मित्रो! सिनेमाघरों में धपाधप सुपरहिट होती फिल्मों ने नींदें उड़ा रखी हैं। आप बिलकुल सही समझे कि किसकी नींद की यहाँ बात होने जा रही है। सर से पाँव तक प्रोपेगैंडा बनाने में जुटे हुए तमाम मीडिया हाउस कह रहे हैं कि बॉलीवुड की फ़िल्मों में प्रोपेगैंडा चल रहा है। हालात ये हैं कि हर सामान्य-सी बात को भी प्रोपेगैंडा घोषित कर देना इन गिरोहों का प्रोपेगैंडा बन चुका है। ‘उरी’ और ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ के बाद आजकल एक और फ़िल्म की वजह से ‘उधर’ फिल्म समीक्षकों में धुँआ उठा हुआ है, और ये है, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई पर बनी फ़िल्म ‘मणिकर्णिका’।
‘द प्रिंट’ नामक गिरोह की एक हेडलाइन के अनुसार, “Kangana Ranaut in Manikarnika is the perfect Bharat Mata for Modi’s India” जिसका मतलब है कि ‘मणिकर्णिका फ़िल्म वाली कंगना रनौत मोदी के इंडिया के लिए परफ़ेक्ट भारत माता है’। इस शीर्षक के अंतर्गत लिखा गया है कि ‘अगर कंगना रनौत के संवादों को थोड़ा-सा बदल दिया जाए तो आपको लगेगा कि ये देश का प्रधान सेवक मोदी, शहज़ादे राहुल गाँधी से कह रहा है।’ तो भैया, इन्हें मोदी अब सपने में भी आने लगे हैं, और शायद दहशत का माहौल ये है कि जहाँ वो अब नहीं भी होते हैं, वहाँ महसूस कर लेने की अद्भुत क्षमता वामी गिरोहों ने विकसित कर डाली है।
वहीं ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का अपने एक लेख में कहना है कि ‘Should We Declare 2019 The Year Of Patriotic Urf Propaganda Films?’ यानि ‘क्या हमें 2019 को देशभक्ति अर्थात प्रोपैगैंडा फ़िल्म का साल घोषित कर देना चाहिए?’ देखा जाए तो ये हेडलाइन अपने आप में ही सब सवालों का उत्तर है। जिन गिरोहों को देशभक्ति और प्रोपेगैंडा में फ़र्क़ महसूस नहीं हो पाता है, वही लोग कुछ दिनों में शिकायत करते मिलते हैं कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है।
आख़िर फ़िल्मों का यह साल ‘प्रोपैगैंडा का साल’ किन वजहों से है ?
सर्जिकल स्ट्राइक की घटना पर बनी ‘उरी’ फ़िल्म के बाद इस माओवंशी कामपंथी गिरोह से प्रतिक्रिया आई थी कि यह ‘हायपर नेशनलिज़्म’ से प्रेरित फ़िल्म है। वहीं, ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ फ़िल्म के वक़्त तो बवाल ही मच गया था, कारण एक ही था, जिस परिवार की गुलामी करते हुए ये लोग अब तक जीवनयापन कर रहे थे, उस का बस एक चिठ्ठा खोल देने वाली यह फ़िल्म दर्शकों में चर्चा का विषय बन गई। अगर सच्चाई को दिखाना प्रोपेगैंडा और देशभक्ति है तो सवाल उठता है कि इस ‘सत्यशोधक’ गिरोह को सच देख और सुनकर इतनी आपत्ति और छटपटाहट क्यों होती है?
