हरिशंकर परसाई ने अपनी पुस्तक ‘सदाचार की ताबीज़’ में व्यंग्य को परिभाषित करते हुए कहा था – “व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंड का पर्दाफ़ाश करता है।”
अगर हम ये कहें कि निरन्तर गिरते जा रहे सामाजिक मूल्यों तथा बढ़ती महत्वकांक्षाओं के इस दौर में व्यंग्य लेखन एक चुनौती से कम नहीं तो अतिशयोक्ति न होगी। व्यंग्य स्वयं नहीं जन्मता बल्कि विरोधाभासों का तांडव व्यंग्य को जन्म देता है।
आज का व्यंग्यकार समाज में व्याप्त चुनौतियों/विसंगतियों के प्रति चौकन्ना है। ऐसे ही सजग रचनाकार साकेत सूर्येश अपनी पहली ही पुस्तक ‘गंजहों की गोष्ठी’ में विविध विषयों पर अपनी लेखनी से चमत्कृत करते हैं। पूर्व में भी लेखक की अंग्रेज़ी भाषा में कविता संग्रह प्रकाशित हो चुकी है तथा वे निरन्तर दैनिक जागरण, स्वराजमैग आदि में लिखते रहते हैं।
85 पृष्ठों की पुस्तक ‘गंजहों की गोष्ठी’ में कुल 20 व्यंग्यबाण (लेख) हैं। हर लेख एक मनके के समान है जो अद्वितीय है।
पुस्तक की पहली रचना ‘क़स्बे का कष्ट’ है। लेखक के व्यंग्य की कुशलता और संक्षिप्तता इतनी अद्भुत है कि वह क़स्बे का चित्रण एक ही पंक्ति में कर देता है- “क़स्बा गाँव के लार्वा और शहर की ख़ूबसूरत तितली के बीच का टेडपोल है।”
वस्तुतः, व्यंग्य किया जाता है, व्यंग्य कसा जाता है, व्यंग्य मारा जाता है, व्यंग्य बाण चलाया जाता है। ये मुहावरे व्यंग्य के तीखेपन को दर्शाते हैं। ‘गंजहो की गोष्ठी’ में ये तीखापन सर्वत्र बिखरा हुआ पड़ा है। कुछ उदाहरण देखें:
– विषय न भी हो तो पत्रकार विषय का निर्माण कर के जीवन में हलचल बनाए रहते है। कुछ नहीं होता तो किसी अभिनेता के पुत्र के पोतड़े बदलने का कार्यक्रम गोष्ठी का विषय बन जाता है।
– एल प्लेट पूड़ी-सब्ज़ी राजनीतिक जनसभाओं की सफलता का और ग़रीबों की थाली में सजी भूख चुनावी निर्णयों का निर्धारण करती रही है।
– मनुष्य की बौद्धिकता के विकास में कॉटन साड़ियों का भी वही स्थान है, जो सिगरेट के आविष्कार का और नाई के अवकाश का।
– राष्ट्र सब्ज़ी वाले से प्रेमिका के लिए मुफ़्त धनिया लाता रहा, चाचा जी गुलाब टाँगे घूमते रहे, राष्ट्र उनका बिगड़ा लम्ब्रेटा कल्लू मैकेनिक के यहाँ जाकर कर्तव्यनिष्ठा के साथ बनवाता रहा। मध्यमवर्गीय शहर के मध्यमवर्गीय प्रेमी की भाँति जनता के हाथ सत्ता के हवाई चुम्बन के अतिरिक्त कुछ न लगा।
– चार्वाक घी से डालडे पर आ रुके और ग़ालिब साहब को बस ठर्रे का सहारा बचा।
– सत्ता में आने वाला, तीन वर्ष पिछली सरकार को कोसता है, दो वर्ष पुनः सत्ता में आने का जुगाड़ बिठाता है।
– श्री औरंगज़ेब एक लोकतांत्रिक नेता थे जो प्रजा को ‘बीफ़ इन द प्लेट’ और ‘सेल्फ़ इन द प्लेट’ का हमेशा विकल्प देते थे।
ऐसे ही अनेक व्यंग्यबाणों से सजी इस पुस्तक में ‘नेता का अट्टहास’, ‘क्षमा बड़ेन को चाहिए’, ‘महाभियोग पर महाभारत’, ‘कर्ज़ की पीते थे मय’, ‘जम्बूद्वीप का शब्दचित्र’, ‘बुद्धिजीवियों की बारात’, ‘छगनलाल का ब्याह’ आदि अनेक पाठ हैं जो आपको गुदगुदाते हैं। पुस्तक की एक बड़ी विशेषता यह है कि व्यंग्यों में पठनीयता बनी रहती है, भाषा कहीं भी बोझिल नहीं है। अंततः यह पुस्तक पाठक को गुदगुदाने, खिलखिलाने और वर्तमान विसंगतियों पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है। इन बीस मनकों को एक सूत्र में पिरोकर बनी ये ‘गंजहों की गोष्ठी’ रूपी लेखमाला का हिंदी साहित्य जगत में भरपूर स्वागत होगा, ऐसी मुझे आशा है। पुस्तक अमेज़ॉन पर उपलब्ध है।
पुस्तक का नाम- गंजहो की गोष्ठी
व्यंग्यकार- साकेत सूर्येश
प्रकाशक- Notion Press
पृष्ठ-85
कीमत- ₹120
समीक्षक- श्री मनोज मौर्य
(शोध छात्र- हिंदी विभाग,काशी हिंदू विश्वविद्यालय। सुमित्रानंदन पंत जी के काव्यशिल्प पर शोध कर रहे हैं।)