नसीरुद्दीन शाह को एक बार फिर इस देश में भय महसूस होने लगा है। कम लोग ही ये बात जानते हैं कि आखिरी बार जब उन्हें इस देश मे रहकर भय महसूस हुआ था तब वो ‘वेलकम’ , ‘जैकपॉट’ और ‘बूम’ जैसी फिल्मों में अपनी एक्टिंग देख रहे थे।
आम आदमी तो बस ये सोचकर हैरान है कि जो इंसान हर दूसरे दिन वैश्विक स्तर पर विवादित संस्थाओं के साथ बैठकर अपने दातून करने से लेकर सोने और जागने तक की खबरों को हाई क्वालिटी कैमरा से रिकॉर्ड कर के हर दूसरे दिन लोगों को दिखा रहा है, उसे आखिर और कितनी अभिव्यक्ति की आज़ादी की ज़रूरत है? रही बात डर लगने की, तो डर तो वास्तव में अब आपसे सबको लगना चाहिए नसीरुद्दीन साहब, कि न जाने ऐसे अभी और कितने लोग यहाँ छुपे हुए हैं, जो भारत-विरोधी ताकतों का सबसे पहला हथियार बन सकते हैं। आप ये भूल रहे हैं कि देश में जिस अंधकार की आप बात कर रहे हैं, उसी माहौल के बीच अपनी बात खुलकर किसी विवादित संस्था के साथ मिलकर रख पा रहे हैं।
ये महज इत्तेफ़ाक़ ही हो सकता है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जितने निबंध और सत्संग इस देश में 2014 लोकसभा चुनावों के बाद हुए हैं, शायद ही किसी लोकतन्त्र के इतिहास में कभी इस विषय पर इतनी खुलकर चर्चा हुई हो। वरना इतिहास जानता है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इस देश में लगभग साठ लाख लोगों की नसबंदी करवा डाली थी। गुलफ़ाम हसन साहब कभी नहीं जान पाएँगे कि ये देश अपने नागरिकों से लंबे-घने-घुँघराले बालों वाले, डरावने फ़ैशन रखने वाले बच्चे पैदा करने तक की आजादी छीन चुका है।
कुछ साल पहले ऐसे ही एक मनचले, भटके हुए युवाओं के समूह ने जब अभिव्यक्ति की आज़ादी छिन जाने की बात की थी तब उन्हें इस देश ने राष्ट्रीय स्तर का नेता बना दिया था। उसके बाद अभिव्यक्ति की आज़ादी छिन जाना बेकार युवाओं के बीच एक तगड़ा प्लेटफॉर्म बनकर उभरा है। ‘मेक इन जेएनयू’ ने ‘मेक इन इंडिया’ से ज्यादा नम्बर हासिल किए हैं।
अब हर युवा जैसे ही सनसनी बनने निकलता है, अभिव्यक्ति की आज़ादी छिन जाने का दिव्य पाशुपत्यास्त्र उसकी जेब में है। घर में सुबह 11 बजे तक रज़ाई मे दुबककर फ़ेसबुक पर ‘एंजेल प्रिया’ बनकर लड़कों से चैटिंग कर रहे क्रांतिजीव युवा को जब घरवाले बिस्तर छोड़ने की बात करते हैं तो वो भी अभिव्यक्ति की आज़ादी छिन जाने का खुलकर दावा करने लगता है।
देश में रहकर डरने वालों में नसीरुद्दीन शाह पहले आदमी नहीं हैं। शाहरुख खान का नाता यूँ तो ‘डर’ के साथ पुराना है लेकिन फिर भी यश चोपड़ा के रहते वो इस देश में कभी नहीं डरे। डरने का मौका उन्हें 2014 के बाद नसीब हुआ और उसके बाद वो जी भरकर डरे। अपना डर दूर करने के लिए वो कभी पाकिस्तान तो वो नहीं जा पाए लेकिन एयरपोर्ट पर उनका डर दूर करने के साक्ष्य अमेरिका के पास जरूर हैं।
डरे हुए लोगों की लिस्ट में एक नाम सबसे बड़े कलाकार आमिर खान का भी रहा है। जिन्होंने हिन्दू आस्था पर तसल्ली से प्रहार करती ‘PK’ जैसी फ़िल्म इसी देश के दर्शकों के बीच रहते हुए उन्हीं के लिए बनायी। उन्हीं हिन्दुओं से रुपए और नाम कमाने के बावजूद भी उन्हें इस देश में डर लगा।
ये बात अलग है कि इस डर का बदला अब आमिर खान ने यहाँ की जनता को अपनी फ़िल्म ‘ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान’ दिखा कर ले लिया है। इसलिए शायद अब वो हिंदुस्तान छोड़कर जाने का अपना मन भी बदल चुके हैं। अब इतने कद्दावर लोगों के बाद अगर नसीरूद्दीन साहब डर रहे हैं तो इसका कारण ये भी हो सकता है कि उन्होंने टीवी पर हर सप्ताह आती ‘ग़दर’ फ़िल्म देख ली हो।
