Tuesday, November 5, 2024
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‘माँ’ को छोड़ ‘मर्दानगी’ पर अटके मुनव्वर, ‘मर्दाना कमज़ोरी’ के शर्तिया इलाज के लिए वामपंथियों ने लगाई लाइन

जहाँ इंदौरी ने अपना पूरा जीवन 'बाप-बाप' करते हुए गुज़ार दिया, राना विभिन्न मंचों से 'माँ-माँ' चिल्लाते हुए दिखे। जनता ने रात इंदौरी को बता दिया है कि ये किसके 'बाप का हिंदुस्तान' है, लेकिन मुनव्वर राना को उतनी तवज्जो नहीं दी गई। अपने आप को इंदौरी से पिछड़ना उन्हें कभी मंजूर नहीं रहा है, ऐसा वो.....

भारत में जब भी हालिया दौर के शेरो-शायरी की बातें होती हैं तो राहत इंदौरी और मुनव्वर राना की चर्चा ज़रूर होती है। दोनों पिछले कई दशकों से देश-विदेश में घूम कर कई मंचों से अपना हुनर पेश कर चुके हैं। अब जब भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार दोबारा लौट कर आई है, दोनों के ही अंदर छिपा ‘मुसलमान’ बाहर आ गया है। और वो ‘डर का माहौल’ वाले समूह के मार्गदर्शक मंडल में शामिल हो गए हैं। अब इस उम्र में दोनों को वामपंथी तवज्जो देने से तो रहे, इसीलिए उनकी सेवाएँ मार्गदर्शक मंडल से ही ली जा रही हैं।

जहाँ इंदौरी ने अपना पूरा जीवन ‘बाप-बाप’ करते हुए गुज़ार दिया, राना विभिन्न मंचों से ‘माँ-माँ’ चिल्लाते हुए दिखे। जनता ने रात इंदौरी को बता दिया है कि ये किसके ‘बाप का हिंदुस्तान’ है, लेकिन मुनव्वर राना को उतनी तवज्जो नहीं दी गई। अपने आप को इंदौरी से पिछड़ना उन्हें कभी मंजूर नहीं रहा है, ऐसा वो कई बार स्वीकार भी कर चुके हैं। ऐसे में, भला वो यहाँ भी कैसे पीछे रहते। मुनव्वर राना ने ‘माँ से लेकर नामर्द तक’ का सफर तय करते हुए बता दिया कि उनकी शायरी का स्तर कहाँ जा पहुँचा है, ये देखिए:

अगर दंगाइयों पर तेरा कोई बस नहीं चलता,
तो फिर सुन ले हुकूमत, हम तुझे नामर्द कहते हैं।

इसमें कोई शक की बात नहीं है कि इस शेर में ताज़ा जेएनयू हिंसा के सम्बन्ध में बात की जा रही है। मुनव्वर राना इल्ज़ाम लगा रहे हैं कि केंद्र सरकार, मोदी के नेतृत्व वाली सरकार, दंगाइयों और उपद्रवियों से निपटने में नाकाम सिद्ध हो रही है। मुनव्वर राना का एक वीडियो भी आया है, जिसमें वो छाती ठोकते हुए इस शेर को पढ़ते दिख रहे हैं। उनकी आदत रही है कि जब वो एक शब्द को पकड़ते हैं तो उसे सालों नहीं छोड़ते। वैसे अब उन्हें अपने शेर भी याद नहीं रहते और मंच से लोग बार-बार याद दिलाते हैं, तब जाकर वो आधा-अधूरा कुछ पढ़ पाते हैं।

अब उनकी डिक्शनरी में ‘नामर्द’ शब्द आया है तो ये भी लम्बा चलेगा, ऐसा प्रतीत होता है। मुनव्वर राना कहते हैं कि वो ऐसा ही हिंदुस्तान देखना चाहते हैं, जैसा उन्होंने पैदा होने के समय देखा था। अब 1952 में उन्होंने पैदा होते ही कैसा हिंदुस्तान देख लिया था, ये तो नहीं पता, लेकिन उस समय इतना ज़रूर था कि अधिकतर स्वतंत्रता सेनानी देश के मार्गदर्शन के लिए ज़िंदा थे और उस साल हुए चुनाव में देश ने सत्ता की बागडोर कॉन्ग्रेस को थमाई थी। पैदा होते ही देश के हालात भाँपने की मुनव्वर वाली क्षमता शायद औरों में नहीं हो।

आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर ‘अपने अंदर के मुसलमान’ का इशारा पाकर राहत इंदौरी कल को राजीव चौक के किसी मेट्रो पिलर के नीचे बैठ कर ‘मर्दानगी की दवा’ बेचते हुए दिखें। आधुनिकता के झंडाबरदार तो ‘मर्दानगी’ को ‘पुरुष तानाशाही’ का प्रतीक मानते हैं, फिर ‘मर्द’ होना मुनव्वर राना जैसे वरिष्ठ शायर की नज़र में गर्व की बात कब से हो गई? और किस मेडिकल संस्थान द्वारा चेक किया जाएगा कि हुकूमत ‘मर्द’ है या फिर ‘नामर्द’? क्या मुनव्वर राना ख़ुद अपने ‘उपकरणों’ का प्रयोग कर के सर्टिफिकेट देंगे कि कौन ‘मर्द’ है और कौन ‘नामर्द’? मुनव्वर राना के अंदर के ‘मुसलमान’ का एक और शेर देखिए;

हमारे जैसे वफ़ादार कम ही निकलेंगे,
ज़मीन खोद के देखो तो हम ही निकलेंगे।

यहाँ मुनव्वर राना ये संकेत दे रहे हैं कि मुस्लिमों में दफनाने का रिवाज है, हिन्दुओं की तरह जलाने का नहीं, इसीलिए वो देश की मिट्टी में मिले हुए हैं, ज़्यादा वफ़ादार हैं। हिन्दुओं में जलाने का रिवाज है। मृत शरीर राख हो जाता है। राख मिट्टी में मिल जाता है। जलने से धुआँ होता है, जो हवा में मिल जाता है। हड्डियाँ पवित्र नदियों में बहाई जाती हैं। तो क्या अब कल को कोई हिन्दू शायर कह दे कि जल-थल-नभ में हम ही मिलेंगे, तो मुनव्वर जैसे शायर उसे सांप्रदायिक ठहरा देंगे। क्या अब वफादारी का फ़ैसला इसी आधार पर होगा कि किसको जलाया जाता है और किसको दफनाया जाता है? मुन्नवर राना के जवाब में कोई केंचुआ शायर कुछ यूँ शेर पढ़ सकता है:

तुम मिट्टी में दफ़न हो कर भी वफ़ादार हो गए,
आधी मिट्टी हमारी टट्टी है, हम कैसे बेकार हो गए?

इस हिसाब से केंचुआ तो इस देश का सबसे बड़ा वफादार हुआ क्योंकि उसकी टट्टी मिट्टी को उपजाऊ बनाती है, उसमें फसलें उपजती हैं और वही अन्न हमारी थालियों में आता है। मुनव्वर राना ने अब जब ‘मर्दानगी’ की बातें कर ही दी है और हमारे ‘सटायर विभाग’ के सूत्रों ने इसकी भी पुष्टि कर दी है कि वो जल्द ही ‘मर्दानगी’ वाली एक क्लिनिक खोलने वाले हैं, जिसका नाम होगा- ‘मुनव्वर की मर्दानगी क्लिनिक’। इसमें वो ‘मर्दानगी’ की दवाएँ देंगे और जाँच कर के बताएँगे कि कौन ‘मर्द’ है और कौन ‘नामर्द’। उनकी इस क्लिनिक में राहत इंदौरी की भी फंडिंग होगी। इसमें वामपंथियों का ‘इलाज’ मुफ़्त में किया जाएगा। हर बृहस्पतिवार को राना लाल कुआँ स्थित अपने तम्बू में भी मिलेंगे।

जाते-जाते एक और बात का जिक्र करना आवश्यक है। मुनव्वर राना ने दंगाइयों के ख़िलाफ़ कार्रवाई न करने का आरोप लगा कर केंद्र सरकार को ‘नामर्द’ का तमगा दे दिया। जब यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार दंगाइयों से सख्ती से निपटती है तो यही मुनव्वर राना सबसे पहले बिलबिलाते हुए बिल से निकलते हैं। उपद्रवियों द्वारा फेंके गए एक-एक पत्थर का हिसाब लेने वाली यूपी की भाजपा सरकार की उन्होंने इसीलिए आलोचना की, क्योंकि वो दंगाइयों के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर रही है। यानी, सरकार दंगाइयों को छोड़ दे तो दिक्कत और उन पर कार्रवाई करे तो दिक्कत। मुनव्वर का ये शेर देखिए:

हमारे कासा-ए-सर को ना रौंदो इस तरह भाई,
हमारा बाप तुम लोगों की दस्तारें बनाता था।
मुसाहिब की सफ़ों में भी मेरी गिनती नहीं होती,
यही वो मुल्क है जिसकी मैं सरकारें बनाता था।

मुनव्वर राना ने ये शेर तब ट्वीट किया था, जब योगी सरकार चुन-चुन कर दंगाइयों से सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई करवा रही थी। वैसे भी, मार्गदर्शक मंडल में बयान देना, ट्वीट करना और शेरो-शायरी करने से ज्यादा कोई काम होता नहीं। फ़िलहाल हम ये पुष्टि करने में जुटे हैं कि ‘मुनव्वर की मर्दानगी क्लिनिक’ का फी कितना होगा क्योंकि इस सूचना के बाद कई वामपंथियों ने ‘ऑपइंडिया व्यंग्य विभाग’ को कॉल कर के इस बारे में जानकारी चाही है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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