Monday, November 18, 2024
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लाल झंडा और हँसिया छाप ही आदिवासियों का रहनुमा, माँ लक्ष्मी की तस्वीर वाला गुंडा: हिंदीभाषी निर्माता की ‘जय भीम’ में हिंदी पर थप्पड़

कई लोगों को इस फिल्म को देखते हुए भीमा-कोरेगाँव में हिंसा कराने वाले अर्बन नक्सलियों की याद आ सकती है। आखिर वो भी तो सामाजिक कार्यकर्ता, वकील और नेता की भूमिका में ही थे न? वनवासी समुदाय की आवाज़ उठाने के नाम पर उन्होंने हिंसा भड़काई और तख्तापलट की साजिश रची।

बॉलीवुड तो अक्सर अपने हिन्दू विरोधी कंटेंट्स के कारण विवादों में रहता है। देश के अन्य हिस्सों की सिनेमा भी इससे अछूती नहीं है। यूँ तो दक्षिण भारत की फिल्मों में परंपरा और धर्म का सम्मान किया जाता रहा है, मंदिरों के इर्दगिर्द दृश्य फिल्माए जाते रहे हैं और स्थानीय देवी-देवताओं को उच्च दृश्य से देखा जाता रहा है। लेकिन, बीच-बीच में ‘एक्सपेरिमेंट्स’ के नाम पर ‘कुछ भी’ करने की प्रथा हर जगह है। सूर्या की फिल्म ‘जय भीम’ इसका एक अच्छा उदाहरण है।

‘जय भीम’ एक ऐसी फिल्म है, जिसमें थ्रिल को जातिवाद और पुलिस क्रूरता के इर्दगिर्द बुनते हुए कहानी जरूर 90 के दशक के मध्य की ली गई है, लेकिन इसमें आपको हर दृश्य में ऐसा लगेगा कि कहीं इसके जरिए आज के किसी प्रोपेगंडा को तो आगे नहीं बढ़ाया जा रहा? प्रकाश राज जैसे अभिनेता का इसमें होना इस तथ्य को और बलवती बनाता है। वनवासियों की पीड़ा और पुलिस क्रूरता दिखाने के नाम पर वामपंथ का जो महिमामंडन किया गया है, वो तो बर्दाश्त के काबिल नहीं ही है।

इस फिल्म में मुख्य किरदार में जो अभिनेता हैं, वो और उनकी पत्नी ज्योतिका इस फिल्म का निर्माता भी हैं। ज्योतिका तमिल फिल्मों की एक लोकप्रिय अभिनेत्री रही हैं। फिल्म का एक दृश्य सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है, जिसमें पुलिस अधिकारी का किरदार निभा रहे प्रकाश राज तिलक लगाए एक व्यक्ति को थप्पड़ मार कर कहते हैं कि तमिल में बोलो। वो हिंदी में बोलने का प्रयास करता है, इसीलिए उसे थप्पड़ मारा जाता है। कथित रूप से जातिवाद के विरुद्ध बनाई फिल्म ने क्षेत्रवाद को ज़रूर आगे बढ़ाया है।

आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि फिल्म की निर्माता ज्योतिका खुद एक उत्तर भारतीय हैं और उनका जन्म पंजाब में हुआ था। अभिनेत्री नगमा उनकी बहन हैं। अभिनय की दुनिया में कदम भी उन्होंने ‘डोली सजा के रखना’ नाम की एक हिंदी फिल्म से ही की थी, जिसका निर्देशन प्रियदर्शन ने किया था। ऐसे में एक हिंदी भाषी निर्माता द्वारा बनाई गई फिल्म में हिंदी भाषा को लेकर इस तरह घृणा के भाव दिखाना पचता नहीं है, लेकिन तुष्टिकरण भला क्या न कराए! और तो और, इस फिल्म को हिंदी में भी डब कर के व्यापार किया जा रहा है।

प्रकाश राज अब सफाई दे रहे हैं कि लोगों को ‘आदिवासियों की पीड़ा’ की जगह थप्पड़ दिखाई दे रही है। उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों को ST समुदाय की समस्या की जगह, यही समझ में आया। लोगों की बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर रहे प्रकाश राज का ये भी कहना है कि 90 के दशक का कोई तमिल पुलिस अधिकारी हिंदी सुन कर ऐसी ही प्रतिक्रिया देगा, क्योंकि उसे ऐसा लगेगा कि सामने वाला तमिल जानते हुए भी दूसरी भाषा में बात कर जाँच को भटका रहा है।

फिल्म में मुख्य अभिनेता मद्रास हाईकोर्ट में एक अधिवक्ता होता है। खुद को दलितों के करीब दिखाए जाने के लिए उलझे हुए घुँघराले बाल होते हैं उसके। वो ‘मानवाधिकार मामलों’ की फीस भी नहीं लेता है। पुलिस की क्रूरता से लॉकअप कस्टडी में एक मौत का मामला सामने आता है और यही फिल्म की कहानी भी है कि कैसे कानून के जरिए दोषी पुलिसकर्मियों को सज़ा मिलती है। एक्शन के लिए जानी जाने वाली इंडस्ट्री और अभिनेता के लिए ऐसी कहानियाँ नई ही होती हैं।