नसीरुद्दीन शाह के बयानों से प्रभावित होकर अब सनी लियोनी और पूनम पांडे को भी महसूस होने लगा है कि इस देश ने सच में उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन किया है, जब पत्रकारों ने पूछा कि वो डिविलियर्स के स्ट्राइक रेट से क्यों अंग प्रदर्शन करने लगी हैं? इस पर उनका भी यही जवाब था कि अपनी अभिव्यक्ति का अधिक इस्तेमाल वो अब मोदी सरकार का विरोध करने के लिए कर रही हैं।
जिस तरह मुखर होकर वर्तमान सरकार के अंदर लोग बोलने की स्वतन्त्रता को लेकर आश्वस्त हुए हैं, अगले चुनाव आने से पहले किसी दिन पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी पहल कर बोल देना चाहिए कि ‘हाँ, वाकई में राजमाता ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाकर दस वर्षों के लिए उनसे अभिव्यक्ति कि आज़ादी छीन ली थी।’
‘मोहरा’ फ़िल्म के उस ज़िंदाल सेठ को अभी तक दुनिया भूली नहीं है, जो दुनिया की आँखों मे धूल झोंकने के लिए खुद अपनी आँखों पे काला चश्मा पहनकर विशाल अग्निहोत्री जैसे सीधे-सादे नवयुवक से तस्वीर पर लाल निशान खिंचवाने की प्रैक्टिस करवाता था। फिर विशाल क्या बन गया ये हम सब जानते हैं। शायद नसीरुद्दीन शाह अपने अंदर के गुलफ़ाम हसन वाले किरदार से अभी तक बाहर नहीं आ पा रहे हैं।
नसीरुद्दीन शाह साहब, असंवेदनशील भीड़ से हर किसी को डर लगता है। बहुत लोगों को मुहर्रम की भीड़ से डर लगता है, बहुत से लोग हैं जिन्हें बाज़ार जाते हुए भी डर लगता है, क्योंकि वो इस देश में मुंबई आतंकी हमले जैसी तमाम घटनाओं पर इस्लामी आतंक के हस्ताक्षरों को भूल नहीं सके हैं। हम में से कइयों को हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को ‘फलाँ ज़िले में बम फटने से कई मरे’ की ख़बर सुनने से डर लगता है। किसी को बनारस के घाट पर जाने से डर लगता है, किसी को संकटमोचन मंदिर जाने से डर लगता है। डर तो इस बात से भी लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम दंगे/झगड़े मे ‘समुदाय विशेष’ की जगह ‘मुस्लिम समुदाय’ लिखने पर मुझे साम्प्रदायिक कह दिया जाएगा। लेकिन क्या करें साहब, मन मारकर जी रहे हैं, क्योंकि यहाँ तो हिन्दू नाम होना ही साम्प्रदायिक हो जाने की निशानी है।
शायद आपके राजनीतिक सिद्धान्त इस बात को ना मानते हों लेकिन इस देश का इतिहास जानता है कि इस देश ने हर धर्म, आस्था, मत, सम्प्रदाय को शरण दी है, जबकि बदले में इस देश को सिर्फ उन्हीं में से अधिकांश शरणार्थियों ने नफ़रत, घृणा और हिंसा से नवाज़ा है।
यही वो देश है जिसके प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के अंदर से इसी देश के विरोध में नारेबाज़ी की जा सकती है। और यही वो सरकारें हैं जो इस बात को आसानी से नज़रअंदाज़ कर आपको रातों-रात शहीद भगत सिंह के बराबर लाकर खड़ा कर देती हैं।
इस देश कि सहिष्णुता का मिज़ाज ये है कि हिंदुओं की आस्था के सबसे बड़े प्रतीक, गाय को कभी चुनावी फ़ायदों के लिए पार्टी का चुनाव चिह्न बनाया जाता है, तो कभी सिर्फ हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के उद्देश्य से ही सड़कों पर गाय काट कर उत्सव मनाया जाता है।
उम्र और कैरियर के जिस पड़ाव पर आप आज खड़े हैं, वहाँ पर आपसे हर कोई एक जिम्मेदार बयान की उम्मीद करता है, लेकिन इस देश के हर नागरिक की आपसे बस यही विनती हो सकती है कि आप इस घृणा और नफ़रत की खाई को अगर कम नहीं कर सकते हैं, तो कम से कम इस खाई को और बढ़ाने का काम ना करें। वरना आपकी सस्ती लोकप्रियता के लिए अपनाए जा रहे हथकंडे यही साबित करते हैं कि इस देश के लिए ‘गुलफाम हसन’ साहब सिर्फ अफसोस हो सकते हैं सरफरोश नहीं।
चलते-चलते ये सूचना भी देता चलूँ कि नसीर जी की पिछले 7 सालों में 35 फ़िल्मों को बॉक्सऑफिस इंडिया पर ‘डिज़ास्टर’ की रेटिंग मिली है जो कि ऐसे महान अदाकार को लेकर देश के जनता की असहिष्णुता ही कही जा सकती है। ‘उह ला ला’ इनका आख़िरी हिट गाना है।