मित्रो! 2010 में जब लगा था कि कश्मीर में आईएएस अफ़सर बनकर ये फ़ैसल अब उन लोगों से अपने बाप का दादा, परदादा का और बाकी सब का बदला लेगा, जिनकी गोलियों से बचकर वो भारतीय प्रशासनिक सेवा का हिस्सा बना है, तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक दिन यही फैसल ‘डेफिनिट’ बनकर राजनीति में आने का ‘केजरीवाल टर्न’ ले लेगा।
जबसे ‘नई वाली राजनीति’ फ़ेम और मशहूर फ़िल्म समीक्षक सर अरविंद केजरीवाल प्रशासनिक सेवाओं को छोड़कर राजनीति में आए हैं, तब से आम आदमी जब किसी अफ़सर के राजनीति में आने की ख़बरें सुन लेता है, तो हफ़्ता भर वो खुद को चूँटी काटकर यकीन दिलाना चाहता है कि क्या वाक़ई में ये भी फ़िल्म रिव्यु लिखकर देश बदलने आया है?
देश जानता है कि पिछले कुछ सालों में इस देश में ‘नई वाली राजनीति’ और ‘नई वाली हिंदी’ आज के युवा के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरी हैं। जो जलवा इन दोनों ने काटा हुआ है, तो जनता बस यही सवाल पूछ पा रही है, “कहें तो कहें क्या, करें तो करें क्या?” जातिवाचक पत्रकार चाहे गोदी मीडिया का नाम लेते हों लेकिन इस देश में छोटी गंगा बोलकर गंदे नाले में कुदा देने का जो गोरखधंधा है, उसकी TRP सबसे ज़्यादा है।
2010 में देश की सबसे प्रतिष्ठित संस्था का हिस्सा बनकर ‘मुस्लिम यूथ आइकन’ बने शाह फ़ैसल जम्मू कश्मीर चुनाव से पहले अपना पद छोड़ देते हैं और सबसे पहले उमर अब्दुल्ला से मिलने पहुंचते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि उमर अब्दुल्ला कश्मीर के लिए फ़िक्र करते हैं। जबकि कई पीढ़ियों से कश्मीर पर राज करने वाले अब्दुल्ला परिवार ने कश्मीर की आवाम का आज तक कौन-सा भला किया है, शायद यह सब जानकारी सामरिक कारणों से गुप्त ही रखे गए होंगे, या फिर कभी हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में उस भलाई के कुछ अवशेष मिल सकें।
कौन नहीं जानता है कि उमर अब्दुल्ला और उनके परिवार ने कश्मीर की आवाम के लिए उतने ही प्रयास किए हैं, जितने कॉन्ग्रेस दलितों के लिए आज़ादी के बाद से करती आई है। हर चुनाव में दलितों का हितैषी माना जाने वाला राजपरिवार दलितों का कितना हिमायती है इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पंचवर्षीय आती और जाती रहीं, लेकिन देश का पिछड़ा दलित कभी अगड़ा नागरिक नहीं बन सका।
उसी तरह से संसद में पाक अधिकृत कश्मीर के मसले पर “POK क्या तुम्हारे बाप का है?” जैसे नज़रिया देने वाले फ़ारूक़ अब्दुल्ला उसी उमर अब्दुल्ला के बापू हैं, जो आपको कश्मीर के शुभचिंतक नज़र आते हैं। भारत-पाकिस्तान बँटवारे पर इन्हीं फ़ारूक़ अब्दुल्ला साहब की राय थी कि जिन्ना ने नहीं बल्कि नेहरू, गाँधी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और सरदार पटेल ने मिलकर बँटवारा कराया था।
आपके कथनी और करनी दोनों से ही आप कश्मीर के युवाओं को ही नहीं, उन जैसे, और अपने जैसे युवाओं पर भी भरोसे करने जैसे विचारों को भी एकदम सड़क पर ला देते हैं। शाह साहब, आप वही हैं जिसने भारत को रेपिस्तान कहा था, इसलिए कन्हैया कुमार और JNU के देशद्रोही गिरोह से आपका सहानुभूति रखना तो बनता ही है।
