Friday, November 15, 2024
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सेल्युलर जेल में हिंदुत्व को लेकर खुली वीर सावरकर की आँख, मुस्लिम कैदियों के अत्याचारों ने खोली ‘घर वापसी’ की राह: ‘नायक बनाम प्रतिनायक’ पुस्तक में अहम खुलासे

वीर सावरकर के अनुसार हिंदू केवल उस धर्म को मानने वालों तक सीमित नहीं हैं, जिसे हिंदू धर्म कहा जाता है। उनके अनुसार इस देश को अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि मानने वाला हर व्यक्ति हिंदू है।

हिंदुत्व के प्रति झुकाव की प्रक्रिया सावरकर के जीवन की विषम परिस्थितियों की देन है। इसका स्फुरण और सघनीकरण बहुत धीरे-धीरे हुआ। इसकी शुरुआत होती है सेल्युलर जेल के दिनों से।

1857 से सीख लेकर अंग्रेजों ने भारतीयों के धार्मिक-सामाजिक मामलों में दखल न देने की नीति अपना ली थी। इसी नीति के तहत ईसाई पादरियों के धर्मांतरण अभियान को किसी भी तरह का सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन देना बंद हो गया था। कितु इसी नीति में ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आगमन के पहले से चले आ रहे मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के धर्मांतरण में हस्तक्षेप न करने का रुख भी निहित था, खासकर कारागारों में यह धर्मांतरण आम हो गया था, जो अपराधी किस्म के मुस्लिम कैदियों के अहं को तुष्ट करता था। इसके लिए वे सीधे-सादे युवा राजनीतिक कैदियों को डराने-धमकाने और प्रताड़ित करने से भी बाज नहीं आते थे। सेल्युलर जेल की विशेष परिस्थितियों ने इसे और भयानक रूप दे दिया था।

आ चुका है कि सेल्युलर जेल में हिंदू क्रांतिकारी बहुसंख्यक थे। उनको नियंत्रित करने और यातनाएँ देने के मकसद से जेलर बारी ने मुसलमान अपराधी कैदियों को वार्डर, पहरेदार और हवलदार वगैरह नियुक्त कर दिया था। हिंदू कैदियों के साथ नरमी न बरते जाने के उद्देश्य से यह एक प्रशासनिक कदम के रूप में उचित हो सकता था। कितु सेल्युलर जेल में बंद अपराधी पश्चिमोत्तर में सीमा प्रांत के धर्मांध और दबंग कबीलाई पठान बहुतायत में थे। वे हट्टे-कट्टे और उत्पाती किस्म के अपराधी थे और मद्रास, बंगाल या बंबई प्रेजीडेंसी से आनेवाले मुसलमान कैदियों को भी आधा काफिर कहकर बेइज्जत करते थे। उन्हें अपने रंग में रंगने की कोशिश भी करते थे। कुछ तो उनकी नकल में उनसे भी आगे निकल जाते थे (Savarkar, My Transportation for Life, pfd pp.k~ 68&69/k386)। कुछ बलूच, सिंधी और पंजाबी मुसलमान कैदी भी पठानों की जमात में शामिल हो गए थे। बारी जैसे परपीड़क जेलर ने इन सबका इस्तेमाल क्रांतिकारी कैदियों में भय और आतंक उत्पन्न करने के एजेंट के तौर पर किया।

भारतीय कारागार समिति (Indian Jails Committee) के अध्यक्ष आलेक्जैंडर जी- खार्दिव (Alexander G Cardew, ICS) ने बारी के इन अनुचरों के बारे में लिखा है, ‘ये कर्मचारी, अपने प्राकृतिक दोषों के कारण सक्रिय एजेंटों की विकृत किस्म की प्रभुता का उपभोग करते थे।‘

