Sunday, November 17, 2024
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संसद में स्प्रे करने वाले लौंडे का लाठी से नहीं हुआ ‘स्वागत’ इसलिए छटपटा रहे हैं RJD के ‘लठैत’: कुटाई पर लिबरल प्रलाप ‘दुख’ नहीं, ‘दर्द’ है उनका

जब 'दर्द' गहरा हो और पिटने वाला लौंडा 'अपना' हो तो लाठी बगैर उसका 'स्वागत' लोकतंत्र की सेहत के लिए खराब हो ही जाता है। यही कारण है कि बिहार को 15 साल तक जंगलराज के चरमसुख का भोग कराने वाली राष्ट्रीय जनता दल (RJD) को इस 'स्वागत' से ज्वर हो गया है।

जब टीवी एलीट माना जाता था, तब उस पर एक प्रचार आता था। जिसमें उस दौर के बुजुर्ग अभिनेता अशोक कुमार और शम्मी कपूर यह समझाते नजर आते थे कि ‘स्वागत मतलब पान पराग’ होता है। उसी दौर में बिहार में एक मसीहा उभर रहा था, जिसे आमलोगों का नेता माना जाता था। यह दूसरी बात है कि बाद में वह ‘चाराखोर’ निकला और लोगों को यह भी पता चला कि उसके लिए ‘स्वागत’ का मतलब लाठी होता है।

जाहिर है कि जिनकी ट्रेनिंग ही लाठी वाले चरवाहा विद्यालय में हुई हो वे झोंटा पकड़कर खींचने, मुक्का मारने, जूतियाने… को तो ‘स्वागत’ नहीं ही मानेंगे। इसलिए लोकसभा में 13 दिसम्बर 2023 को कूदकर स्प्रे मारने वाले लौंडे की सांसदों वाली कुटाई कुछ लोगों को रास नहीं आई है। लेकिन यह उनका दुख नहीं (जैसा कुछ लोग समझ रहे हैं), बल्कि दर्द है।

जब ‘दर्द’ गहरा हो और पिटने वाला लौंडा ‘अपना’ हो तो लाठी बगैर उसका ‘स्वागत’ लोकतंत्र की सेहत के लिए खराब हो ही जाता है। यही कारण है कि बिहार को 15 साल तक जंगलराज के चरमसुख का भोग कराने वाली राष्ट्रीय जनता दल (RJD) को इस ‘स्वागत’ से ज्वर हो गया है। राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष (यदि वहाँ ऐसे किसी पद की औकात हो) शिवानन्द तिवारी ने कहा है कि वह यह मान नहीं सकते कि वह युवक संसद में हिंसा फैलाने के लिए कूदा था। उनका विचार है कि यह ‘छोटी-मोटी घटना’ है।

छोटी-मोटी घटना वाली उनकी बात में दम है, क्योंकि तेजाब से युवकों को नहलाने वाले शहाबुद्दीन को उनकी ही पार्टी उस लोकसभा में भेजा करती थी, जिसमें 13 दिसंबर को स्प्रे वाली घटना हुई है। वहीं राजद के बुद्धिजीवी होने का दावा करने वाले (यह दावा सिद्ध नहीं किया जा सकता) प्रोफेसर मनोज झा का कहना है कि सांसदों पर हमला करने आए युवकों की पिटाई ‘असंसदीय’ है और सांसदों की छवि (अगर उनकी छवि पहले से कुछ अच्छी है तो) को बिगाड़ता है।

भले प्रोफेसर झा स्वयंभू बुद्धिजीवी हों लेकिन उनकी यह बात मूर्खतापूर्ण लगती है।अपने ऊपर हमले से बचने के लिए प्रतिक्रिया करने का अधिकार देश का संविधान भी इस देश के लोगों को देता है। जाहिर है सांसदों ने संविधान का पालन किया है। (इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं)

सांसदों ने अगर उस युवक को नियंत्रित करने के लिए पकड़ा और अपनी तथा सदन में मौजूद लोगों की जान बचाने के लिए उसे एकाध हाथ लगाए तो यह आत्मरक्षा ही कहा जाएगा। (नहीं भी कहोगे तो क्या कर लोगे?)

क्या प्रोफ़ेसर झा इस बात की गारंटी ले सकते हैं कि अगर उस युवक को पकड़ कर मारा ना गया होता तो वह किसी सांसद को नुकसान नहीं पहुँचाता?

