भगवान शिव के त्रिशूल पर बसी हुई वाराणसी, विश्व की सबसे पुरातन व्यवस्थित नगरी है और यह आज भी सनातन के प्रमुख केंद्रों के रूप में इस पृथ्वी पर विराजमान है। वैसे तो महादेव की नगरी वाराणसी अपने आप में ही सम्पूर्ण है लेकिन वर्तमान में यह अपने अनूठे गंगा घाट और मंदिरों के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। वाराणसी के इन्हीं प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है दुर्गा कुंड मंदिर। आदिकाल में वाराणसी में 3 प्रमुख मंदिर थे, काशी विश्वनाथ, अन्नपूर्णा मंदिर और दुर्गा कुंड। सनातन काल से ही महादेव की इस नगरी में माँ दुर्गा आदि शक्ति के रूप में इस प्राचीन दुर्गा कुंड मंदिर में विराजमान हैं।
मंदिर का इतिहास
वाराणसी के इस दुर्गा मंदिर का इतिहास युगों पुराना है। मंदिर का निर्माण काशी नरेश राजा सुबाहू के द्वारा कराया गया। मंदिर और इस स्थित कुंड के निर्माण के पीछे का कारण एक युद्ध था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सहस्त्राब्दियों पहले राजा सुबाहू ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया लेकिन राजकुमारी ने स्वयंवर के पहले स्वप्न में अपना विवाह अयोध्या के राजकुमार सुदर्शन से होता हुआ देखा। राजकुमारी ने यह बात अपने पिता से बताई तो उन्होंने इसकी चर्चा स्वयंवर में आ चुके राजाओं से की। राजाओं ने इसे अपना अपमान समझा और सुदर्शन के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी।
प्रयागराज में भारद्वाज ऋषि के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करने वाले राजकुमार सुदर्शन ने राजाओं की चुनौती स्वीकार कर माँ दुर्गा से विजय का आशीर्वाद माँगा। युद्ध भूमि में जब सुदर्शन युद्ध के लिए पहुँचा तो खुद आदि शक्ति ने वहाँ पहुँच कर विरोधियों का वध कर डाला। इस भीषणतम युद्ध के कारण रक्त से एक कुंड निर्मित हो गया। यही कुंड दुर्गा कुंड कहलाया। माँ दुर्गा ने खुद राजकुमारी का विवाह, सुदर्शन के साथ करने का आदेश दिया। इसके बाद राजा सुबाहू ने इस स्थान पर माँ दुर्गा के दिव्य मंदिर का निर्माण कराया। कहा जाता है कि शुंभ और निशुंभ का वध करने के बाद भी माँ दुर्गा ने इसी स्थान पर विश्राम किया था।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जहाँ भी माँ दुर्गा प्रकट होती हैं, वहाँ पर उनके प्रतीकों की उपासना की जाती है। यह स्थान भी उनमें से एक है। यहाँ माँ दुर्गा के मुखौटे और चरण पादुका की प्राण-प्रतिष्ठा की गई है। वाराणसी का यह दुर्गा कुंड मंदिर बीसा यंत्र पर आधारित है। बीसा यंत्र का मतलब है 20 कोण वाली एक तांत्रिक संरचना, जिस पर इस दुर्गा मंदिर की नींव रखी गई है। इस मंदिर को तंत्र साधन के लिए भी जाना जाता है। नवरात्रि में चौथे दिन माता कुष्मांडा की पूजा की जाती है और इस दिन मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना का आयोजन किया जाता है।
मंदिर की संरचना
वाराणसी के इस दुर्गा कुंड मंदिर का निर्माण प्रसिद्ध नागर शैली में हुआ है। लाल पत्थर से बने इस मंदिर की बनावट इतनी सुंदर है कि यहाँ दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु मंदिर देखकर ही मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। वैसे तो इस मंदिर का इतिहास युगों पुराना है लेकिन वर्तमान दृश्य मंदिर की स्थापना सन् 1760 में बंगाल की रानी भवानी द्वारा की गई। उस समय मंदिर के निर्माण में 50000 रुपए से अधिक की लागत आई थी।
मंदिर का वर्णन काशी खंड में भी मिलता है। मंदिर में माँ दुर्गा के अलावा बाबा भैरोनाथ, महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। मंदिर में माँ दुर्गा के अनन्य भक्त एवं मंदिर के पुजारी को भी समर्पित स्थान प्राप्त है। मान्यताओं के अनुसार प्राचीन समय में मंदिर के पुजारी को माँ दुर्गा का वरदान प्राप्त हुआ, तब से ही मंदिर में माँ दुर्गा के साथ उस पुजारी के दर्शन भी किए जाते हैं। मंदिर परिसर में ही एक हवन कुंड भी है, जहाँ प्रतिदिन माँ दुर्गा के लिए हवन किया जाता है।
कैसे पहुँचें?
वाराणसी पहुँचना बहुत ही आसान है। वाराणसी में ही एक हवाईअड्डा है। साथ ही वाराणसी से 120 किमी दूरी पर स्थित प्रयागराज में भी हवाईअड्डा है, जो चेन्नई, बेंगलुरु, मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों से जुड़ा हुआ है।
वाराणसी देश के विभिन्न हिस्सों से रेल मार्ग से भी जुड़ा हुआ है। सैकड़ों की संख्या में ट्रेन वाराणसी पहुँचती हैं। सड़क मार्ग से भी वाराणसी पहुँचना आसान है। जीटी रोड पर स्थित वाराणसी देश के कई बड़े शहरों से सीधे सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत से आने वाले लोग प्रयागराज और मिर्जापुर होते हुए वाराणसी पहुँच सकते हैं।