आ चुका है कि मिर्जा खान नाम का एक कर्मचारी इन उत्पीड़कों का संरक्षक था। वह एक गैर-कैदी कर्मचारी था और बारी का दाहिना हाथ बन गया था। सावरकर ने उसकी सांप्रदायिक मानसिकता की एक झलक अपने संस्मरण में दी है। तेल पेरने के कोल्हू की ड्यूटी लगाए जाने पर नानी गोपाल भूख हड़ताल पर चले गए थे और डेढ़ महीने निराहर रहकर जान देने के लिए कृतसंकल्प थे। जब सावरकर के समझाने पर उन्होंने हड़ताल तोड़ी, मिरजा खान ने सावरकर से नानी गोपाल की तारीफ इस तरह की, ‘तुम्हारा शागिर्द नानी बहादुर है, उसकी हिम्मत पठानों के काबिल है, हिंदुओं के नहीं।’

यही पठान कर्मचारी अपनी स्थिति का फायदा उठाकर हिंदू कैदियों को उत्पीड़ित करते और उत्पीड़न से बचने के लिए उन्हें इस्लाम ग्रहण करने को विवश करते थे। सेल्युलर जेल के उन कठिन, निराश और बेबस दिनों में हिंदू कैदी धर्म-परिवर्तन का प्रतिरोध करके अपने कष्ट को और नहीं बढ़ाना चाहते थे। कुछ तो धर्म-परिवर्तन का महज वादा करके अधिक से अधिक समय तक उत्पीड़न से बचे रहने की कोशिश करते थे।

किसी भी हिंदू कैदी के इस तरह से किए गए धर्म-परिवर्तन की खबर को सावरकर सरकार द्वारा कैदियों पर किए गए अत्याचार के रूप में लेते थे और तिलमिला उठते थे। बारी के उकसावे पर इन एजेंटों द्वारा सावरकर की पिटाई करने और कत्ल तक की धमकी देने के बावजूद उन्होंने ऐसे कैदियों की सहायता करने का निर्णय लिया। पहले तो उन्होंने जेल में ही शिकायत दर्ज कराई। उन्होंने लिखा कि यदि कोई अपनी मर्जी से या विचार-परिवर्तन के कारण धर्म बदलना चाहता है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं, कितु इस जेल में धर्म-परिवर्तन का चलन इन दोनों बातों से कोसों दूर है। सुपरिंटेंडेंट ने सावरकर से साफ-साफ पूछा, ‘आप लोग उन्हें हिंदू धर्म में वापस क्यों नहीं ले लेते?’ सावरकर ने जवाब तो दे दिया कि हिंदू धर्म धर्मांतरण में विश्वास नहीं रखता। कितु उनका दिमाग इस समस्या के इर्दगिर्द चक्कर काटने लगा।

पहले तो उन्होंने स्थिति के हर पहलू का सम्यक अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि आने के दिन से ही हिंदू कैदी के साथ भेदभाव शुरू हो जाता था। मुस्लिम पहरेदार उन्हें अपने धर्मग्रंथ पढ़ने से रोकते थे। हिंदू धर्मग्रंथों में छपे चित्रों के बारे में अशिष्ट टिप्पणी करते थे और समूह में उनका पाठ होता तो समूह को तितर-बितर कर देते थे। कारागार में प्रवेश के दिन ही उनका यज्ञोपवीत तोड़ दिया जाता था, जबकि मुसलमानों की दाढ़ी और सिखों की पगड़ी पर कोई रोक नहीं थी। मुस्लिम पहरेदार हिंदू कैदियों से कठोर श्रम कराते और तरह-तरह के प्रलोभन देते। इस्लाम स्वीकार कर लेने पर उन्हें मुस्लिम नाम दे दिया जाता और वही नाम पंजीकृत हो जाता। जेल में हिंदुओं और मुस्लिमों के लिए अलग रसोई और अलग रसोइए थे। दोनों धर्मों के कैदी अलग-अलग बैठकर खाना खाते थे। धर्मांतरित कैदियों को मुसलमानों की रसोई में बना खाना, मुसलमानों के साथ बैठकर खाना पड़ता था। एक बार उनके साथ खाना खा लेने के बाद कोई हिंदू उन्हें अपने साथ बैठकर खाने नहीं देता था। अपने मूल समुदाय के तीव्र विरोध और निंदा के चलते उनके लिए वापसी का मार्ग हमेशा के लिए बंद हो जाता था।