वह बात अलग है कि उनकी पार्टी के मालिक यादव परिवार के छोटे बेटे (कम से कम कागजों के अनुसार) और बिहार के वन एवं पर्यावरण मंत्री (अगर उन्हें यह होने में कोई रूचि है) तेजप्रताप यादव ने एक बार एक दलित पत्रकार (जो कि वह व्यक्ति खुद को बताता है) को 2 मिनट बात करने (इसे कूटने के लिए पढ़ा जाए) के लिए ऐसा बुलाया था कि उसे अपनी जान बचाकर भागना पड़ा था। इसका वीडियो भी राजद समर्थकों ने खूब चटखारे लेकर शेयर किया था।

मेरे एक बॉस बताते हैं कि 1990 के आसपास लालू यादव के मुख्यमंत्री रहते हुए कोर्ट के आदेशानुसार हाईस्कूल शिक्षक भर्ती की दरख्वास्त लेकर गए थे और लालू यादव ने उनका ‘स्वागत’ करने के लिए लाठी मँगाई थी। इसके पीछे लालू का तर्क था कि कोई भूमिहार (यह एक जाति होती है और लालू की पार्टी के अनुसार यह होना एक अपराध है) कैसे शिक्षक की नौकरी माँगने उनके द्वार पर आ सकता है। लाठी से स्वागत का लालू मोह ऐसा है कि राजद ‘तेल पिलावन लाठी घुमावन रैला’ भी कर चुका है।

जब पार्टी की ‘विशेषज्ञता’ इतने आले दर्जे की हो तो उसके ‘लठैतों’ का हाथ से कुटाई पर पीड़ा छलक जाना तो बनता ही है। पीड़ा से कराह उठना इनके ‘मानस पुत्रों’ का भी बनता है। उन्होंने भी निराश नहीं किया है।

यही कारण है कि हाल ही में एक राष्ट्रीय चैनल से एंकर की नौकरी छोड़ कर लाल सलाम को मजबूत करने के लिए यूट्यूब पर लाल माइक को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे एक ‘पत्रकार’ को सांसदों की आत्मरक्षा का प्रयास ‘पैथेटिक’ यानी बहुत ही अशोभनीय लगा है। लाल माइक वाले महोदय का कहना है कि सांसदों को कानून को अपने हाथों में नहीं लेना चाहिए था।

हालाँकि, एंकर जी कुछ चूक गए हैं क्योंकि कुछ सांसदों ने पिटाई के दौरान कानून को पैरों में भी लिया था और संभवतः उस युवक को लातें भी पड़ी थी। यह वही महोदय हैं जिनके चैनल में काम करते समय इनके एक वरिष्ठ (जो इनसे पहले यूट्यूबर हो लिए) ने दिल्ली दंगों में पुलिस पर फायरिंग करने वाले शाहरुख की बन्दूक को बटुआ (इसे बटुआ ही पढ़ें) बता दिया था।

इन सबके अलावा कम्युनिस्ट पत्रकार इस बात से चिंतित हो गए हैं कि उनकी विरोध-प्रदर्शन की विधा को कोई और लौंडे-लपाड़ी लूट ले गए और सरकार के खिलाफ बोलने का तमगा भी कुछ एक हलकों में हासिल कर लिया। इसलिए सत्यहिंदी (असल में वह असत्यहिंदी है) पर एक रिटायर्ड (टायर्ड भी) पत्रकार ने कहा कि यह हमारे ही लोग थे।

वैसे उनकी बात पर विश्वास करना कुछ ख़ास कठिन नहीं है, क्योंकि 2001 की 13 दिसंबर को ही संसद पर हुए आतंकी हमले का मास्टरमाइंड अफजल गुरु भी कम्युनिस्टों के लिए अपना (अब्बा पढ़े) ही था। रिटायर्ड पत्रकार का कहना है, “पार्लियामेंट में अपने लोग गए थे, बस गलत तरीके से गए, लेकिन किसी को नुकसान नहीं पहुँचाया।”

कम्युनिस्ट पत्रकार यह देख कर खुद हैरान था कि अन्य कम्युनिस्टों की तरह संसद में गलत तरीके से जाना वाला कोई व्यक्ति नुकसान कैसे नहीं पहुँचा पाया। क्योंकि इससे पहले जितने भी कम्युनिस्ट बंगाल में चुनावी हिंसा के बाद संसद पहुँचे थे वह देश को कुछ ना कुछ नुकसान पहुँचाने में अवश्य सफल रहे हैं।

खैर, अब खबर यह है कि इस मामले में 6 लोग गिरफ्तार हुए हैं। दिल्ली पुलिस ने उनके साथ ‘अशोभनीय’ या ‘असंसदीय’ व्यवहार किया या नहीं, अभी स्पष्ट नहीं है। इन सब पर UAPA भी लगाया गया है। इससे भी कम्युनिस्टों को दर्द हो सकता है।

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अर्पित त्रिपाठी
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