोलियाँ चलानी और आँसू गैस के गोले दागने शरू कर दिए। बाद में विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनने वाले चम्पत राय उस रैली में बतौर बीएससी के एक छात्र मौजूद थे। वे बताते हैं कि उस समय संयोगवश मंच पर अटल बिहारी वाजपेयी नामक वही आदमी भाषण दे रहा था, जो युवावस्था में श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भारत को अंतिम संदेशवाहक था और बाद में भारत का ‘अजातशत्रु’ कहलाने वाला प्रधानमंत्री बना।

इसमें मरने वालों की संख्या पर बहुत विवाद है- सरकारी आँकड़े जहाँ महज़ 7 या 8 लोगों के मारे जाने की बात स्वीकारते हैं (और 500 से अधिक लोगों के अस्पताल में भर्ती होने की बात अगले ही दिन एक अखबार में छपी थी)। संघ विचारक केएन गोविंदाचार्य इस आँकड़े को 200 से ज्यादा बताते हैं। कुछ दक्षिणपंथी संगठनों का दावा है कि असल में 5000 से अधिक लोगों ने जान गँवाई थी, और उन्हें बिना निशान की कब्रों में सरकार ने दफन करा दिया (पत्रकारिता का समुदाय विशेष इसे ‘WhatsApp यूनिवर्सिटी’ से निकला आँकड़ा बताता है) टाइम्स ऑफ़ इंडिया में इस घटना के अगले ही दिन छपी रिपोर्ट में पुलिस के 209 राउंड फायरिंग की बात कही गई थी।

अपने “इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा” अंदाज़ में इंदिरा गाँधी ने बाद में संसद में इस प्रदर्शन को अपनी सरकार नहीं, देश और पूरे लोकतान्त्रिक सिद्धांत के ही खिलाफ बताने का फतवा जारी कर दिया। साथ ही तत्कालीन गृह मंत्री (और दो बार देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री का ओहदा संभाल चुके गौ-हत्या विरोधी) गुलज़ारी लाल नंदा का इस्तीफा ले लिया।

चूँकि उन दिनों इंटरनेट नहीं था, तो शायद ही यह पता चले कि असल में कितने लोग मरे थे, या पहले भीड़ ने हिंसा की (जैसा कि मिंट आदि का लिबरल गैंग दावा करता है), या अंग्रेजी शासन का खुमार नहीं भूली पुलिस ने अपनी राजनीतिक आका को खुश करने के लिए ‘यस बॉस’ कर हमला बोल दिया था। लेकिन इस घटना से यह तो साफ़ पता चलता है कि भारतीय सत्ता हिन्दू-विरोध की बुनियाद पर बने सेक्युलरिज़्म नामक सिद्धांत की वाहक ‘सेक्युलरासुर’ हमेशा से रही है। गौ रक्षकों को उस समय भी अपमान, हिंसा, हत्या के अलावा कुछ नहीं मिलता था।

गलती शायद हिन्दुओं की ही है- अगर गोप अष्टमी के दिन साधुओं के नेतृत्व के जनसमूह पर गौ रक्षा के मुद्दे पर वही शासक हमला कर दे, जनता रक्षक होना जिसका प्राकृतिक धर्म है, और गौ रक्षक होने का जो खुद ही को निर्देश देता है, तो नियति का इशारा उसी दिन समझ जाना चाहिए था कि गौ रक्षकों, गौ भक्तों के तो अच्छे दिन नहीं ही आने वाले हैं।

Join OpIndia's official WhatsApp channel

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

किसी का पूरा शरीर खाक, किसी की हड्डियों से हुई पहचान: जयपुर LPG टैंकर ब्लास्ट देख चश्मदीदों की रूह काँपी, जली चमड़ी के साथ...

संजेश यादव के अंतिम संस्कार के लिए उनके भाई को पोटली में बँधी कुछ हड्डियाँ मिल पाईं। उनके शरीर की चमड़ी पूरी तरह जलकर खाक हो गई थी।

PM मोदी को मिला कुवैत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘द ऑर्डर ऑफ मुबारक अल कबीर’ : जानें अब तक और कितने देश प्रधानमंत्री को...

'ऑर्डर ऑफ मुबारक अल कबीर' कुवैत का प्रतिष्ठित नाइटहुड पुरस्कार है, जो राष्ट्राध्यक्षों और विदेशी शाही परिवारों के सदस्यों को दिया जाता है।
- विज्ञापन -