सावरकर ने लिखा है कि लगभग हर हफ्ऱते वे किसी हिंदू कैदी को मुस्लिम साथियों के साथ बैठा देखते और समझ जाते कि उसका धर्म परिवर्तन होने वाला है। जब वे इस बाबत हिंदू कैदियों से बात करते तो उनका जवाब होताµजो लोग प्रताड़ना के डर से धर्म-परिवर्तन के लिए तैयार हो जाते हैं, हिंदू धर्म ऐसे लोगों के बिना बेहतर रहेगा। सावरकर ने उन्हें इसके दूरगामी परिणामों से अवगत कराया। इसके राजनीतिक निहितार्थ की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया। सावरकर ने उनसे कहा, मुस्लिम के हाथ का बना भोजन हिंदू क्यों नहीं खा सकता? इससे न उसका पेट फटेगा, न ही उसका धर्म भ्रष्ट होगा। उनके काफी प्रयास के बाद अंडमान के हिंदुओं को आभास हुआ कि हिंदू धर्म इतना कमजोर नहीं है कि ऐसे बाह्याचारों से भ्रष्ट हो जाए। (My Transportion for Life.pdf.k~ pp.k~ 218&19)।

अंततः हिंदू ऐसे कैदियों को अपने समुदाय में वापस स्वीकार करने को तैयार हो गए।

सावरकर का ध्यान स्वामी दयानंद सरस्वती (1824-1883) की ओर गया, जिन्होंने पंजाब और उत्तर भारत में शुद्धि अभियान चलाया था। धार्मिक विधि-विधानों में कोई आस्था न होने के बावजूद, अंडमान की खास परिस्थितियों में सावरकर ने उन्हीं की पद्धति अपनाई। कई धर्मांतरित कैदियों को शुद्धि की प्रक्रिया से वापस लाया गया।

इस दौरान पठान कैदियों द्वारा उन पर जानलेवा हमले हुए, एक बार विषाक्त भोजन देने का प्रयास भी हुआ। कितु बाबाराव की मुस्तैदी से हर प्रयास असफल रहा। (Babarav Savarkar.pdf.k~ pp.k~ 53&54)।

इसका असर यह हुआ कि सेल्युलर जेल में रहते हुए ही सावरकर हिंदू एकता और हिंदू संगठन की आवश्यकता पर चिंतन-मनन करने लगे थे। सनातनी, आर्यसमाजी, सिख, जैन और बौद्ध मत के लोगों को मिलाकर एक अखिल भारतीय संगठन बनाने की दिशा में सोचने लगे थे। उन्होंने ‘हिंदू’ होने के अर्थ को भी अपने ढंग से परिभाषित कर लिया था। उनके अनुसार हिंदू केवल उस धर्म को मानने वालों तक सीमित नहीं हैं, जिसे हिंदू धर्म कहा जाता है। उनके अनुसार इस देश को अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि मानने वाला हर व्यक्ति हिंदू है। उन्होंने लिखा कि उनकी यह परिभाषा समाज में और अधिक बिखराव व अलगाव को रोकने तथा हिंदुओं को भारत के लोगों का एक समुदाय बनाने में सशक्त भूमिका अदा करेगी (Savarkar, My Transportation for Life.k~ Pdf.pp 283&85)।

सावरकर जब भारत पहुँचे, वहाँ चारों तरफ खिलाफत असहयोग का धुआँ छाया हुआ था। खिलाफत आंदोलन को उन्होंने आफत का नाम दिया और उसके दौरान हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं तथा उसकी असफल परिणति से जन्मे व्यापक मोहभंग, विग्रह, विखंडन और निराशा ने उनकी इस संज्ञा (आफत) में संगर्भित समस्त संभावनाओं को मूर्त कर दिया। इसने उनके विचारों के फलक का विस्तार किया और उसकी दिशा को और धार दी। उसी का हासिल रत्नागिरि जेल में लिखी उनकी पुस्तक ‘हिंदुत्व’ है।

(यह लेख ‘विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक‘ पुस्तक का हिस्सा है, इसके लेखक हैं प्रसिद्ध कथाकार कमलाकांत त्रिपाठी।)

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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