Friday, April 26, 2024
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ग़ालिब की शायरी से भगवान गणेश की ‘पूजा’, नायक को ‘कूल’ बनाने के लिए नास्तिक दिखाया: SonyLiv की वेब सीरीज ‘फाड़ू’ में हिन्दू घृणा

आगे भी पूरे वेब सीरीज में ऐसा लगता है कि कहानी को जबरन थोपा जा रहा है। कोंकण के एक गाँव में रहने वाली नायिका मंजरी (संयमी खेर) का पोस्ट मास्टर पिता बेटी को कविता और साहित्य पढ़ने के लिए मुंबई के कॉलेज में भेजता है।

बॉलीवुड की फिल्मों की ही तरह वेब सीरीज भी हिंदुओं की मान्यताओं और उनके आराध्यों का मजाक उड़ाने वाली परंपरा को आगे बढ़ा रही है। हाल ही में SonyLIV पर रिलीज हुई वेब सीरीज ‘फाड़ू’ में भी भगवान गणेश की पूजा का मजाक उड़ाया जा रहा है। भगवान गणेश की पूजा मंत्रों से नहीं बल्कि, गालिब के शेरों से की जा रही है।

इस दृश्य का कहानी के मूल भाव से कोई संबंध नहीं है। यह दृश्य हास्य के लिए ही डाला गया है। हास्य के लिए यदि कुछ न सूझ रहा हो तो सबसे आसान है हिंदू देवी-देवताओं का मजाक बना दीजिए। बॉलीवुड की फिल्म पीके समेत कई फिल्मों में यह प्रयोग हो चुका है। प्रयोग इतना सफल रहा है कि हम जिन आराध्यों के आगे हाथ जोड़कर प्रार्थना करते ,हैं उन्हीं का मजाक उड़ाए जाने पर ताली पीटते हैं और ठहाके लगाकर घर लौट आते हैं।

अब ‘फाड़ू’ वेब सीरीज पर आते हैं। इसे ‘सोनी लिव’ ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज किया गया है। इस वेब सीरीज के निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी हैं और लेखक सौम्य जोशी हैं। वेब सीरीज का टाइटल ‘फाड़ू – अ लव स्टोरी’ के नाम पर न जाएँ। शुरुआत के 2 एपिसोड के बाद कहानी अपने नाम से भटक जाती है और किसी कॉर्पोरेट ड्रामा की तरह आगे चलती है। वेब सीरीज में ऐसी प्रेम कहनी दिखाई गई है, जिस पर विश्वास करना मुश्किल होगा। क्योंकि, ऐसा कम ही होता है कि एक जमीन-जायदाद-खेतीबाड़ी वाला पिता अपनी बेटी को झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लड़के से प्यार करने और घर बसाने से नहीं रोकता।

एक दृश्य में नायिका के पिता बेटी के परीक्षा के परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे हैं। भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं कि रिजल्ट अच्छा हो, इस दृश्य में नायिका के पिता भगवान को गालिब के शेर सुना रहे हैं। संभवतः, हास्य के लिए इस तरह का दृश्य फिल्माया गया होगा। जो शेर भगवान को सुनाया जा रहा है उसको देखिए-

ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे

इस शेर को भी बहुत शोध के बाद चुना गया है। इसमें काबा और कलीसा जैसे शब्द हैं। काबा मक्का की प्रसिद्ध मस्जिद है जहाँ मुस्लिम हज करने जाते हैं। कलीसा ईसाइयों और यहूदियों का गिरजाघर (चर्च) है। यही प्रयोग किसी मस्जिद में हनुमान चलीसा का दृश्य फिल्माकर या गणेश स्तुती के साथ क्यों नहीं किया जाता?

