वाराणस्यां तु विश्वेशं
त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं
घुश्मेशं च शिवालये॥
अर्थात, वाराणसी में विश्वनाथ के रूप में, गोमती नदी के तट पर त्रयम्बकेश्वर के रूप में, हिमालय पर केदारनाथ और अंतिम घृष्णेश्वर के रूप में शिव विराजमान हैं।
हिन्दू धर्म में चार धाम यात्रा का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस यात्रा का विशेष महत्त्व यह है कि लोग अपने पितरों के मोक्ष एवं उद्धार के लिए पूरे भारत भर में स्थापित पवित्र धामों और तीर्थस्थलों तक पहुँचते हैं। हालाँकि, कुछ लोग इस बात से भी परिचित नहीं हैं और वो चार धाम यात्रा का अर्थ सिर्फ और सिर्फ उत्तराखंड में स्थापित श्री बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और कालिंदी पर्वत पर स्थित यमुनोत्री को ही समझ लेते हैं। जबकि इनमें से भारत में स्थापित कुछ धामों में से मुख्य धाम बद्रीनाथ और केदारनाथ ही हैं।
एक नजर उत्तराखंड दूरस्थ हिमालय में बसे इन धामों की खूबसूरती पर
शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ ज्योतिर्लिंग पर्वतराज हिमालय की केदार नामक शिखा पर दुर्गम रूप में स्थित है। समुद्र की सतह से करीब साढ़े 12 हजार फीट की ऊँचाई पर केदारनाथ मंदिर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। बारह ज्योतिर्लिंगों में केदारनाथ धाम का सर्वोच्य स्थान है। साथ ही यह पंच केदार में से एक है।
केदारनाथ धाम में भगवान शिव के पृष्ट भाग के दर्शन होते हैं। त्रिकोणात्मक स्वरूप में यहाँ पर भगवान का विग्रह है। केदार का अर्थ दलदल है। पत्थरों से बने कत्यूरी शैली के मंदिर के बारे में मान्यता है कि इसका निर्माण पांडवों ने कराया था। जबकि आदि शंकराचार्य ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। मंदिर की विशेषता यह है कि 2013 की भीषण आपदा में भी मंदिर को आँच तक नहीं पहुँची थी। मंदिर के कपाट अप्रैल से नवंबर माह के मध्य ही दर्शन के लिए खुलते हैं।
स्कंद पुराण के अनुसार गढ़वाल को केदारखंड कहा गया है। केदारनाथ का वर्णन महाभारत में भी है। महाभारत युद्ध के बाद पांडवों के यहाँ पूजा करने की बातें सामने आती हैं। माना जाता है कि 8वीं-9वीं सदी में आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा मौजूदा मंदिर को बनवाया था।
श्री त्रियुगीनारायण मंदिर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में ही स्थित है और केदारनाथ मंदिर से पहले पर्यटक यहाँ पर अवश्य आते हैं। यही वो स्थान है जहाँ पर भगवान शिव व माता पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था। स्थानीय गढ़वाली भाषा में इसे त्रिजुगी नारैण कहते हैं।
रुद्रप्रयाग में स्थित ‘त्रिजुगी नारैण’ एक पवित्र जगह है, माना जाता है कि सतयुग में जब भगवान शिव ने माता पार्वती से विवाह किया था तब यह ‘हिमवत’ की राजधानी थी। जिस हवन कुण्ड की अग्नि को साक्षी मानकर विवाह हुआ था वह अभी भी प्रज्वलित है। आज भी इस स्थान पर उस विवाह वेदी की धुनि जलती हुई दिखाई जाती है।
इस मंदिर का नाम तीन शब्दों यथाः त्रि यानी तीन, युग यानी सतयुग, त्रेता और द्वापर युग, नारायण यानी विष्णु का ही एक नाम इस तरह त्रियुगी नारायण नाम पड़ता है।
इसी पवित्र स्थान के आस-पास ही विष्णु मंदिर भी है। इस मंदिर की वास्तुशिल्प शैली भी केदारनाथ मंदिर की ही तरह है। इस जगह के भ्रमण के दौरान पर्यटक रुद्र कुण्ड, विष्णु कुण्ड और ब्रह्म कुण्ड भी देख सकते हैं। इन तीनों कुण्डों का मुख्य स्त्रोत ‘सरस्वती कुण्ड’ है। मान्यताओं के अनुसार, इस कुण्ड का पानी भगवान विष्णु की नाभि से निकला है।
2013 की भीषण आपदा के बाद केदारनाथ मंदिर को नए तरीके से सजाया गया। हालाँकि, यह कार्य अभी तक भी जारी है।
श्री केदारनाथ मंदिर के कपाट इस वर्ष 9 मई की सुबह भक्तों के लिए खोल दिए गए। उससे पहले पूरे विधि विधान के साथ केदारनाथ की पूजा अर्चना की जाती है। इस मौके पर पूरे मंदिर परिसर को फूलों और रोशनी से सजाया जाता है।
हाल ही में उत्तराखंड सरकार द्वारा जारी किए गए आँकड़ों में पाया गया है कि इस वर्ष प्रतिदिन औसतन केदारनाथ पहुँचने वाले पर्यटकों की सँख्या 18-20,000 हो चुकी है। यानी 1 महीने में 6 लाख से अधिक श्रद्धालु अभी तक केदारनाथ पहुँच चुके हैं। इस तरह से पर्यटकों ने विगत सभी वर्ष के आँकड़ों को पीछे छोड़ दिया है। इसमें कुछ योगदान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा केदारनाथ की गुफा में ध्यान लगाती हुई तस्वीरों का भी माना जा रहा है। प्रकृति इतना भार वहन कर पाने में सक्षम है या नहीं यह कह पाना मुश्किल है। लेकिन उत्तराखंड को इन चार धामों के माध्यम से पर्यटन के रूप में अच्छी पहचान मिली है।