तो जनाब! अब बात करते हैं मुद्दे की। कश्मीर के 2010 बैच के IAS अफसर शाह फ़ैसल आ गए हैं नौकरी-पेशा का टंटा खत्म कर के उसी फ़िल्ड में, जिसके लिए प्राचीन दन्तकथाओं में एक राजमाता ने कहा था ‘बेटा सत्ता ज़हर है’। लेकिन क्या इसे महज़ इत्तेफ़ाक़ ही कहेंगे कि दन्तकथा के अगले अध्याय में वही राजमाता कहती हैं कि बेटा ज़हर की खेती करने वालों को सत्ता मत दो।
कितनी बड़ी दुविधा शाह फ़ैसल के जीवन में आ कर खड़ी हो गई है कि एक ओर जहाँ सामान्य श्रेणी का एस्पिरेंट UPSC लिखते-लिखते ‘मनोहर’ कहानियों को टक्कर देने वाला लेखक बन जाता है, लेकिन अफ़सर नहीं बन पाता है, वहीं शाह फ़ैसल अफ़सर बनने के दिन से ही कश्मीर के युवाओं के लिए कभी प्रेरणा बने, कभी क्रन्तिकारी बने, कभी उग्र अभिव्यक्तिकार बने, लेकिन कभी नेता नहीं बन पा रहे थे। सो वो अब दफ़्तर से अपना बोरिया-बिस्तरा उठाकर राजनीति की गलियों में क़दम रखने जा रहे हैं।
जबकि, प्रशासन में रहते हुए शाह फ़ैसल खनन घोटाला अधिकारी भी बन सकते थे, लेकिन अब उन्होंने शायद खनन घोटाला मंत्रालय चुनना बेहतर समझ लिया है। आईएस अफ़सर वाला जो स्वैग आईएस चंद्रकला सोशल मीडिया पर झोंका करती थी, मुखर्जी नगर में आधी भीड़ उसी स्वैग को लेकर उमड़ी हुई है। लेकिन अफ़सर बन जाने के बाद कमाई में इतना इज़ाफा होने की ख़बरें जबसे बाज़ार में गर्म हैं, उस दिन से भीड़ बढ़ ही रही है, कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। हालात ये हैं कि आज की डेट पर मुखर्जी नगर में उतने विश्वामित्र नहीं हैं, जितनी मेनकाएँ नज़र आती हैं। हालाँकि, ये मेरे जैसे एक ‘मिसोज़िनिस्ट’ का व्यक्तिगत मत हो सकता है।
सूत्र तो यह भी बता रहे हैं कि शाह फ़ैसल ने यह निर्णय ट्विटर पर चल रहे #10YearsChallenge की वजह से लिया है। 10 साल पहले जो हालात राजनीति में थे, वो उनको ही ‘रीस्टोर’ करने के मकसद से शायद राजनीति में उतरना चाह रहे हों। क्योंकि 10 साल में इस देश में हो चुकी है भैया लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की जमकर हत्या, जिस वजह से गुलफ़ाम हसन साहब का भी दम यहाँ घुटने लगा है।
मने हम कह सकते हैं कि JNU में जनता के टैक्स के पैसों, जिसमें मनुवादी, ब्राह्मणवादी सवर्णों का भी पैसा शामिल है, से मिलने वाली सब्सिडी पर नारे लगा रहे कन्हैया कुमार पर लगे देशद्रोह के आरोपों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपहास बताकर राजनीति में पहला कदम तो शाह फ़ैसल आज रख ही चुके हैं। इसके बाद हमारी दिलचस्पी इस बात में और बढ़ गई है कि शाह फ़ैसल अब जब इस ज़हरीली राजनीति में उतर ही गए हैं, तो उनके अगले कदम क्या हो सकते हैं?
इसी उत्सुकतावश, हमारे स्लीपर सैल संवाददाता, अलीगढ़ जाकर ‘लाल कुँआ, पिलर लम्बर बारा’ के ठीक नीचे बैठे बाबा से मिले और उनसे आपके राजनीतिक भविष्य के बारे में उन्होंने राय माँगी। जिसके बाद बाबा ने हमें व्हाट्सएप्प यूनीवर्सिटी पर कुछ तस्वीरें भेजकर शाह फ़ैसल के रुझान जारी किए हैं, जिन्हें हम ‘ऐज़ इट इज़’ और बिना किसी एडिटिंग के एक्स्क्लुसिव्ली आपके साथ शेयर कर रहे हैं:
आप हमारे इरादों और मसख़री को दिल पर ना लें साहब! हम केजरीवाल के जले हैं, सो फ़ैसल को फूँक-फूँक कर पीना हमारी मज़बूरी हो चुका है।