हिंसा को ज्यादा से ज्यादा बोल्ड तरीके से दिखाने के लिए बॉलीवुड में अनुराग कश्यप जाने जाते हैं। इस फिल्म में पीड़ितों के विरुद्ध हिंसा को उसी तरह से प्रदर्शित किया गया है, ताकि दर्शकों के मन में सहानुभूति का भाव उत्पन्न हो और आरोपित पुलिसकर्मियों से वो घृणा करें। पुलिस जाति देख कर क्रूरता करती है, इसमें ये दिखाया गया है। अब तक के वास्तविक उदाहरणों में यही देखा गया है कि पद और रुपए में मदांध इंसान गरीबों पर अत्याचार करता है। यहाँ जाति ही सब कुछ है।

फिल्म में जब भी कहीं किसी गरीब के साथ अन्याय, या यूँ कहिए कि वनवासी समुदाय या दलितों के साथ अन्याय होता है तो लाल रंग का कम्युनिस्ट झंडा उठाए लोग ही सड़क पर मिलते हैं, जो उनके हक़ में न्याय की माँग करते हैं। झंडे पर हँसिया (हँसुआ) का निशान बना होता है। 90 के दशक के वनवासी समुदाय को साँप पकड़ते हुए, चूहे खाते हुए, ‘बड़ी जाति वालों’ को उनसे घृणा करते हुए और टूटे-फूटे कच्चे घरों में रहते हुए दिखाया गया है। लेकिन, दिक्कत गरीबी के प्रदर्शन से नहीं है।

एक कार्यक्रम में बच्चे विभिन्न स्वतंत्रता सेनानियों की वेशभूषा में बच्चे होते हैं।वहाँ मुख्य अभिनेता पूछता है कि इतने अच्छे कार्यक्रम में गाँधी-नेहरू हैं लेकिन आंबेडकर क्यों नहीं हैं? सड़क पर कहीं भी बैठ कर किए जाने वाले विरोध प्रदर्शनों, बात-बात में पुलिस से उलझने की बातें, ‘सरकार के खिलाफ लड़ाई’ वाले नैरेटिव और वामपंथियों को गरीबों के हक़ में आवाज़ उठाते दिखाना – इससे साफ़ है कि इस फिल्म की पृष्ठभूमि आज के परिदृश्य को देखते हुए लिखी गई है।

कई लोगों को इस फिल्म को देखते हुए भीमा-कोरेगाँव में हिंसा कराने वाले अर्बन नक्सलियों की याद आ सकती है। आखिर वो भी तो सामाजिक कार्यकर्ता, वकील और नेता की भूमिका में ही थे न? वनवासी समुदाय की आवाज़ उठाने के नाम पर उन्होंने हिंसा भड़काई और तख्तापलट की साजिश रची। कहीं इस फिल्म के माध्यम से ऐसे लोगों के प्रति सहानुभूति पैदा करने की कोशिश तो नहीं की गई है? अदालत कार्यवाही और वक वकील के इन्वेस्टीगेशन का तानाबाना अच्छे से बना गया है और उसमें उलझा दर्शक प्रोपेगंडा को सच ही मान बैठता है।

फिल्म के सबसे क्रूर किरदार, जो एक पुलिस इंस्पेक्टर का है – उसकी दीवार पर माँ लक्ष्मी की तस्वीर वाला एक कैलेंडर टँगा होता है। अर्थात, गुंडे हिन्दू धर्म को मानने वाले होते हैं। हालाँकि, अब ‘सांप्रदायिक सद्भाव को बरकरार रखने’ और ‘समावेशिता’ की बात करते हुए इस दृश्य को हटा दिया गया है। कहा गया है कि कोई समुदाय कहीं इसे सन्दर्भ से हट कर न ले ले, इसीलिए ऐसा किया गया है। उनका कहना है कि वो किसी की धार्मिक या राजनीतिक विचारधारा को ठेस नहीं पहुँचाना चाहते। राजनीतिक रूप से ठेस वो पहुँचा भी नहीं सकते थे, क्योंकि तमिलनाडु का एक छोटा दल भी उनकी हेकड़ी गुम करने की ताकत रखता है।

मद्रास उच्च-न्यायालय में एक बुजुर्ग अधिवक्ता को दिखाया गया है, जो हमेशा ‘शिवाय नमः’ कहता रहता है। जाहिर है, भगवान का नाम लेने वाले फिल्मों में कभी अच्छे आदमी हो भी नहीं सकते। इस फिल्म में उसका कोई किरदार खास तो नहीं, एल्कीन एक मजाकिया और नकारात्मक व्यक्ति के रूप में उसका चित्रण किया गया है। अब ‘मूलनिवासियों’ और ‘द्रविड़ों’ को खुश करने के लिए ब्राह्मणों को गाली नहीं तो कम से कम उन्हें इस तरह से प्रदर्शित किया ही जा सकता है।

अंत में ये ज़रूर बता दें कि फिल्म अच्छी बनी है और तकनीकी रूप से इसमें सब कुछ ठीक है, लेकिन प्रोपेगंडा का छौंक इसकी पटकथा को ज़रूर प्रभावित करता है। वनवासी समुदाय को मुख्यधारा में लाने, उन्हें मिलने वाली सुविधाएँ उन तक पहुँचाने और सरकार व उनके बीच माध्यम का काम करने की प्रेरणा सबको मिलनी चाहिए, लेकिन वामपंथी और नक्सली इसमें कहीं नहीं आने चाहिए। उनका लाल झंडा खून का परिचायक है। सरकार को हमें अपदस्थ नहीं करना है, हम सिर्फ उन्हें बदल सकते हैं। यही संविधान है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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