इस गिरोह को इतने वर्षों तक फ़िल्मों से आपत्ति न होने का कारण था कि सिनेमा एक निर्धारित पैटर्न पर अब तक काम करता आया था। इस निर्धारित पैटर्न में होता यह था कि सच्चा मुस्लिम हमेशा दोस्ती के लिए जान देने तक को तैयार दिखाया जाता था। ब्राह्मण और मंदिर के पुजारी को किसी भी तरह से व्यभिचारी दिखाया जाता था। बनिया को हेरफ़ेर करने वाला दिखाया जाता रहा था। तब तक भी इस गिरोह को कभी समस्या नहीं हुई थी। हम देखते हैं कि यही फ़िल्में समाज में, इन वर्गों के लिए इसी तरह का नज़रिया तैयार करने में सफ़ल भी रही हैं। लेकिन आपत्ति इस बात से पैदा होने लगी हैं कि आतंकवाद के धर्म को अब स्पष्ट तरीके से दिखाया जाने लगा है।
वहीं, नवीनतम आपत्ति का केंद्र ‘मणिकर्णिका’ फ़िल्म बन चुकी हैं। फ़िल्म समीक्षकों के अनुसार यह फ़िल्म चुनावों से पहले जानबूझकर लाई गई है और यह भारत देश की क्रान्ति की तस्वीर को गलत तरीके से पेश करती है। तो मियाँ, जब भारत जैसा कोई विचार उस वक़्त नहीं था तो फिर अंग्रेज़ों को यहाँ से भागने की बात पर 1857 की क्रांति कैसे हुई थी? या फिर आप अंग्रेज़ों को आज भी फ़िरंगी नहीं मानते हैं और आप अभी भी उस विचारधारा पर चल रहे हैं जिसके अनुसार भगत सिंह आज भी एक आतंकवादी माने जाते हैं।
वहीं जब मुस्लिम आक्रांताओं पर बॉलीवुड में फ़िल्म बनाई जाती है तो निर्देशक उन्हें बनाते वक़्त एक विशेष चरमसुख का ध्यान रखते आए हैं। लेकिन पद्मावत फ़िल्म में खिलज़ी को गंदगीयुक्त लिबास और खानपान के तरीकों में दरिद्रता दिखाई गई थी तो आप परेशान हो गए थे।
इसलिए वाम गिरोहों की देशभक्ति और हिंदुत्व से ‘एलर्जी’ समझना बहुत ज्यादा मुश्किल काम नहीं है। जिन गिरोहों की दुकान ही व्यवस्थाओं पर हमला कर के चल रही हों, सामाजिक ढाँचे को तोड़कर ही जिनका विस्तार हो रहा हो, आख़िर वो इस विचारधारा से पीछे कैसे हट जाएँ? साफ़ है कि यह गिरोह मात्र व्यक्तिगत विचारधार की लड़ाई ही लड़ रहे हैं, और इनका सुकून बस उसी एक विचारधारा के इर्द-गिर्द मँडराता रहेगा।
‘द प्रिंट’ का तो यहाँ तक मानना है की कँगना रानौत की यह फ़िल्म पितृसत्ता का मुकाबला नहीं करती है। शायद इसके मानकों के अनुसार लक्ष्मीबाई को फिल्मों में समलैंगिक सम्बन्धों और लेस्बियन संबंधों पर भी चर्चा बिठानी चाहिए थी। एक महिला जिसके शौर्य और पराक्रम की कविताएँ पढ़कर इस देश का हर एक व्यक्ति पूजता आया है, द प्रिंट को इतने वर्षों बाद लगता है कि वह पितृसत्ता से नहीं लड़ पाती है, ये कमाल की बात है।
इस पर एक असहिष्णु भारतीय नागरिक ने अपने फ़ेसबुक पोस्ट पर लिखा:
कंगना को मणिकर्णिका में सबसे पहले तो ब्रा खोल लेना चाहिए था, फिर उसे चूड़ियाँ तोड़कर फेंकनी थी, और सिंदूर, मंगलसूत्र गले से उतार कर फेंक देना था। फिर जिस बच्चे को पीठ पर लिए घूमती थी उसको फेंक देती कहीं क्योंकि शेखर गुप्ता के ‘दी प्रिंट’ के लिए शायद पेट्रियार्की ही किसी भी फ़ीमेल लीड के लिए ज़रूरी है, चाहे वह ऐतिहासिक घटनाओं की फ़िल्मी रूपांतरण ही क्यों न हो! आप जरा सोचिए कि एक महिला का पुरुषों की सेना, और कई राजाओं का नेतृत्व करना पेट्रियार्की के ऊपर की बात नहीं है तो आख़िर क्या है? इससे बड़ा क्या प्रूफ़ दिया जाए? जब फ़िल्म इतिहास की हो चुकी घटनाओं पर है तो उसमें पेट्रियार्की से लड़ने के लिए क्या लक्ष्मीबाई को लेडी श्री राम या मिरांडा हाउस में अंग्रेज़ी ऑनर्स करवा देते और ‘नो ब्रा डे’ मनाते हुए भारतीय नारियों की स्थिति सुधारने की बेकार कोशिश करते?
ख़ैर दर्शक तो मणिकर्णिका देखने के बाद ऊँची आवाज में यही पूछेगा, “हाऊ इज़ दी जोश ब्रोज़?” क्योंकि ये भारत है, और भारत के लोग वामपंथी गिरोह का प्रोपेगंडा पढ़कर फ़िल्में देखने नहीं जाते।