इसी दृश्य में एक संवाद भी है। पास खड़ा व्यक्ति जब उन्हें टोकता है कि आज तो शास्त्रीय पूजा कर लीजिए, इस पर नायिका के पिता जवाब देते हैं, “अरे… बप्पा (भगवान गणेश) को गालिब सुना रहा हूँ, यह भी तो एक प्रकार की पूजा ही है न?” बप्पा को गालिब सुनाना कौन से प्रकार की पूजा है? कहाँ इसके प्रमाण हैं? यह दृश्य शुद्ध रूप से एक पूजा पद्धति को दूषित करने का प्रयास है। कई दृश्यों में नायक के पिता जब भगवान का आशीर्वाद लेने को कहते हैं तो नायक औपचारिकता भर कर लेता है। इसे उभारा गया है। नायक के ईश्वर के प्रति अविश्वास को दिखाया गया है।

आगे भी पूरे वेब सीरीज में ऐसा लगता है कि कहानी को जबरन थोपा जा रहा है। कोंकण के एक गाँव में रहने वाली नायिका मंजरी (संयमी खेर) का पोस्टमास्टर पिता बेटी को कविता और साहित्य पढ़ने के लिए मुंबई के कॉलेज में भेजता है। वहीं, मुंबई की झुग्गियों में ऑटोरिक्शा चलाने वाले पिता का बेटा अभय दुबे (पावेल गुलाटी) मंजरी की क्लास में है। मंजरी को अभय से प्यार होता है और चिट्ठियों में मंजरी सब कुछ पिता को बताती जाती है।

दोनों का विवाह हो जाता है। यहाँ तक ‘फाड़ू’ में लव स्टोरी नजर आती है। इसके बाद कहानी में आखिर तक स्टोरी का ट्रैक बदल जाता है और उसमें से लव गायब हो जाता है। अभय को करोड़पति बनना है। यहाँ यह भी समझ से परे है कि व्यापार करने में माहिर लड़का साहित्य के क्लास में दाखिला क्यों लेता है?

सीरीज के सारे पात्र और घटनाएँ इसी बात के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं कि कैसे अभय मुंबई की झुग्गी से निकाल कर परिवार को एक भव्य सोसाइटी में ले जाएगा। लिटरेचर पढ़ते हुए वह अचानक बिजनेस-मार्केटिंग में अपने जबर्दस्त काबलियत से पैसे वालों को चमकाने लगता है। कहानी अभय के पैसा कमाने और रईस बनने पर फोकस हो जाती है।

11 एपिसोड वाली लंबी वेब सीरीज देखने के बाद आपको लग सकता है कि कुछ घटनाएँ और किरदार बेवजह थे। सीरीज में एक लंबा ट्रेक बी ग्रेड फिल्मों के प्रोड्यूसर का है। उसका आना और जाना मूल कहानी में कुछ नहीं जोड़ता। जैसे गणपति के सामने गालिब के शेर पढ़ा लेने से कुछ नहीं बदलता। ऐसा लगा वेब सीरीज के निर्माता इसे खींचने में लगे रहे। वेब सीरीज में नायक को नास्तिक की भाँति दिखाने की कोशिश हुई है।

हमारे देश में शुरू से ही फिल्मों का इस्तेमाल परसेप्शन (Perception) बनाने के लिए किया जाता रहा है। यह बॉलीवुड की ही देन है कि हमारे पहनावे, श्रृंगार का तरीका और परंपराओं को लेकर नौजवानों के मन में विकृति पैदा कर दी गई। फिल्मों में मान्यताओं का जिस तरह से कुतर्क के आधार पर एकतरफा मजाक बनाया गया, वह खेल आज भी जारी है। ठाकुरों और गाँव के ब्राह्मणों को खलनायक की भूमिका में दिखाने वाला बॉलीवुड महादेव के दुग्धाभिषेक पर सवाल खड़े कर देता है लेकिन अन्य धर्म की विकृतियों को भी सकारात्मक रुप से परोसने की कोशिश करता है। भगवान गणेश के सामने गालिब के शेर पढ़े जा सकते हैं लेकिन इनकी हिम्मत नहीं कि किसी मस्जिद के सामने गणेश वंदना फिल्मा सकें।

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राजन कुमार झा
राजन कुमार झाhttps://hindi.opindia.com/
Journalist, Writer, Poet, Proud Indian and Rustic

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